मॉनसून का मौसम आकाश और धरती के बीच संवाद की तरह होता है। यह समय सभी प्राणियों, खासकर इंसानों के लिए, प्रकृति की ओर ध्यान देने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि अगर यह संवाद न हो, तो धरती पर जीवन ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता। 

अगर मनुष्यों ने इमारतें बनाना नहीं सीखा होता, तो हम मॉनसून का असली अनुभव ले सकते थे। अगर आपको कहीं बाहर खुले में बैठना पड़ता, तो मानसून का आपका अनुभव ही अलग होता। छत के नीचे रहने से हम पृथ्वी पर घटने वाली इस अद्भुत घटना का अनुभव नहीं ले पाते।

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बारिश एक ऐसा मौका है, जब धरती बाकी सृष्टि के साथ जुड़ती है। वैसे तो यह संपर्क हमेशा बना रहता है, लेकिन जब बारिश होती है, तो पृथ्वी की ग्रहण करने की ताकत बढ़ जाती है।
जल का आकाश तक जाना और फिर बूंदों के रूप में नीचे आना, बारिश का सिर्फ एक पहलू है। इसके अलावा, बारिश एक ऐसा मौका है, जब धरती बाकी सृष्टि के साथ जुड़ती है। वैसे तो यह संपर्क हमेशा बना रहता है, लेकिन जब बारिश होती है, तो पृथ्वी की ग्रहण करने की ताकत बढ़ जाती है। इस बदलाव का इंसान ने हमेशा से लाभ उठाया है। जो लोग बिना छत के खुले में रहते हैं, और अपना भोजन खुद तैयार करते हैं, उनके आंख, कान व नाक सब सिर्फ बारिश की तरफ ही लगे रहते हैं। लोग जब घर से बाहर या खुले में होते हैं, तो उनका सारा ध्यान इसी पर होता है, कि कहीं तूफान या आंधी तो नहीं आ रही। क्योंकि यह सवाल खुले में रहने वाले इंसान के हर काम की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। अगर आप हवाई यात्रा भी करना चाहते हैं, तो यह एक बड़ा मुद्दा बनता है। आज भले ही हमारे जेट विमान तूफानी ताकत से उड़ते हों, फिर भी शायद ही कोई पाइलट तूफान की अनदेखी करेगा।

इसलिए अगर आप खुले में कुछ भी करना चाहते हैं, तो हमेशा आप प्रकृति के इस पहलू के साथ जुड़े रहेंगे। यह सिर्फ बारिश के पानी से गीले होने की बात नहीं है। बल्कि मॉनसून में धरती बाकी सृष्टि के साथ बहुत करीबी तरीके से जुड़ जाती है। सृष्टि में होने वाले कम्पन किसी खास मौसम में नहीं होते, कम्पन तो हमेशा होते हैं। लेकिन मॉनसून में पृथ्वी की ग्रहण करने की ताकत, किसी और मौसम से कहीं ज्यादा होती है। इसे महसूस करने के लिए आपको खुले में रहना होगा। अगर आप बाहर हैं और पहली बारिश आती है, तो आप देख सकते हैं, कि सारी धरती इस बारिश के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दे रही है। बारिश के अगले दिन सुबह आप खेतों या जंगल की तरफ निकल जाइए, और देखिए कि प्रकृति में कितनी नई चीजें होनी शुरू हो गई हैं। ऐसी तमाम चीजें जिन्हें आप मरा हुआ या सूखा मान बैठे थे, अगले दिन वो फिर से जीवित हो उठती हैं।

सृष्टि की कृपा, चाहे वह कृपा किसी भी रूप में हो, किसी ख़ास मौसम में नहीं होती। कृपा तो हमेशा ही है। जो व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ने की चाह रखता है, वह यह पक्का करे कि वह कृपा को ग्रहण करने को भी हमेशा तैयार रहेगा। तभी वह तेजी से आगे बढ़ेगा। नहीं तो वह किसी ख़ास हाल में ही आगे बढ़ेगा और विकसित होगा। ऐसे में उसे हालात के फिर से सहायक होने का इंतज़ार करना होगा। हो सकता है कि तब तक वह वापस उसी जगह पर पहुंच जाए - जहां से उसने आगे बढ़ना शुरू किया था। हम हमेशा अच्छे हालातों की अपेक्षा नहीं कर सकते, लेकिन हम अपनेआप को हमेशा ग्रहण करने के लिए तैयार कर सकते हैं। सोते हुए और जागते हुए इंसान हमेशा ग्रहण करने को तैयार रह सकता है।

दक्षिण की तरफ जाने की इच्छा, और फिर वापस हिमालय लौटने की यह परंपरा हजारों साल पुरानी है। 
भारत में कई योगी और साधक गर्मियों में हिमालय में रहते हैं, और सर्दियां आने पर दक्षिण की तरफ आना शुरू कर देते हैं। वे हिमालय से निकल कर दक्षिण की ओर चलना शुरू करते हैं, और कई तो दक्षिण के छोर माने जाने वाले रामेश्वरम तक पहुंच जाते हैं। और मौसम बदलते ही ये फिर से हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हुए हिमालय पर लौट आते हैं। यह यात्रा एक नियम है। आज भले ही ऐसे लोग कम हो गए हों, लेकिन यह यात्रा अब भी जारी है। एक समय था, जब सैकड़ों व हजारों की संख्या में योगी और साधक निकलते थे। उस समय जब वे बड़ी संख्या में निकलते थे, तो जून जुलाई का महीना बारिश की वजह से उनके लिए बहुत मुश्किल होता था।

मौसम जब भयंकर रूप ले लेता था, तो पैदल यात्रा एक बड़ी मुसीबत बन जाती थी। तब यह तय किया गया, कि इस महीने के दौरान कोई कहीं भी शरण ले सकता है। इसके काफी बाद, गौतम बु़द्ध ने भी अपने भिक्षुओं के लिए इस महीने के आराम का नियम बनाया। इसके पीछे कारण था अपने भिक्षुओं को मौसम की मुश्किलों से राहत दिलाना।

आज भी यह पंरपरा जारी है, कि योगी और साधु हिमालय की गुफाओं से निकल कर नीचे दक्षिण की तरफ चले आते हैं। दक्षिण की तरफ जाने की इच्छा, और फिर वापस हिमालय लौटने की यह परंपरा हजारों साल पुरानी है। कहा जाता है, कि इस परंपरा की शुरुआत तभी से हुई, जब शिव ने योगिक विज्ञान को अपने सात शिष्यों को दिया। उनके सात शिष्यों को आज हम सप्तऋषियों के नाम से जानते हैं। उनमें से एक दक्षिण की ओर गया था। वह अगस्त्य मुनि थे।

कुछ उल्का तारों और धूमकेतुओं की गति से यह पता चलता है, कि शिव को पंद्रह से चालीस हज़ार साल के बीच कभी आत्म-बोध हुआ। लेकिन यह सिर्फ एक अनुमान है। हम यह नहीं जानते की यह ठीक-ठीक कितने साल पहले हुआ।

Rajarishi Mitra from Flickr