सद्‌गुरु: जब मैं स्कूल जाता था तो स्कूल से भागने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता था। मैं किसी भी चीज़ पर पर बहुत तेज़ी से चढ़ जाता था। वे मुझे लंच बॉक्स, बैग और पानी की बोतल के साथ स्कूल भेजते और मेरे पास साइकिल भी थी, इस तरह मेरे पास पूरा दिन बिताने का प्रबंध रहता। मैं स्कूल में जा कर अपनी हाज़िरी लगवाता और फिर अपनी साइकिल पर सवार हो कर, कैंपस के सबसे बड़े पेड़ के पास चला जाता। फिर पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर चढ़ बैठता और वहाँ सारा दिन बैठा रहता। मेरी कोशिश यही रहती कि किसी शाखा के किनारे पर जा कर बैठूँ।

वह शाखा धीरे-धीरे झूलती रहती और मैं उसी अवस्था में बैठा रहता, मैं इतना मग्न हो जाता कि कई बार तो उड़ने का मन करने लगता। मैं वहाँ पूरा-पूरा दिन बैठा रहता। जब मैं छोटा था तो मेरे पास घड़ी नहीं थी इसलिए जब बच्चों को स्कूल से घर जाते देखता तो मुझे पता चल जाता कि स्कूल की छुट्टी हो गई। मैं पेड़ से उतर कर, घर चला जाता। बहुत बाद में जा कर, जब मैंने ध्यान रमाना आरंभ किया, तो मुझे एहसास हुआ कि जब मैं शाखा पर झूलता था तो अनजाने में ध्यान ही लगाया करता था।