हर रिश्ते में हम यही चाहते हैं कि दूसरा हमें समझे, और वैसा ही बरताव करे जैसा हम चाहते हैं। जब ऐसा नहीं हो पाता तो रिश्ते में कड़वाहट और फिर दरार आनी शुरु हो जाती है। अगर हम उस दरार को बढ़ने से रोक नही पाए तो रिश्ते टूट भी जाते हैं। क्या करना चाहिए ऐसे में, जानते हैं सद्‌गुरु से...

आप इस दुनिया में ज़िंदगी जी रहे हैं तो जाहिर है कई तरह के पेचीदा रिश्ते बनते ही रहेंगे। आपको लोगों की सीमाओं और क्षमताओं को समझना होगा, और फिर सोचिए कि आप क्या कर सकते हैं; जो आप कर सकते हैं वो करिए। तभी आपको हालात को अपने मुताबिक बदलने की शक्ति मिल पाएगी। अगर आप इस बात का इंतज़ार करेंगे कि लोग आपको जान-समझ कर आपके मुताबिक काम करेंगे तो यह बस खयाली पुलाव है; ऐसा कभी नहीं होने वाला।

रिश्ते जितने करीबी होंगे उनको समझने के लिए आपको उतनी ही ज़्यादा कोशिश करनी होगी। एक आदमी के साथ ऐसा हुआ कि वह कई महीनों के लिए ‘कोमा’ में जाता और फिर होश में आ जाता। ऐसा काफी दिनों से चलता आ रहा था। उसकी पत्नी दिन-रात उसके सिरहाने बैठी रहती। एक बार जब उसको होश आया तो होशो-हवास के कुछ ही पलों में उसने अपनी पत्नी को और पास आने का इशारा किया। जब वह उसके करीब बैठ गयी तो उसने कहना शुरु किया, “मैं सोचता रहा हूं.........तुम मेरी ज़िंदगी के हर बुरे दौर में मेरे साथ रही हो। जब मेरी नौकरी छूट गयी तो तुम मेरे साथ थी। जब मेरा कारोबार ठप्प हो गया तो तुम दिन-रात काम करके घर चलाती रही। जब मुझे गोली मारी गयी तब भी तुम मेरे पास थी। जब उस कानूनी लड़ाई में हमने अपना घर खो दिया तब भी तुम मेरे बिल्कुल पास थी। अब मेरी सेहत कमज़ोर हो चली है तब भी तुम मेरे बगल में हो। जब मैं इन सब बातों पर गौर करता हूं तो मुझे लगता है कि तुम मेरे लिए हमेशा दुर्भाग्य ही लाती रही हो!”

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ऐसा नहीं है कि दूसरे इंसान में समझदारी नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। अपनी समझदारी से आप ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं कि दूसरा इंसान आपको बेहतर ढंग से समझ सके। दूसरे इंसान की सीमाओं को समझे बिना, उसकी जरूरतों को जाने बिना, उसकी काबिलियत और संभावनाओं को आंके बिना अगर आप यह उम्मीद करते हैं कि वह हरदम आपको जान-समझ कर आपके अनुसार चलता रहे, तो फिर लड़ाई के अलावा और क्या होगा! यह तो होना ही है। ऐसा इसलिए होता है कि आपकी और उनकी सोच की सीमा-रेखा बिलकुल अलग-अलग है। अगर आप इस एल.ओ.सी. को पार कर जाएंगे तो फिर उनको गुस्सा आना लाजिमी है। और अगर वे पार करें तो आपका नाराज़ होना लाजिमी है।

दूसरे इंसान की सीमाओं को समझे बिना, उसकी जरूरतों को जाने बिना, उसकी काबिलियत और संभावनाओं को आंके बिना अगर आप यह उम्मीद करते हैं कि वह हरदम आपको जान-समझ कर आपके अनुसार चलता रहे, तो फिर लड़ाई के अलावा और क्या होगा!

अगर आप अपनी समझ की सीमा को इतना बढ़ा लें की उनकी समझ भी उसमें समा जाए तो आप उनकी सीमाओं और क्षमताओं को अपना सकेंगे। हर इंसान में कुछ चीज़ें सकारात्मक होती हैं और कुछ नकारात्मक। अगर आप इन सब चीज़ों को अपनी समझ में शामिल कर लेंगे तो आप रिश्ते को अपने मुताबिक ढाल सकेंगे। अगर आप इसको उनकी समझ पर छोड़ देंगे तो यह महज संयोग होगा कि कुछ अच्छा हो जाए। अगर वे उदारमना हैं तो आपके लिए सब-कुछ बहुत अच्छा होगा और नहीं तो रिश्ता टूट जाएगा।

मैं आपसे बस यह पूछ रहा हूं: क्या आप चाहते हैं कि आप खुद इस बात को तय कर सकें कि आपकी ज़िंदगी के साथ क्या हो? रिश्ते चाहे निजी हों या व्यावसायिक, राजनीतिक, या किसी और तरह के हों, क्या आप नहीं चाहते कि ये आप तय करें कि आपकी ज़िंदगी में क्या होना चाहिए? अगर आप ऐसा चाहते हैं तो ये ज़रूरी है कि आप हर चीज़ और हर इंसान को अपनी समझ में शामिल कर लें। आपको अपनी समझ का दायरा इतना ज़्यादा बढ़ाना होगा कि आप लोगों के पागलपन तक को समझ सकें। आपके इर्द-गिर्द बड़े अच्छे लोग हैं जो कभी-कभार कुछ पलों के लिए पगला जाते हैं। अगर आप यह बात नहीं समझेंगे, उनके पागलपन को नहीं समझेंगे तो उनको निश्चित रूप से खो देंगे। अगर समझते हैं तो फिर यह भी आप जान जाते हैं कि उनसे कैसे पेश आया जाए।

ज़िंदगी हमेशा सीधी लकीर की तरह नहीं होती। इसे चलाने के लिए आपको बहुत-कुछ करना होता है। अगर आप अपनी समझ को किनारे कर देंगे तो आपकी काबिलियत घट जाएगी। सवाल चाहे निजी रिश्तों का हो या फिर व्यावसायिक प्रबंधन का दोनों के लिए आपको एक विशेष समझ चाहिए; वरना आपके रिश्ते कामयाब नहीं हो पायेंगे।