मंदिरों की मौजूदा स्थिति, एक घोर अन्याय
किसी के पास, किसी दूसरे के पूजा स्थलों पर कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वे कोई भी हों और किसी भी चीज़ में विश्वास करते हों। लेकिन तमिलनाडु में, सत्तासी प्रतिशत आबादी के पूजा स्थल दुर्भाग्य से सरकार के हाथों में हैं। इसका संबंध भारत के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता से है। क्योंकि मेरी समझ में, धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ है कि धर्म, सरकार के साथ खिलवाड़ न करे और सरकार, धर्म के साथ।
मंदिर की व्यवस्था सिर्फ उसकी सफाई और दो बार पूजा करना नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा है – वह बहुत जटिल विज्ञान है। यह देखकर मेरा दिल खून के आँसू रोता है कि एक ऐसी चीज़, जिसे अतीत में इतनी मेहनत और विज्ञान के साथ बनाया गया था, जो चीज़ जबर्दस्त खुशहाली, समृद्धि, वैज्ञानिक विकास और सबसे बढ़कर एक उल्लासमय संस्कृति लेकर आई, वह आज नष्ट होने की प्रक्रिया में है।
हमारा संविधान हर किसी को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार देता है, चाहे उनकी आस्था कुछ भी हो। जब ऐसी बात है, तो बहुसंख्यक आबादी के मंदिरों का प्रबंधन सरकार के हाथ में होना बहुत शर्मनाक है। चाहे आप किसी भी समुदाय के हों, हर समझदार भारतीय को इस दिशा में काम करना चाहिए। मैं नियमित रूप से मंदिर जाने वाले लोगों में नहीं हूँ। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह एक घोर अन्याय है। हाल में, अमेरिकी कवि अमांडा गोरमैन ने एक कविता पढ़ी, जिसमें यह शानदार पंक्ति थी: ... ‘जो हो रहा है, ज़रूरी नहीं कि वो न्याय हो।’ इस समय जो स्थिति है, वह अंग्रेज़ों के जमाने से मौजूद है। यह न्याय नहीं है – यह भारी अन्याय है कि एक समुदाय के लोग अपने पूजास्थलों का रखरखाव नहीं कर सकते।