सद्‌गुरुभारतीय परम्परा में दान कर्म पर जोर दिया जाता है। क्यों दिया जाता है दान? क्या दान का फल आपको कहीं और बाद में मिल सकता है? जानते हैं

प्रश्न : तमिल में एक आम कहावत है, जिसका मतलब है, ‘जो परिवार हमेशा दान देता है, नष्ट हो जाता है और जो परिवार सदा दान पाता है, वह भी नष्ट हो जाता है।’ यानी देने और पाने वाला, दोनों ही नष्ट होंगे। ऐसा क्यों सद्‌गुरु?

सद्‌गुरु : बुनियादी तौर पर उनका मतलब है कि आप या तो हमेशा दान ले रहे हैं या दान पर जीवित हैं, या अगर आप दान दे रहे हैं तो केवल अच्छाई को लेकर जो आपकी सोच है, उसकी वजह से आप हर किसी को दान देते जा रहे हैं, न कि इस वजह से कि यह हालात की मांग है।

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अगर आपके भीतर इंसानियत जिंदा होगी, तो आप वहां अवश्य देंगे, जहां देने की ज़रूरत होगी। मैं इसे देना नहीं, बांटना कहूंगा, जो इंसान का स्वाभाविक गुण है। आपस में बांटने से ही खुशियां कई गुना हो जाती हैं।
अगर आपको लगता है कि दान देने से आप अच्छे बन रहे हैं या स्वर्ग में जाने का टिकट मिल जाएगा, तो यह बिल्कुल ठीक नहीं है। लेकिन अगर आप देखते हैं कि किसी को ज़रूरत है और आप जो दे सकते हैं, वो भी उसे नहीं देते, तो आप इंसान ही नहीं हैं।
देने में कोई हर्ज़ नहीं है। समस्या तब आती है, जब आप हालात के हिसाब से देने की बजाए, अपने संतोष के लिए देना चाहते हैं। ऐसा हो रहा है क्योंकि इंसान बहुत ही विचित्र उपायों से अपने मन की शांति और प्रसन्नता की तलाश कर रहा है। उन्हें लगता है कि अगर आज वे कुछ देंगे तो उन्हें कहीं और जाने पर शांति मिलेगी। नहीं, प्रसन्नता और शांति तो सिर्फ आपके भीतर पैदा होती है।

अगर आपके भीतर इंसानियत जिंदा होगी, तो आप वहां अवश्य देंगे, जहां देने की ज़रूरत होगी। मैं इसे देना नहीं, बांटना कहूंगा, जो इंसान का स्वाभाविक गुण है। आपस में बांटने से ही खुशियां कई गुना हो जाती हैं। अगर आपके साथ कुछ अच्छा हुआ है तो आप इसे सहज भाव से दूसरों के साथ बांटना चाहेंगे क्योंकि मनुष्य एक सामजिक प्राणी हैं।

मानवता का गुण न हो, तो दान की शिक्षा देनी होगी

दुर्भाग्यवश, हम हमेशा लोगों को अच्छाई का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें मानवता नहीं सिखाते। इंसान के हृदय में मानवता को जगाने की बजाए, हम नैतिकता की पट्टी पढ़ाते हैं। स्वर्ग जाने की इच्छा हो या संतुष्टि पाने का लोभ, यह दान केवल एक सौदेबाज़ी है।

जब आप अपनी इंसानियत को सुला देते हैं तो आपको याद दिलाना होगा, ‘कृपया दिन में दो बार दें, चार बार लें।’ लोग इसी गिनती या अनुपात पर राजी होंगे! अगर आप कहें, ‘कृपया दिन में चार बार दें, दो बार लें - तो कोई हामी ही नहीं भरेगा।
ये बस एक व्यापार है।
अगर आप मन की शांति पाने के लिए किसी भिखारी को एक कटोरा चावल देते हैं, तो मन की शांति और चावल का ये सौदा अनुचित है। शांति एक कटोरा बचे हुए खाने से कहीं अधिक किमती है। शांति का मोल वही जानता है जो इसे खो चुका हो - तब उसका उठना, बैठना और सोना तक मुश्किल हो जाता है। किसी भिखारी को बस बचा भोजन दे कर शांति नहीं खरीदी जा सकती - मेरे ख्याल से ये लेन-देन अनुचित है।
देने और लेने का यह विचार इंसान के जीवन में मानवता के विकल्प के तौर पर लाया गया। मानवता से मेरा मतलब एक मानवीय गुण से है। जब आप अपनी इंसानियत को सुला देते हैं तो आपको याद दिलाना होगा, ‘कृपया दिन में दो बार दें, चार बार लें।’ लोग इसी गिनती या अनुपात पर राजी होंगे! अगर आप कहें, ‘कृपया दिन में चार बार दें, दो बार लें - तो कोई हामी ही नहीं भरेगा।

दान का लेन-देन निरंतर जारी है

अगर आप जीवन के सिलसिले को समझते हैं, तो इसमें वाकई कोई लेन-देन नहीं है। जीवन आपस में गहराई से जुड़ा है। अगर आप सांस लेते व छोड़ते हैं तो आपके और पेड़ों के बीच एक लेन-देन हो रहा है।

जीवन का सिलसिला ऐसे ही चलता है। यदि आप लेन-देन या कहें बांटने की इस निरंतर प्रक्रिया के साथ लय में हैं तो आप जीवन-प्रक्रिया के साथ भी लय में होंगेैं।
इसमें आपके पास कोई विकल्प या च्वाइस नहीं है। जीवन का सिलसिला ऐसे ही चलता है। यदि आप लेन-देन या कहें बांटने की इस निरंतर प्रक्रिया के साथ लय में हैं तो आप जीवन-प्रक्रिया के साथ भी लय में होंगेैं। नहीं तो आपमें इसके प्रति विरोध होगा, आपके विचार जीवनधारा से विपरीत होंगे जिनके कारण आपको कष्ट झेलना होगा।
अगर आप दुनिया में देखें तो बहुत से लोगों पर बसंत की बहार नहीं दिखती। उन्हें देख कर लगता है मानो कड़ाके की ठंड में जकड़े हुए हों। उनके हृदय पत्थर हो गए हैं क्योंकि वे आसपास के जीवन के साथ ट्यून्ड नहीं हैं। इस ग्रह के हर जीव के लिए प्रकृति ने मौसम तय कर रखे हैं। एक पेड़ पर खास मौसम में फूल आते हैं। खास ऋतुओं में पशुओं का मेल है। लेकिन इंसानों के लिए प्रकृति ने कोई मौसम निश्चित नहीं किया है। उसने आपको फ्री छोड़ रखा है - किसी भी मौसम से मुक्त।
कुदरत ने आपकी अक्ल और सजगता पर भरोसा किया कि अगर आपको फ्री छोड़ा जाएे तो आप पूरे साल स्वाभाविक रूप से सबसे बेहतर तरीके से रहना चुनेंगे। प्रकृति को विश्वास था कि लोग बारहों महीने बसंत मना सकते हैं। लेकिन लोगों ने बारहों महीने ठंड में जकड़े रहना चुन लिया है। उनके जीवन में वसंत ऋतू कभी-कभार आती जाती रहती है। वे केवल तभी मुस्कुराते हैं जब उन्हें गुदगुदी की जाती है।

जीवन की समझ खो दी है हमने

देने और लेने का यह विचार तभी आया, जब हमने जीवन की समझ को खो दिया। अगर जीवन की समझ होती तो हम जान जाते कि जीवन अपने आप में लेन देन का एक सिलसिला ही तो है।

अगर आप भीतर से बसंत की तरह होंगे, तो आप प्रसन्न व उल्लास से भरपूर होंगे। किसी को आपको बताना नहीं पड़ेगा कि आपको कब देना है और कब लेना है।
कोई भी बिल्कुल अलग और अकेले नहीं रह सकता। कुछ ऐसा है, जो परे है, परम है। परंतु जिस जीवन को आप देह, मन, भावनाएं और आसपास के परिवेश के रूप में जानते हैं, उसमें लेन-देन को आप नकार नहीं सकते। कोई भी इससे बच नहीं सकता।
अगर आप इससे बचते हैं, तो जीवन आपसे इसकी भारी कीमत वसूल लेगा। आपके चेहरे और हृदय पर बसंत का नाम भी नहीं बचेगा। ऐसा लगेगा मानो आप अपनी कब्र पर जी रहे हैं। 90 प्रतिशत लोग अपने मूड और रवैये ऐसे रखते हैं, जैसे कि वे अपनी कब्र के ऊपर जी रहे हों। अगर आप भीतर से बसंत की तरह होंगे, तो आप प्रसन्न व उल्लास से भरपूर होंगे। किसी को आपको बताना नहीं पड़ेगा कि आपको कब देना है और कब लेना है। आपको अच्छी तरह पता होगा कि जीवन के साथ क्या करना है।