पेड़ लगाना कैसे काम करता है

भारत की नदियाँ बारिश के पानी पर निर्भर हैं। बारिश का पानी दो तरह से नदियों व नालों में प्रवेश करता है। पहला तरीका है – धरती की सतह से प्रवाहित होकर आना। और दूसरा तरीका है – भूमिगत प्रवाह से आना। बारिश का पानी मिट्टी के नीचे जा कर भूमिगत पानी बन जाता है, जो धीरे-धीरे धरती के नीचे बहते हुए नदियों और नालों में प्रवेश करता है।

पेड़ बारिश के पानी को मिट्टी में रिसने में मदद करते हैं क्योंकि जीवित और मृत जड़ें मिट्टी को पोरयुक्त(छेददार) कर देती हैं जिससे मिट्टी में, आपस में जुड़े हुए छोटे-छोटे चैनल बन जाते हैं। बारिश का पानी उन्हीं मार्गों से होते हुए नीचे जाता है। बिना मार्गों वाली मिट्टी की तुलना में यह प्रवेश सौ गुना अधिक तेजी से होता है।

इसके अलावा, जब पेड़ों से निकला कचरा धरती पर गिरता है और जैविक रूप से घुलने लगता है, तो इससे मिट्टी को अपनी पोषकता बनाए रखने में मदद मिलती है और उस में छोटे पिंड बन जाते हैं। इन पिंडों से भी मिट्टी छेददार बनती है।

जब मिट्टी पानी को अवशोषित कर लेती है, तब जिस तरह बारिश का पानी मिट्टी में नीचे की ओर जाता है, उसी तरह यह पानी क्षितिज के समानांतर भी जा सकता है। इस तरह का भूमिगत पानी प्रवाह, पानी को नदियों व नालों तक ले जा सकता है। भूमिगत पानी की गति 1 फुट प्रतिवर्ष या 1 फुट प्रति दशक हो सकती है, लेकिन यह 1 फुट प्रतिदिन से अधिक नहीं होती। इस भूमिगत पानी को बेस फ्लो कहा जाता है।

भूमिगत प्रवाह और नदी के पानी का अनुपात

यह अनुमान लगाना कठिन है कि इस बेस फ्लो के कारण नदियों में कितना पानी जाता है इसलिए नदियों में प्रवेश करने वाले पानी का माप कई चीज़ों पर निर्भर करता है। उपद्वीप की नदियों के लिए यह अनुमान 20-40% प्रतिशत के बीच है। नर्मदा के लिए यह 20-22% प्रतिशत के बीच है। गोदावरी के लिए 35% का अनुमान है।

पेड़ों के बिना तथा पेड़ों के सहित, मिट्टी द्वारा पानी सोखने की तुलना

अध्ययनों से यह भी पता चला है कि फसलों व बंजर इलाकों तथा कम वन क्षेत्र की तुलना में, वन क्षेत्र में पानी आसानी से धरती में रिसता है। कर्नाटक के बेलगावी में कृष्णा की एक उप-सहायक नदी पर हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि वनों के लिए भूमिगत पानी अवशोषण 42%, कृषि भूमि में 32% तथा कम सघन वन क्षेत्र में 15% था यानी वनों ने कृषि भूमि की तुलना में 50% अधिक तथा कम सघन वन क्षेत्र की तुलना में तिगुना पानी अवशोषित किया। इसी तरह पश्चिमी घाट के उत्तर कन्नड़ा में हुए अध्ययन से पता चला कि तूफान आने के कुछ घंटों के भीतर नालों में जाने वाले पानी का प्रतिशत, कम वन सघनता वाली भूमि के कुल प्रवाह का 80-90% था। बबूल के वनों में, यह 50-80% था। वनों में यह 35-70% था। बारिश की तीव्रता और मिट्टी के अलग-अलग प्रकारों की वजह से प्रतिशतों में यह अंतर आया है। इसके अलावा धरती की ढलान भी शायद इसका एक कारण था।

यूके में हुए अध्ययनों से पता चला है कि पानी का रिसना, बंजर इलाकों की बजाए उन स्थानों पर 67% अधिक था, जहाँ पेड़ लगे हुए थे। बंजर इलाकों में पानी का अवशोषण नहीं हो पाता क्योंकि जानवरों के खुरों की वजह से मिट्टी अपनी संरध्रता खो देती है।

अगर वनों में पानी का अवशोषण अच्छा हो तो नदियाँ बारहमासी बनी रहती हैं। भारत में हुए कुछ अध्ययनों में पता चला है कि पेड़ों पर आधारित कृषि पहलों के कारण भूमिगत पानी की उपलब्धता में महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं।

विदेशी प्रजातियों की तुलना में देशी प्रजातियाँ बेहतर हैं

यह ध्यान देने योग्य बात है कि देशी पेड़ों की प्रजातियों को नदियों के निकट रोपने के लिए अधिक अनुकूल पाया गया है। शोधकर्ता अक्सर विदेशी पेड़ लगाने की सलाह नहीं देते क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से पानी की उपलब्धता कम हो सकती है। कुछ वैज्ञानिक पत्रों में यह देखा गया कि किस तरह बहुत पानी लेने वाले विदेशी पेड़ धरती के भीतर पानी के स्तर को प्रभावित करते हैं। यह भी कहा गया कि ऐसे पेड़ रोपने से उन इलाकों के भूमिगत पानी प्रवाह में कमी आई है, जिससे नालों में पानी का प्रवाह घटा है। अगर सही तरह के पेड़ लगे हों तो ऐसी दशाओं से बचाव किया जा सकता है।

अध्ययनों में अक्सर तेज़ी से बढ़ने वाले पेड़ों की विदेशी प्रजातियों जैसे यूकेलिप्टस आदि को ही लिया जाता है, इनमें देशी प्रजातियों के बारे में बात नहीं की जाती। ये विदेशी प्रजातियाँ अक्सर देशी प्रजातियों से कहीं ज्यादा पानी सोखती हैं। अधिकतर अध्ययनों में दीर्घकालीन प्रभावों को अनदेखा कर दिया जाता है। कम भूमिगत पानी वाले इलाकों में, अक्सर वृक्षारोपण करने के बाद कुछ वर्षों तक भूमिगत पानी का स्तर बढ़ता है, और इसके बाद उससे नाले के प्रवाह पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने लगता है।

इन अध्ययनों में अक्सर नालों में पानी का वार्षिक प्रवाह मापा जाता है। वार्षिक प्रवाह में बाढ़ और ज्यादा तीव्र घटनाओं से आने वाले पानी के प्रवाह को भी शामिल किया जाता है। जब पेड़ नहीं रहते, तो अक्सर बाढ़ आती है क्योंकि तब अधिकतर पानी कम समय में ही नदियों और नालों में प्रवेश कर जाता है। ऐसा तेज़ प्रवाह अक्सर मनुष्य के काम नहीं आता और सीधा सागर में चला जाता, साथ ही इस दौरान मिट्टी का कटाव होता है जिससे उसके पोषक तत्व भी पानी के संग बह जाते हैं। यही वजह है कि भूतपूर्व उत्पादक क्षेत्र, जिनमें बारिश का वार्षिक प्रवाह ज्यादा था, वे पेड़ हटने के बाद बंजर हो गए।

आई आई टी रुड़की में हुए एक अध्ययन ने, शहरीकरण की वजह से वनस्पति हटाने से पहले और उसके बाद में आने वाले बाढ़ के स्तरों की तुलना की। वनों को कम घनत्व वाले रिहायशी इलाकों में बदलने से भूमिगत पानी के स्तर में 11-30% तक कमी आई है। वनों को अधिक घनत्व वाले रिहायशी इलाकों में बदलने से भूमिगत पानी के स्तर में 52-100% प्रतिशत तक कमी आई है। वन क्षेत्र को व्यावसायिक क्षेत्र में बदलने से भूमिगत पानी के रिचार्ज में 94-100% प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।

हालांकि, पेड़ लगाने से गहरी तीव्रता वाली घटनाएँ कम होती हैं और एक हमेशा बना रहने वाला प्रवाह तैयार होता है, जो बारिश बंद होने के बाद भी उपलब्ध रहता है। यह मिट्टी के कटाव को भी सीमित करता है।

पेड़ों द्वारा पानी सोखने, और उनके द्वारा पानी को आसानी से मिट्टी के भीतर जाने देने की तुलना पर जर्नल नेचर में एक आलेख प्रकाशित किया गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि आदर्श पेड़ घनत्व में ही बारिश का पानी अधिकतम मात्रा में भूमिगत होता है। इसकी कम या अधिक मात्रा होने से यह दर घट जाती है। बहुत अधिक पेड़ होने से पानी धरती के नीचे नहीं जाता, अगर पेड़ अधिक हों तो धरती के सोखने से ज़्यादा पानी वे खुद सोख लेते हैं। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि आदर्श पेड़ संख्या से आगे की संख्या होने पर, पानी का रिसना घटता है पर उन अवस्थाओं से तो अधिक ही होता है जिनमें पेड़ ही नहीं होते।

भारतीय विज्ञान संस्थान के विशेषज्ञ भी देशी पेड़ों की प्रजातियों के महत्व पर ज़ोर देते हैं। उन्होंने कई उदाहरणों के साथ समझाया है कि किस तरह वनस्पति से भरपूर क्षेत्रों, जैसे उनके अपने कैंपस में, भूमिगत पानी के स्तर में वृद्धि हुई है। बंगलौर के, व्हाईफील्ड, आईटीपीएल और के आर पुरम की मिसाल भी दी जाती हैं। उनका कहना है कि इन स्थानों पर वनस्पति की भारी कमी होने की वजह से भूमिगत पानी का स्तर घट गया है। उनके अनुसार, वनस्पति बढ़ाने से यह कमी पूरी हो जाएगी। परंतु यह नतीजे और बेहतर होंगे जब देशी प्रजाति के पेड़ लगाए जाएँगे। एक अध्ययन से पता चला है कि अपनी जड़ों की अनूठी संरचना के साथ देसी प्रजातियाँ पानी को मिट्टी में बेहतर तरीके से जाने का मौका देती हैं जबकि विदेशी प्रजाति के पेड़ पूरी कुशलता से ऐसा नहीं कर पाते।