सद्‌गुरुगुरु और शिष्य के संबंधों को लेकर कई बार जिज्ञासु के मन में प्रश्न उठते हैं कि आखिर किस रूप में वह ले इस संबंध को – एक पिता-पुत्र की तरह, भक्त-भगवन की तरह या प्रेमी-प्रियतम की तरह? क्या इस रिश्ते में प्रेम उचित है?जानते हैं कि कैसे ये रिश्ता भावनाओं से शरू होता है और फिर ऊर्जा के मिलन तक पहुंचता है


प्रश्न : क्या हमें गुरु से प्रेम करना चाहिए? हममें से कई लोग इस भावना को महसूस करते हैं।

सद्‌गुरु : आप चाहे गुरु से प्रेम करें, या पहाड़ों से करें, या अपने पति, बच्चों या किसी और से – यह सिर्फ आपकी भावना है। भावना सही या गलत नहीं होती लेकिन अभी अगर वह आपके जीवन की सबसे तीव्र चीज है, तो उसे और तीव्रता दें। असल में यह काफी मूर्खतापूर्ण चीज है। क्योंकि आप इससे बेहतर किसी और चीज को नहीं जानते, इसलिए यही चीज़ करते हैं।

भावना सही या गलत नहीं होती लेकिन अभी अगर वह आपके जीवन की सबसे तीव्र चीज है, तो उसे और तीव्रता दें।

मूर्खतापूर्ण से मेरा मतलब यह नहीं है कि आप इस भावना को नष्ट कर दें। आप इसे नष्ट नहीं कर सकते। आपके भीतर सबसे सुखदायक स्थिति वही होती है, जब आप प्रेम में होते हैं। लोग दिव्य प्रेम की बात करते हैं, मगर प्रेम एक मानवीय भावना है। प्रेम में होना, अस्तित्व में आपके होने का एक अद्भुत तरीका है। मगर क्या यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है? नहीं। प्रेम का अर्थ है कि मूलभूत रूप से आप अब भी किसी चीज या व्यक्ति के साथ एक होने की चाह रखते हैं। आप अभी सिर्फ चाहते हैं। यहीं आपको मंजिल नहीं मिल जाती। प्रेम मंजिल नहीं है। प्रेम सिर्फ एक वाहन है, जो आपको एक खास दिशा में ले जाता है।

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प्रेम आध्यात्मिक यात्रा को आनंद पूर्ण बनाता है

प्रेम आपको ऐसा महसूस करवाता है कि आप अपने प्रियतम के साथ एक हैं, मगर यह वास्तव में कभी आपको एक नहीं करता। इसलिए एक समय ऐसा आता है जब आप अपने प्रेम से निराश हो जाते हैं, जब वह आपको किसी दिशा में ले तो जाता है, मगर कहीं पहुंचाता नहीं। यह कुछ ऐसा ही है जैसे हिमालय की बस यात्रा। अगर आपने हिमालय में कोई बस यात्रा की हो तो आपने महसूस किया होगा कि ऐसा लगता है मानो हम सिर्फ बस में सफर किए जा रहे हैं, लेकिन बस कहीं नहीं पहुंच रही।

प्रेम का अर्थ है कि मूलभूत रूप से आप अब भी किसी चीज या व्यक्ति के साथ एक होने की चाह रखते हैं। आप अभी सिर्फ चाहते हैं। यहीं आपको मंजिल नहीं मिल जाती।
शुरू में यह मजेदार लगता है मगर चाहे वह सफर कितना भी सुहावना हो, कुछ समय बाद वह निराशाजनक हो ही जाता है क्योंकि आप कहीं पहुंचना चाहते हैं। उसी तरह प्रेम में आप किसी चीज के साथ एकाकार होना चाहते हैं।

अभी आप बस में हैं, ठीक है, लेकिन अगर बस किसी मंजिल पर नहीं पहुंचाती, तो उसमें जाने का कोई मतलब नहीं है। जब आप ‘गुरु के लिए प्रेम’ की बात करते हैं, तो दरअसल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके प्रेम का विषय क्या है। आप चाहे पहाड़ से प्रेम करते हों या गुरु से, मां से या पिता से। मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा यह है कि अगर आप अपने आस-पास प्रेम का माहौल रखेंगे, तो चाहे आपके आस-पास कुछ भी घटित हो रहा हो, आपके लिए इस दुनिया में अधिक सुखद तरीके से रहने की संभावना मौजूद रहती है। खास तौर पर अगर आप आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहते हैं, तो अपनी भीतरी स्थिति को सुखद रखना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मार्ग बहुत चुनौतीपूर्ण है। अगर आप जानते हैं कि अपनी भीतरी स्थिति को सुखद कैसे रखें, अगर आपकी भावनाएं हर समय सुखद रहती हैं, तो इस मार्ग पर चलना एक आनंदपूर्ण प्रक्रिया बन जाता है।

अपना अस्तित्व ही आनंद पूर्ण बना लें

अगर आप ऐसे नहीं हैं, अगर आपके अंदर प्रेम की भावना नहीं है, तो आपको अपने अस्तित्व के आनंदमय स्वरूप को जानना होगा। फिर आप किसी चीज के कारण खुश नहीं होते, आपका अस्तित्व ही आनंददायक होता है। आपके शरीर की हर कोशिका मधुर हो जाती है। आप किसी से प्रेम नहीं करते, आप किसी को पसंद या नापसंद नहीं करते – आप बस अपने अंदर सुखद होते हैं।

जब आप अपने भीतर इतने मधुर और सुखद होते हैं, तो आपकी मौजूदगी ही सुखद हो जाती है।

गुरु के लिए प्रेम की बात इसलिए की जाती है क्योंकि उसका खेल सिर्फ उस सीमा तक होता है जब तक कि आप उसके प्रेम में न पड़ जाएं।
आपको सुखद होने के लिए किसी भावना को नहीं जगाना पड़ता। आप जिस चीज को देखते हैं, छूते हैं या नहीं छूते – हर अनुभव मधुर होता है। जब तक आप ऐसे नहीं हैं, प्रेम में होना सबसे अच्छा तरीका है।

एक खास गलतफहमी और साथ ही एक खास समझदारी के कारण गुरु के प्रति प्रेम पर इतना जोर दिया गया है। जैसे ही आप किसी से प्रेम करते हैं, आप उससे कुछ प्रतिक्रिया की उम्मीद करते हैं। जब वह प्रतिक्रिया देता है, तो यह दो लोगों के बीच एक तरह का लेन-देन हो जाता है। कुछ समय के बाद, यह लेन-देन अपेक्षाओं और बंधन में बदल जाता है। एक खास तरह के व्यवहार और जीवन शैली की उम्मीद की जाती है। ऐसा न होने पर एक या दूसरे को काफी पीड़ा होती है।

भावना से ऊर्जा तक का सफर

गुरु के लिए प्रेम की बात इसलिए की जाती है क्योंकि उसका खेल सिर्फ उस सीमा तक होता है जब तक कि आप उसके प्रेम में न पड़ जाएं। मगर वह कभी आपके साथ किसी बंधन में उलझेगा नहीं। आप जितना चाहें, उसके साथ जुड़ सकते हैं।

प्रेम आपको ऐसा महसूस करवाता है कि आप अपने प्रियतम के साथ एक हैं, मगर यह वास्तव में कभी आपको एक नहीं करता। इसलिए एक समय ऐसा आता है जब आप अपने प्रेम से निराश हो जाते हैं, जब वह आपको किसी दिशा में ले तो जाता है, मगर कहीं पहुंचाता नहीं।
वह आपको पकड़ कर रखेगा -इसका कोई खतरा नहीं है। इसलिए अगर आप उसके साथ गहराई तक जुड़ते हैं - तो इसमें कोई बुराई नहीं है। मगर धीरे-धीरे अगर आप अपनी साधना करते रहें, तो आप पाएंगे कि प्रेम अब कोई भावना नहीं है, यह सिर्फ आपके होने का तरीका है। अब आपकी ऊर्जा उसके साथ स्पंदित होती है। अब यह भावनात्मक मामला नहीं रह गया है।

हम इसे भावनात्मक स्थिति से धीरे-धीरे ऊर्जा के स्तर तक ला सकते हैं। गुरु के साथ आपका संबंध ऊर्जा का है और यह बहुत अच्छी बात है। यह आपके अस्तित्व में होने का बहुत बढ़िया तरीका है क्योंकि इस स्थिति में चरम संभावना बहुत करीब होती है। उस स्थिति में गुरु को आपके साथ कुछ भी करने की बहुत आजादी होती है। मगर अभी भावना आपका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो आपको किसी दिशा की ओर प्रेरित कर रही है। भावना के बिना आप जुड़ नहीं सकते। अभी आपकी बनावट ऐसी ही है, इसलिए भावना में कोई बुराई नहीं है।