लिंग- भौतिक से परे का एक द्वार
सद्गुरु एक लिंग के आकार और भारत में प्राचीन मंदिरों के निर्माण के पीछे के महत्व और विज्ञान को बताते हैं।

सदगुरु: लिंग शब्द का अर्थ है आकार या रूप। हम इसे आकार इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जब अव्यक्त ने स्वयं को व्यक्त करना शुरू किया, या दूसरे शब्दों में जब सृष्टि बननी शुरू हुई, तो उसने जो पहला आकार लिया वह एक दीर्घवृत्ताभ यानी इलिप्सॉयड का था। एक परिपूर्ण इलिप्सॉयड को हम लिंग कहते हैं। सृष्टि हमेशा एक इलिप्सॉयड या लिंग के रूप में शुरू हुई और फिर वह बहुत सी चीजें बनीं। और हम अपने अनुभव से जानते हैं कि अगर आप ध्यान की गहरी अवस्थाओं में जाते हैं, तो संपूर्ण विलय की स्थिति आने से पहले, ऊर्जा एक बार फिर एक इलिप्सॉयड या लिंग का रूप ले लेती है। तो, पहला रूप लिंग है और अंतिम रूप लिंग है। इसके बीच का स्थान सृष्टि है और जो परे है वह शिव है।
‘शिव’ का शाब्दिक अर्थ है ‘वह जो नहीं है।’ इसका मतलब ‘कुछ नहीं’ यानी नथिंग है। नथिंग एक बहुत नकारात्मक शब्द है। आप इसे तब बेहतर समझेंगे अगर आप बीच में एक हाइफन लगा देते हैं: ‘नो-थिंग।’ वह जो है, वह एक भौतिक अभिव्यक्ति है। ‘वह जो नहीं है’ वो है जो भौतिक से परे है। भारत में, हजारों मंदिर हैं जो ‘वह जो नहीं है’ के लिए बनाए गए हैं। ज्यादातर शिव मंदिरों में किसी प्रकार का कोई विशेष देवता नहीं है। उनमें बस एक प्रतीकात्मक रूप है और आम तौर पर वह लिंग है। एक लिंग का रूप सृष्टि के तानेबाने में एक छिद्र है। तो, मंदिर एक ऐसा छिद्र है जिससे होकर आप एक ऐसे स्थान में प्रवेश करते हैं जो ‘नहीं’ है। यह एक ऐसा छिद्र है जिसमें से आप परे गिर सकते हैं।
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आज, ज्यादातर मंदिर स्टील और कांक्रीट से शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तरह बनाए जाते हैं, और शायद उसी मकसद से बनाए जाते हैं क्योंकि हर चीज व्यापार बन गई है। जब मैं मंदिरों की बात करता हूँ, तो जिस तरह से प्राचीन मंदिर बनाए गए थे, उसकी बात करता हूँ। इस देश में, प्राचीन समय में, मंदिर सिर्फ शिव के लिए बनाए गए थे, किसी दूसरे के लिए नहीं। ऐसा सिर्फ बाद में हुआ कि दूसरे मंदिर बने क्योंकि लोग तात्कालिक खुशहाली पर ध्यान केंद्रित करने लगे।
एक लिंग का रूप सृष्टि के तानेबाने में एक छिद्र है। तो, मंदिर एक ऐसा छिद्र है जिससे होकर आप एक ऐसे स्थान में प्रवेश करते हैं जो ‘नहीं’ है।इंसानी बोध की प्रकृति ऐसी है कि जिस भी चीज के साथ इंसान फिलहाल शामिल है, उसके अनुभव में सिर्फ वही एकमात्र सच्चाई होगी। फिलहाल, ज्यादातर लोग पांच इंद्रियों के साथ शामिल हैं और वही एकमात्र सच्चाई जान पड़ती है, कोई दूसरी चीज नहीं। इंद्रियां सिर्फ उसका बोध कर सकती हैं जो भौतिक है, और चूंकि आपका बोध पांच इंद्रियों तक सीमित है, तो हर चीज जो आप जीवन के रूप में जानते हैं, वह सिर्फ भौतिकता हैः आपका शरीर, आपका मन, आपकी भावना, और आपकी जीवन ऊर्जाएं भौतिक हैं। मान लीजिए, आप इस भौतिक अस्तित्व को एक कपड़े के टुकड़े के रूप में देखते हैं, और आप इस कपड़े पर चल रहे हैं। जिस पर आप चल रहे हैं वह पूरा असली है। लेकिन जब आप ऊपर देखते हैं, तो ऊपर विशाल खालीपन लगता है, और वहां भी, आप सिर्फ भौतिक को पहचानते हैं; आप एक तारे या सूरज या चांद को देखते हैं - वो सब भी भौतिक हैं। जो भौतिक नहीं है, उसका बोध आपको नहीं है।
जिसे आप एक मंदिर कहते हैं वह कपड़े में एक छेद बनाने जैसा है, एक ऐसा स्पेस पैदा करना जहां भौतिक हल्का पड़ जाता है, और परे कोई चीज आपको दिखने लगती है। भौतिक को कम व्यक्त बनाने के विज्ञान को प्राण-प्रतिष्ठा कहते हैं, ताकि अगर आप इच्छुक हैं, तो भौतिक से परे का आयाम आपको दिखने लगे।