महाभारत काल : तब कितना अलग था समाज
कृष्ण के जीवन की या कहें महाभारत काल की घटनाओं को ठीक से समझने के लिए जरुरी है कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था को भी जानें। इसी सिलसिले में लीला के इस अंश में जानते हैं कैसा था उन दिनों का समाज ?
कृष्ण के जीवन की या कहें महाभारत काल की घटनाओं को ठीक से समझने के लिए जरुरी है कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था को भी जानें। इसी सिलसिले में लीला के इस अंश में जानते हैं कैसा था उन दिनों का समाज ?
कृष्ण अपने वक्त के सबसे चमकते सितारे थे, लेकिन उनकी चमक का महत्व आप तभी समझ सकते हैं, जब आप उस माहौल और परिवेश को समझ लें, जिसमें वो घटनाएं घटीं। महाभारत ऐसी ही एक लंबी कहानी है जिसके भीतर और न जाने कितने किस्से कहानियां हैं। अगर उन सभी कहानियों का वर्णन करने लगें तो इस काम में बरसों लग जाएंगे। इसलिए मैं उन कुछेक खास पहलुओं के बारे में ही बताऊंगा जिनकी वजह से कृष्ण की महिमा इतना ज्यादा बढ़ी और वे अपने समय के कुशल राजनीतिज्ञ तथा राजाओं के राजा बनकर उभरे।
Subscribe
महाभारत काल का समाज
महाभारत काल की सामाजिक परिस्थितियां वर्णाश्रम व्यवस्था के जरिए तय होती थी। इस व्यवस्था की वजह से चार वर्ण बने, जो बाद में भयानक जाति प्रथा में तब्दील हो गए जो आज भी जारी है। चार वर्ण इस तरह थे - शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण। शूद्र अनपढ़ थे और पढ़ाई लिखाई पर ध्यान नहीं देते थे, चाकरी और छोटे-मोटे काम करते थे और मूलरूप से अपने आसपास की किसी भी चीज के लिए उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती थी। वे बस खाते, सोते और बच्चे पैदा करते थे। वैश्य व्यापार करते थे और अपने समाज में कुछ खास जिम्मेदारी उठाते थे। वैश्य समाज में आज भी अपने परिवारों के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखा जाता है।
समाज के इन चारों वर्गों के लिए धर्म की स्थापना की गई। धर्म यह तय करता था कि कोई शूद्र कैसे रहेगा, वैश्य कैसे रहेगा, क्षत्रिय को कैसे रहना चाहिए और ब्राह्मण को कैसे रहना चाहिए। हर किसी की जिम्मेदारी और उसके काम की प्रकृति के अनुसार एक खास धर्म या कानून की स्थापना की गई जिसका लोगों को पालन करना होता था। कानून वास्तव में कानून नहीं था जिसे जबर्दस्ती लागू किया जाए, बल्कि इसकी बजाय यह नैतिक और सामाजिक नियम ज्यादा थे, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते गए। समाज के इन चारों वर्णों के लोगों को कैसे खाना है, कैसे विवाह करना है और कैसे बाकी काम करने हैं, सब कुछ तय था।
यहां हमारे लिए क्षत्रिय लोगों का धर्म प्रासंगिक है क्योंकि वे ही सरकार बनाते थे और सैन्य शक्तियां भी उनके हाथों में थीं। ब्राह्मणों का धर्म भी यहां प्रासंगिक है क्योंकि अध्यात्म तक उनकी पहुंच थी और वे इसके लिए एक साधन की तरह थे। अगर क्षत्रिय और ब्राह्मणों ने एक दूसरे के धर्मों का आदर न किया होता तो समाज सहजता से नहीं चल पाता। लेकिन कई बार ऐसी परिस्थिति भी आ जाती थी कि राजा सत्ता के नशे में चूर हो जाते थे और ब्राह्मणों का आदर नहीं करते थे। कई मामलों में ब्राह्मण भी भ्रष्ट हो जाते थे और इस तरह समाज में उस सम्मान को खो देते थे जो उन्हें कभी मिला करता था। कुल मिलाकर समाज में काफी अनबन थी।
महाभारत काल के संत - महर्षि पाराशर और महर्षि वेद व्यास
महाभारत काल में एक महान संत हुए, जिन्हें महर्षि पाराशर के नाम से जाना जाता था। वह ऐसे परम ज्ञानी और सिद्ध पुरुष थे, जिन्होंने समाज में धर्म की स्थापना के लिए जबर्दस्त प्रयास किया। ब्रह्मतेज की स्थापना के लिए उन्होंने पूर्ण समर्पित साधकों को लेकर देश भर में सैकड़ों आश्रमों की नींव रखी। संन्यासियों के धर्म ब्रह्मतेज और शासकों के धर्म क्षत्रतेज के बीच सामंजस्य लाने के लिए उन्होंने उस वक्त के राजाओं से भी संपर्क साधने की कोशिश की। चूंकि उन्होंने इस आंदोलन को शुरू किया था, इसलिए उन्हें भरपूर सम्मान मिला और लोगों ने उनकी बातों पर ध्यान दिया। साथ ही साथ उनके कुछ शत्रु भी बन गए, जो कि होना ही था। इतिहास गवाह है, जब भी कोई किसी आंदोलन की शुरुआत करता है, तो कुछ लोग एकत्र होकर उसके पीछे चलने लगते हैं और कुछ लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।
महाभारत काल में सैकड़ों राज्य और उनके राजा थे, जिनमें कुछ बड़े थे तो कुछ छोटे। कुछ सम्राट होने का दावा करते थे, तो कुछ तानाशाह और अत्याचारी थे। कुछ असभ्य लोगों का झुंड भी था, जिसे आमतौर पर राक्षस कहा जाता था। इनमें से कुछ तो नरभक्षी भी थे। आश्रमों के खिलाफ जबरदस्त हिंसा होती थी, क्योंकि वे असुरक्षित स्थानों पर बने थे। एक बार पाराशर के आश्रम पर हमला हुआ और उनकी टांग बुरी तरह घायल हो गई।
आगे जारी ...