यह दुःख की बात है कि हम मानव जाति को लिंग के आधार पर बांट रहे हैं, लेकिन शायद यह जरूरी भी हो गया था। क्योंकि सदियों से अलग-अलग समाजों में अलग-अलग रूपों में स्त्रियों के साथ शोषण होता आ रहा है। हमने बहुत शोषण करने वाले समाजों का निर्माण किया। जब मानव समाज इस तरह से बनाए गए हैं, तो हर हाल में पुरुष का शासन होगा। जब विरोध और लड़ाई-झगडा मानव समाज को चलाने का तरीका होगा, तो जाहिर है कि शारीरिक शक्ति के कारण पुरुष का ही राज होगा। बराबरी के आधार पर समाज तभी बनाया जा सकता है जब हम सामाजिक ढांचे में एक खास स्थिरता ला पाएंगे। जब ख़ुद को बचाए रखना ही जीवन का अंतिम मक़सद नहीं रहे, बल्कि वह जीवन का एक छोटा सा हिस्सा भर हो। केवल तभी एक स्त्री को समाज में उसकी सही जगह मिलेगी, जब हमारी सभ्यता में कला, संगीत, सौंदर्य का भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान हो जितना अर्थव्यवस्था(इकोनॉमिक्स), रक्षा आदि का। जिस तरह पुरुषैण यानी पुरुष-गुण मानव-जीवन में एक ख़ास महत्व रखता है, उसी तरह स्त्रैण यानी स्त्री गुण भी हमारे जीवन में एक ख़ास तरह का महत्व रखता है। जब तक कि हम यह नहीं समझ पाते कि ये दोनों गुण हमारे जीवन में बराबर महत्व रखते हैं, तब तक वास्तव में न कोई वास्तविक बराबरी या न्याय हो सकता है, न ही आप कह सकते हैं कि सभ्यता मौजूद है।

स्त्री-गुण भी पुरुष-गुण जितना ही महत्वपूर्ण है

इसलिए जब बुद्धि, संवेदनशीलता, बोध जैसे गुण जीवन के सबसे अहम पहलू होंगे, तभी लैंगिक समानता आ सकती है। अभी पुरुष-प्रकृति वाले मनुष्यों में यह जागरूकता लाने की जरूरत है कि स्त्री-गुण भी जीवन का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया, शिक्षा-प्रणाली और अन्य सामाजिक संगठनों को इस मामले में प्रयास करना चाहिए कि सिर्फ पैसा कमाने या कुछ बना लेने से हमारा जीवन सुंदर नहीं बन सकता, हमारा जीवन तभी सुंदर होगा जब स्त्री-गुण का पहलू हमारे साथ होगा। सिर्फ तभी सब कुछ सुंदर हो सकता है।

जिसे हम पुरुष-गुण और स्त्री-गुण के रूप में जानते हैं, वे प्रकृति के दो बुनियादी गुण हैं। उसका लिंग से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे पुरुष भी हो सकते हैं, जिनमें स्त्री-गुण स्त्रियों से अधिक हों और ऐसी स्त्रियां भी हो सकती हैं, जिनमें पुरुषों से अधिक पुरुष-गुण हो। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि समाज इस बात को समझे। किसी का शरीर स्त्री या पुरुष का हो सकता है, मगर उसके गुण स्त्रैण या पौरुष कोई भी या दोनों का मेल हो सकते हैं। हमारे देश, हमारी संस्कृति में अपने अंदर की ओर देखना हमारे जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू माना जाता है। अगर आप अपने अंदर काफी गहराई में देखें, तो आप देख पाएंगे कि हर व्यक्ति चाहे आपका शरीर पुरुष का हो या स्त्री का, आपके अंदर पुरुष-गुण और स्त्री-गुण बराबर होते हैं। हमने भगवान को भी ऐसा ही रूप दिया है। शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में दिखाया जाता है – वह आधे स्त्री, आधे पुरुष हैं। मेरे ख्याल से हमें इस दिन को ‘महिला दिवस’ की बजाय ‘स्त्री-गुण दिवस’ या ‘स्त्री-शक्ति दिवस’ का नाम देना चाहिए क्योंकि दुनिया में स्त्रैण यानी स्त्री-गुण का आगे आना और हिस्सेदारी लेना महत्वपूर्ण है।

कानूनों का सामाजिक स्तर पर लागू होना बाकी है

तो स्त्री-शक्ति के इस दिन का मैं नाम बदलने की आज़ादी ले रहा हूँ, इसे एक महिला-दिवस के बदले, आइए इसे इसे स्त्री-शक्ति दिवस के रूप में मनाएँ। इस संस्कृति में हजारों सालों से स्त्री-शक्ति की पूजा होती रही है। यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी संस्कृतियों में वे आध्यात्मिक गुण लाएं जहां हर इंसान – उसका जीवन और जीवन का उसका अनुभव भौतिक शरीर तक सीमित न रहे। वह भौतिकता (शरीर) से आगे बढ़कर जीवन का अनुभव करे क्योंकि लिंग की प्रकृति भौतिक होती है। अगर आपका अनुभव भौतिक प्रकृति से परे है, तो लिंग आपके जीवन में एक छोटा सा मुद्दा होगा।

कई मामलों में स्त्री का शोषण कानून के ज़रिए रोकना होगा। मेरे ख्याल से क़ानून में तो हमने शोषण रोक दिया है मगर सामाजिक स्तर पर ऐसा होना अभी बाकी है। इसके लिए सड़कों पर लड़ाई करने की जरूरत नहीं है, इसके लिए कानून को सही तरीके से लागू किया जाना चाहिए। लेकिन यदि सही तरीके से कानून को लागू करना है, तो उसके लिए एक मददगार सामाजिक माहौल होना चाहिए। वह मददगार सामाजिक माहौल तब तक नहीं बन पाएगा जब तक कि शिक्षा का और आर्थिक (इकॉनोमिक) संभावनाओँ का बड़े स्तर पर फैलाव नहीं होगा। अगर ये दोनों चीजें हो जाएं, तो मुझे नहीं लगता कि स्त्रियों को अपनी आजादी के लिए लड़ना पड़ेगा। वे वैसे ही आजाद होंगी।