स्रोत जीवन का
इस स्पॉट में सद्गुरु एक कविता के द्वारा हमें बता रहे हैं कि जीवन का स्रोत हमारे अंदर ही है, और कैसे विचार, भावनाओं और सुख-सुविधाओं के जाल उसे ढंक देते हैं।
इस स्पॉट में सद्गुरु एक कविता के द्वारा हमें बता रहे हैं कि जीवन का स्रोत हमारे अंदर ही है, और कैसे विचार, भावनाओं और सुख-सुविधाओं के जाल उसे ढंक देते हैं।
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जैसे चमेली के भीतर की सुरभि
करती है प्रतीक्षा खिलने की -
जैसे जीवंत तितली करती है प्रतीक्षा
निर्जीव से कोष में –
जैसे सूर्य की भव्य-दीप्ति करती है प्रतीक्षा
काली-अंधियारी रात्रि के पीछे
वैसे ही
अज्ञान के परदे के पीछे बैठा दिव्य –
करता है प्रतीक्षा – परदे के उठ जाने की
अज्ञान - जो है परिणाम -
असुरक्षा-भावना से ग्रस्त जीव की भ्रामक सीमाओं का।
दिव्य की दीप्ति छिपी-ढकी है
मानसिक द्वेष की धुंध से।
अंतहीन से लगने वाले विचार-भावनाएं
बुनते हैं माया के जाल. सुख-सुविधा की दौड़ में -
खुद को दूर करते जाते - परम से ही।
इस अंतर्सत्ता के खिलने में ही है निहित
स्रोत जीवन का।