नर नारायण यानी कृष्ण और अर्जुन के बीच इन्द्रप्रस्थ में एक गहरा सम्बन्ध बन गया। वे काफी समय साथ बिताने लगे और फिर एक दिन नारद के कहने पर पांडवों ने राजसूय यज्ञ की तैयारी शुरू की। पढ़ते हैं ये कहानी।

नर और नारायण की लीला

कई जन्मों से कृष्ण और अर्जुन नर और नारायण के रूप में साथ रहे। इस जन्म में, इंद्रप्रस्थ आने के बाद, उन्होंने एक साथ बहुत सारा समय बिताया, वे एक साथ घुड़सवारी करते, नदियों के किनारे बैठ कर चर्चा किया करते। अर्जुन को कृष्ण से बहुत कुछ सीखना था। उन्हीं दिनों एक बार फिर अर्जुन और कृष्ण के बीच एक सुंदर नाता पनपा। एक दिन वे, खांडवप्रस्थ के एक घने जंगल में, यमुना नदी के किनारे, खूबसूरत से पेड़ की छाया में बैठे थे, कृष्ण ने कहा, ‘अब समय आ गया है कि हम नगर का विस्तार करें और दूसरे भवन तैयार करवाएँ। हमें इस वन को जलाना होगा।’ अर्जुन ने कहा, ‘यह कितना सुंदर और जीवंत जंगल है। हम इसे आग कैसे लगा सकते हैं?’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘तुम्हें राजा के तौर पर चुना गया है इसलिए तुम्हें सभ्यता के लिए स्थान बनाना ही होगा। यदि तुम इस उत्तरदायित्व(जिम्मेदारी) को पूरा नहीं करते तो राजा के रूप में तुम्हें यश नहीं मिल सकेगा।’

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उन दिनों जानवरों को मरना पड़ता था

जब अर्जुन और कृष्ण जंगल में आग लगाने वाले थे तो कृष्ण ने कहा ‘ध्यान रहे कि इस जंगल से कोई भी जानवर जीवित बच कर नहीं जाना चाहिए। अर्जुन ने पूछा, ‘हमें उन्हें मारना क्यों होगा?’ कृष्ण ने कहा, ‘अगर तुम शांति से शासन करना चाहते हो तो अपने शत्रुओं को बच कर जाने का मौका मत दो। अगर आज उन्हें जाने दोगे तो कल वे वापस आ कर वार करेंगे।’ कृष्ण ने जिस तरह निर्दयता से यह काम करने को कहा, उसे उस समय के संदर्भ में समझना होगा। यह आज से पाँच हजार साल पहले की बात है, जब सारी धरती, हिमालय की तलहटी से ले कर कन्याकुमारी तक, घने वनों से ढकी थी और उसमें जंगली जानवरों का बसेरा था। इंसान के रहने के लिए ज़मीन तैयार करने के लिए जंगलों में आग लगाना और जंगली जानवरों की हत्या करना जरूरी था।

एक समय था, जब तमिल नाडू में उस व्यक्ति को सबसे ऊँची पदवी दी जाती थी जिसने एक हजार हाथियों का वध किया हो। उस समय उस इलाके में हाथियों की भरमार थी और उनकी वजह से बहुत से लोग मारे जाते थे इसलिए हाथियों का वध करने वाला महावीर कहलाता था। आज हाथियों की संख्या में जबरदस्त कमी हो चुकी है। अगर आप एक हाथी को मार देंगे तो आपको जेल जाना होगा। उस समय पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न नहीं था, हालात पूरी तरह से अलग थे। इंसानों के रहने लायक ज़मीन तैयार करने के सिलसिले में कृष्ण और अर्जुन ने मिल कर उस जगह के लगभग सारे जंगली जानवरों की हत्या कर दी। केवल एक सर्प बच गया, जिसने बाद में आ कर उनके लिए परेशानी पैदा की। उसके साथ ही असुर राजा मायासुर भी बच गया था। मायासुर ने कृष्ण और अर्जुन के आगे विनती करते हुए कहा, ‘मैं एक महान शिल्पी और वास्तुकार हूँ। मैं आपके लिए एक आलीशान सभागार बना सकता हूँ। वह एक ऐसा स्थान होगा जिसे कभी किसी ने धरती के इस हिस्से में देखा तक नहीं होगा। आप मेरे प्राण न लें।’ अर्जुन ने कृष्ण की ओर देखा और वे बोले, ‘इसके प्राण मत लो। यह तुम्हारे काम आएगा।’

मायासुर ने किया माया सभा का निर्माण

मायासुर ने माया-सभा का निर्माण किया, ऐसा सभा-कक्ष पहले किसी ने नहीं देखा था, वो हर तरह से अनूठा था। उसने स्फटिक(क्रिस्टल शीट) से इतने पारदर्शी आवरण बनाए जो लगे हुए दिखाई नहीं देते थे। लोग उनके आर-पर देख सकते थे। उन दिनों, कांच के बारे में कोई नहीं जानता था। जब मेहमान आते तो उन्हें स्फटिक(क्रिस्टल शीट) के बने पर्दे दिखते नहीं थे, और वे टकरा जाते थे, क्योंकि दूसरी ओर का दृश्य स्पष्ट दिखता था। उन्हें लगता था कि प्रवेश द्वार पूरी तरह से खुला है। बाद में एक दिन दुर्योधन उस जगह से निकला, और उनसे टकरा गया। वह बहुत ही घमंडी था। अगर गलती से उसका सिर, आपकी बनाई किसी चीज से टकरा गया तो मानो आपकी शामत ही आ गई।

इंद्रप्रस्थ बहुत ही सुंदर और संपन्न नगरी थी इसलिए बहुत से लोग रहने के लिए वहीं आने लगे। हस्तिनापुर की आधी से ज्यादा आबादी इंद्रप्रस्थ आ गई जिसमें नगर के सबसे प्रतिभाशाली लोग भी शामिल थे। और इस तरह जब दुर्योधन ने अपनी प्रजा को पांडवों के पास जाते देखा तो उसके मन में पांडवों के लिए नफरत बढ़ने लगी। उसके भाई भी जा कर इंद्रप्रस्थ की शोभा देखना चाहते थे, यह देख कर उसका गुस्सा भड़क उठा। शुन्द, अशुन्द और तिलोत्तमा की कहानी इसके बाद एक अटल घटना घटी - नारद पांडवों के पास आए। जब नारद आते हैं तो किसी न किसी रूप में मुसीबत साथ आ जाती है। पांडवों ने उन्हें झुक कर प्रणाम किया। नारद बोले, ‘अब तुम सब संपन्न हो गए हो।’ इसके बाद उन्होंने पांडवों को दो राक्षस भाईयों शुन्द और अशुन्द की कथा सुनाई।

दोनों भाईयों ने अपने लिए एक विशाल राज्य बनाया और उस पर शासन करने लगे। उन्हें आपस में बहुत प्यार था। उनकी ताकत दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। जो लोग उनकी सफलता से जलते थे, उन्होंने उनके पास एक गंधर्वी को भेजा जिसका नाम तिलोत्तमा था। वह एक सुंदरी थी और उसने दोनों भाईयों को अपने रूप के जाल में उलझा लिया। जब बात बिगड़ी तो उसने कहा, ‘तुम दोनों में से जो बलशाली होगा, मैं उससे विवाह करूँगी।’ दोनों भाईयों में लड़ाई होने लगी। दोनों ही एक जितने बलशाली थे, इसलिए लड़ाई में दोनों की मौत हो गई। यह कहानी सुनाने के बाद नारद ने पांडवों से कहा, ‘तिलोत्तमा पांचाली की तरह ही सुंदर थी। तुम दो नहीं, पाँच भाई हो। जब तुम कठिनाई में थे तो सब साथ थे, और आपस में लड़ाई नहीं हुई। लेकिन जब तुम्हारा वैभव और संपन्नता बढ़ेगी, तुम इस स्त्री के पीछे आपस में लड़ोगे। इससे बचने का एक ही उपाय है, जो कृष्ण ने तुम्हारे विवाह के समय बनाया था।’ नियम यह था कि द्रौपदी पूरे एक साल तक एक भाई के साथ रहेगी और इस दौरान चार भाई उसके पास नहीं जा सकेंगे। अगर किसी ने ऐसा किया तो उसे देश निकाला दे दिया जाएगा। जब वे हस्तिनापुर में थे और कई तरह की साजिशों में घिरे थे तो उन्होंने इस नियम का पालन नहीं किया। अब उनके पास अपना राज्य था। हालात पहले से बहुत बेहतर थे। नारद ने कृष्ण के सामने ही उन्हें फटकारा और इस नियम का पालन करने को कहा। केवल भीम ने ही शिकायत की, बाकी किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। इंद्रप्रस्थ नगरी दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी कर रही थी। वो एक खूबसूरत शहर था और कार्यकलापों और प्रतिभा से भरा था। मायासुर के बनाए सभागार की हर ओर चर्चा थी। दूर-दूर से लोग इस स्थान को देखने आ रहे थे। तब नारद ने पांडवों से कहा, ‘अब तुम्हारे पास अपना राज्य है और कृष्ण भी यहीं हैं। वे धर्म की स्थापना करना चाहते हैं। अब समय आ गया है कि तुम लोग राजसूय यज्ञ का आयोजन करो।’

राजसूय यज्ञ का महत्व

एक राजसूय यज्ञ किसी राजा को सम्राट बना देता है। इस यज्ञ के ज़रिए सारे राजाओं को एक तरह से संदेश भेजा जाता था कि यह राजा, राजाओं का भी राजा बनने के योग्य और उपयुक्त है। जो उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करता, उसे राजा से युद्ध करना पड़ता। युधिष्ठिर ने कहा, ‘इसकी ज़रूरत क्या है? हम इंद्रप्रस्थ में ख़ुश हैं। हमें दूसरे राज्यों पर हमला करने की क्या जरूरत है? हमें दूसरे लोगों को मजबूर करने या मनाने की क्या जरूरत है कि वे हमारी अधीनता स्वीकार करें? मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं है।’ नारद ने कहा, ‘यह केवल तुम्हारा प्रश्न नहीं है। तुम्हारे पिता अभी तक स्वर्ग में नहीं गए। वे अब भी यमलोक में हैं। तुम उनकी संतान हो। जब तक तुम राजसूय यज्ञ का आयोजन नहीं करते, तब तक वे देवलोक नहीं जा सकते।’ इस तर्क को सुन कर युधिष्ठिर ने हामी भर दी कि वह यज्ञ का आयोजन करेंगे।

सदियों में कोई राजा इतनी शक्ति और प्रभुत्व हासिल कर पाता था कि वह राजसूय यज्ञ करने का दावा कर सके। यह किसी क्षत्रिय के लिए सबसे बड़ी बात मानी जाती थी। उन्होंने सब ओर निमंत्रण भेज दिए। जिन लोगों ने इंकार किया, उनसे लड़ने के लिए सेना भेजी गई। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - चारों भाई चारों दिशाओं में गए और एक के बाद एक युद्ध करते हुए, विजयी हो कर, ढेर सारी धन-दौलत ले कर वापस लौटे। वे अपने साथ दूसरे राजाओं की ओर से अधीनता स्वीकार करने या भेंट के रूप में उपहार स्वरूप हाथियों पर लाद कर सोना, हीरे और जवाहरात ले कर आए। उन्होंने कौरवों को छोड़ दिया क्योंकि वे उनके भाई थे, कौरवों को परिवार के सदस्यों के तौर पर यज्ञ में बुलाया गया इसलिए वे इंकार नहीं कर सके।

दुर्योधन की बुरी दशा

दुर्योधन का कलेजा राख हुआ पड़ा था। उससे यह सब सहन नहीं हो रहा था। उसने उन्हें लाख(मोम) के महल में भेजा और उसे आग लगवा दी, लेकिन पांडव बच निकले। उसने उन्हें बंजर भूमि में भेजा और उन्होंने उसे ही स्वर्ग बना दिया और एक आलीशान नगरी का रूप दे दिया। अब वे राजसूय यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। एक पीढ़ी में, केवल एक राजा ही यह यज्ञ कर सकता था। इसका मतलब था कि दुर्योधन को अपने जीवन में ऐसा करने का अवसर नहीं मिल सकता था, जब तक युधिष्ठिर की मृत्यु न हो जाती। फिर एकदम से, दुर्योधन के मन में केवल यही इच्छा रह गई।