अगर आप वाकई में इच्छुक हैं तो इसका मतलब हुआ कि आपकी अपनी कोई इच्छा नहीं है। लंबे समय से मानव जाति को इस विचार से धोखा दिया जाता रहा है कि चाहने मात्र से इंसान सबकुछ पा सकता है। मानव इच्छा की प्रकृति समावेशी नहीं होती। इससे भी परे कोई चीज होती है, जिसे चेतना कहा जाता है, जो सबको शामिल करके चलती है। सबको साथ लेकर चलने का मतलब है कि बिना खास कोशिश के जीवन को शानदार तरीके से जीना। तमाम मुश्किलों के साथ आगे बढऩे के लिए खुद जोर लगाने से कहीं ज्यादा आसान और महत्वपूर्ण है कि अपने से बड़ी शक्ति को अपने जीवन में काम करने की इजाजत दे दी जाए।

ड्रैगनफ्लाई - अफ्रीका तक की यात्रा करता है

क्या आपने कभी ड्रैगनफ्लाई कीड़ा देखा है? यह एक तरह का पतंगा है, जिसका आकार आमतौर पर आधे इंच से एक इंच तक होता है, सबसे बड़ा पतंगा लगभग दो इंच तक का हो सकता है। ये छोटा सा कीड़ा हर साल दक्षिण भारत से उडक़र अफ्रीका तक जाता है, वहां प्रजनन कर तीन महीने बाद फिर भारत वापस आता है। कोई भी इंसान अपनी कल्पना में भी नहीं सोच सकता कि यह नन्हा सा प्राणी महाद्वीपों की यात्रा कर सकता है। इनकी पूरी यात्रा तकरीबन साढ़े छह हजार मील की होती है। उनके परों में इतनी ऊर्जा कैसे संभव है कि वे रास्ते के महासागरों को लांघ सके? दरअसल वे इस सफर को अपने परों के बलबूते पूरा नहीं करते। वे इतने चतुर व कुशल होते हैं कि हवा पर सवार होकर यह दूरी तय करते हैं। इंसान द्वारा समुद्री यात्रा शुरु करने से बहुत पहले वे भलीभांति यह जान चुके थे कि कब हवा का रुख किस तरफ होगा। दरअसल भारत में शुरुआती समुद्री यात्राएं इन ड्रैगनफ्लाइज के निरीक्षण के ही आधार पर होती थीं।

पानी के जहाज हवाओं के सहारे चलते थे

कहा जाता है कि अपने यहां पहला पानी का जहाज लगभग ग्यारह हजार साल पहले बना था। यह ओडि़शा से चलकर श्रीलंका पहुंचा था, जहां उन लोगों ने हवा के उचित रुख का इंतजार किया और उसके बाद वे वहां से कंबोडिया, वियतनाम व बर्मा गए। फिर लगभग छह हजार सात सौ साल पहले भारतीयों ने अफ्रीका की पहली यात्रा की। इस यात्रा के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही जाती है कि उन्होंने यह यात्रा ड्रैगनफ्लाइज को देखकर की। ये नावें पावर बोट नहीं थीं, उन्हें पाल के सहारे चलाकर ले जाना होता था। वे हवा के रुख से चलती थीं, इसलिए उस समय जलयात्रा इतनी आसान नहीं होती थी। फिर भी उन्होंने अफ्रीका की यात्रा की। खैर, आज तो हमारे पास डीजल से चलने वाले व यहां तक कि न्यूक्लियर पावर से चलने वाले जहाज भी हैं। बेशक ये जहाज उनसे कहीं ज्यादा कुशल व क्षमतावान हैं, लेकिन इसने दुनिया की हर चीज को बर्बाद करके हमारी यात्रा के लिए हमें सशक्त किया है। अगर हमने पानी में दस हजार जहाज भी ऐसे चलाए होते, जो एक दूसरे के पीछे हवा के रुख से चलते तो भी उन्होंने ज्यादा नुकसान नहीं किया होता, लेकिन जैसे ही हम किसी शक्ति द्वारा खुद को सशक्त करते हैं, तो हम अपने पीछे जो बर्बादी छोड़ते हैं, वह जबरदस्त और भयानक होती है। हमें लगता है कि हम जीत रहे हैं, लेकिन वास्तव में हम हार रहे हैं।

हवा पर सवारी करने के बजाय अगर आप अपनी ताकत बढ़ाने में लगे रहेंगे तो आप कुछ दूरी तय कर लेंगे, लेकिन इसके चलते जो नुकसान होगा, इस मेहनत की जो कीमत चुकानी पड़ती है, वह बहुत ज्यादा होती है और उसकी तुलना में हम जो दूरी तय करेंगे, वह कोई खास महत्वपूर्ण नहीं होगी।

हमने प्राकृतिक शक्तियों की सवारी करनी नहीं सीखी। इसके बजाय हमने सोचा कि हम अपने बल से अपना रास्ता बनाएंगे। यह बात आध्यात्मिकता के रास्ते पर चलने वाले जिज्ञासु पर भी लागू होती है। हवा पर सवारी करने के बजाय अगर आप अपनी ताकत बढ़ाने में लगे रहेंगे तो आप कुछ दूरी तय कर लेंगे, लेकिन इसके चलते जो नुकसान होगा, इस मेहनत की जो कीमत चुकानी पड़ती है, वह बहुत ज्यादा होती है और उसकी तुलना में हम जो दूरी तय करेंगे, वह कोई खास महत्वपूर्ण नहीं होगी। कम से कम इस मामले में ड्रैगनफ्लाई की समझदारी देखने की कोशिश कीजिए।

कांच की दूसरी तरफ का सिर्फ आभास मिलता है

जब मैं छोटा था, तो मैं ढेर सारे ड्रैगनफ्लाईज पकड़ता था। हम उनकी पूंछ में छोटे-छोटे धागे बांध दिया करते थे, तब हमारे पालतू ड्रैगनफ्लाईज हुआ करते थे। दरअसल, हम यह तय करते थे कि कौन सा पतंगा किस बच्चे का है, क्योंकि ये पतंगे अलग-अलग रंगों के हुआ करते थे। ये हर ओर उड़ते रहते थे। जब ये बंद कमरों में घुस जाते तो वे कांच तक जाते और बाहर निकलने की कोशिश करते। कुछ देर बाद वे मर जाते थे, क्योंकि वे लगातार उस कांच से बाहर जाने की कोशिश करते थे। उनको इस बात का अहसास नहीं होता था कि वे कांच के पार नहीं जा सकते, भले ही वे कांच के दूसरी तरफ देख सकते हों। तो जीवन भी ऐसा ही है।

यहाँ सब कुछ खाली है

बचपन में मैंने एक मरे हुए ड्रैगनफ्लाई की चीरफाड़ की थी, लेकिन मुझे उसमें कुछ नहीं मिला। क्या आपने कभी मरा हुआ पतंगा देखा है? यह मरने के बाद देखते ही देखते सूख जाता है। आप इसे खोलकर देखिए, उसमें आपको न तो मांस मिलेगा, न ही खून और न ही दिमाग। मुझे नहीं पता कि जब यह जीवित होता है तो इसके भीतर क्या भरा होता है, लेकिन मरने के कुछ घंटों के भीतर ही उसमें कुछ नहीं मिलता। खैर, इस अस्तित्व की प्रकृति भी यही है। आपके शरीर को और इस धरती सहित हर चीज को बनाने वाले परमाणुओं का लगभग पंचानबे प्रतिशत हिस्सा खाली है। इस ब्रह्मांड का लगभग निन्यानबे फीसदी हिस्सा खाली है, फिर भी आप खुद से इतने भरे हुए हैं।

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