30 अगस्त, 2000 को संयुक्त राष्ट्र के धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं के सहस्राब्दी विश्व शांति सम्मेलन (मिलेनियम वर्ल्ड पीस समिट) के कार्य सत्र में सद्गुरु का संबोधन

माफी और सुलह : वैश्विक चुनौतियां, स्थानीय पहलें

सद्‌गुरु: एक के बाद एक वक्ताओं ने धर्म की सार्वभौमिकता पर जोर दिया। हां, मैं इस बात को जानता हूं और उसका सम्मान भी करता हूं। मैं जिस संस्कृति से आया हूं, उसकी बनावट यही है। मगर इस सम्मेलन का मकसद क्या है? क्या इसका मकसद ‘हरेक से प्रेम करो’ के अक्सर दोहराए गए मगर कभी इस्तेमाल में न लाए गए सिद्धांत को समझाना है? या फिर उन कटु हकीकतों का हल ढूंढना जिसे हम धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता और नफरत के रूप में झेल रहे हैं? मैं जानना चाहता हूं कि यह एक दिखावटी सम्मेलन है या शांति का सच्चा वादा।

मैं सभी धार्मिक नेताओं से अनुरोध करता हूं कि वे हर व्यक्ति को चैतन्य तक पहुंचने के उसके अपने रास्ते पर चलने दें। दूसरे धर्मों की पवित्र परंपराओं को राक्षसों का काम मानना सबसे बुरी तरह की हिंसा है।

‘सुलह’ – यह शब्द मुझे अक्सर सुनाई देता है। यहां, इस सम्मेलन में, मैं पिछले सभी गुनाहों को माफ कर सकता हूं, मगर आहत संस्कृतियों के युवा इसे कभी माफ नहीं करेंगे।

मैं सभी धार्मिक नेताओं से अनुरोध करता हूं कि वे हर व्यक्ति को चैतन्य तक पहुंचने के उसके अपने रास्ते पर चलने दें। दूसरे धर्मों की पवित्र परंपराओं को राक्षसों का काम मानना सबसे बुरी तरह की हिंसा है। जब तक हम धर्म से बलप्रयोग, लालच और कपट को दूर नहीं करते, माफ करना संभव नहीं होगा। मैं आप सभी को भाई मानता हूं, इसलिए बहुत कष्ट के साथ कह रहा हूं – इसके बिना शांति संभव नहीं है।

मैं आप सब से प्रार्थना करता हूं, हम सब को वो करना चाहिए जो जरूरी है।