अध्यात्म जगत में गुरु अक्सर पुरुष ही नज़र आते हैं। क्या कोई स्त्री गुरु नहीं हो सकती? एक गुरु बनने के लिए व्यक्ति में कौन से गुण जरुरी हैं? आइये जानें

प्रश्नकर्ता: आपने कहा है कि अध्यात्म में, प्राय: पुरुषों से ज्यादा स्त्रियां होंगी। लेकिन महर्षि रमण और रामकृष्ण जैसे बहुत से गुरु रहे हैं। किसी ने भी स्त्री के गुरु होने की बात नहीं की। ऐसा क्यों है?

सद्‌गुरु सामान्यत: स्त्री प्रभावशाली गुरु नहीं बन सकती। उसका स्त्रीत्व उसे प्रभावशाली गुरु बनने की अनुमति नहीं देगा, लेकिन पथ का अनुसरण करने में वह बहुत दक्ष होती है। इस पथ पर बढऩे के लिए आपको ग्रहण करने के एक तरीके की जरूरत होती है। यह ग्रहणशीलता स्त्रियों में स्वाभाविक होती है। जिसे आप स्त्री या पुरुष कहते हैं, वह तो बस शरीर है। प्रकृति ने अपनी संतति को कायम रखने के लिए ही इसे ऐसा बनाया है। तो जब आप कहते हैं ‘स्त्री’, तो मूल रूप से आप शरीर विज्ञान के बारे में बात कर रहे हैं, एक शरीर, और कुछ भी नहीं।
जब हम कहते हैं शरीर, तो शरीर के अंदर हम मन को भी शामिल कर लेते हैं, क्योंकि स्त्री मन का निर्माण किए बिना, एक स्त्री शरीर का पोषण नहीं किया जा सकता। यह संभव नहीं है। यह ग्रहणशीलता सभी स्तरों पर होनी चाहिए, अन्यथा वह गर्भाशय को धारण नहीं कर सकती। गर्भाशय अपने आपमें ग्रहणशीलता ही है। स्त्री को अंग्रेजी में ‘वूमन’ और गर्भाशय को ‘वूम’ कहते हैं। वूम के कारण ही वह वूमन बन गई है। ‘वूमन’ शब्द ‘वूम’ शब्द से आया है। वूम (गर्भाशय) के कारण ही वह बच्चा धारण कर सकती है। यही कारण है कि वह वूमन (स्त्री) है। वूम (गर्भाशय) का अर्थ है ग्रहणशीलता। एक ‘वू-मन’, एक ‘वूम’ वाला पुरुष होती है।

स्त्री स्वभाव से ग्रहणशील होती है

पुरुष कोई चीज ग्रहण नहीं कर सकता। वह यहां-वहां कुछ चीजें कर सकता है, लेकिन ग्रहणशीलता उसमें कम होती है। ऐसा नहीं है कि वह अपने आप को तैयार नहीं कर सकता, कर सकता है, लेकिन स्त्री उस स्वाभाविक गुण के साथ ही आती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि जब भी कोई गुरु आता है, तो अधिक संख्या में स्त्रियां ही इकट्ठी होती हैं क्योंकि वे ग्रहण करने में ज्यादा योग्य होती हैं, लेकिन एक स्त्री-गुरु को पाना दुर्लभ है। आप उसे पा भी लेंगे, तो भी वह सामाजिक परिस्थितियों में ज्यादा उलझी होगी, जो उसे एक गुरु के रूप में काम करने की अनुमति नहीं देगा। मार्गदर्शक की दृष्टि से वह बहुत अच्छी नहीं होगी। ज्यादा-से-ज्यादा वह भक्ति सिखा सकती है। देखिए, एक गुरु होने और एक कसाई होने में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। दोनो ही काम ऐसे हैं, जिसमें पहले प्रेमपूर्वक चीजों को लाया जाता है और फिर ज़रूरत के अनुसार उसका कत्ल कर दिया जाता है। एक स्त्री ऐसा नहीं कर सकती। ऐसा करना उसकी प्रकृति में ही नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकती। हर गुरु हमेशा समर्पण की, भक्ति की, और तर्क से परे जाने की बात करता है, लेकिन वह स्वयं तार्किक होता है। वह खुद तर्क से परे एक अनुभव पर टिका होता है, लेकिन वह सभी चीजों में बेहद तार्किक होता है क्योंकि निर्माण और विनाश दोनों तर्क से जुड़े हैं। एक स्त्री शुरू से ही समर्पण और विसर्जन की बात करेगी। इसलिए वह कभी भी अच्छी गुरु नहीं बनेगी। वह पहले निर्माण और फिर विनाश नहीं कर सकती। वह जो भी निर्माण करती है, उसके प्रति उसमें बहुत ज्यादा अधिकार-भाव आ जाता है।

स्त्री हमेशा भक्ति मार्ग से जुड़ी रही है

स्त्री के साथ हमेशा यही समस्या रही है। कोई भी चीज़ जिसे वह बनाती है, उसके प्रति उसमें बहुत ज्यादा अधिकार-भाव होता है। वह किसी भी तरह से उसका विनाश नहीं कर सकती। यह कहानी स्त्रैण प्रकृति के अधिकार-भाव को उजागर करती है। एक बौद्ध साध्वी थी। हमेशा यात्रा करती रहती थी। वह अपने साथ एक खास बुद्ध प्रतिमा रखती थी। एक बार, वह एक मंदिर में जाकर ठहरी, जहां बुद्ध की हजारों प्रतिमाएं थीं। सुबह उसने धूपबत्ती जलाई। फिर देखा कि धूप बत्ती सभी बुद्ध प्रतिमाओं तक फैल रही है। उसे यह पसंद नहीं आया। इसलिए उसने एक कीप बनाई ताकि धूपबत्ती केवल उसी की बुद्ध मूर्ति तक सीमित रहे। कुछ समय बाद उससे बुद्ध की नाक काली हो गई। थोड़े और समय बाद चेहरा भी काला हो गया, क्योंकि धूप बत्ती का धुंआ बुद्ध के चेहरे पर जाने लगा था।अपने बुद्ध पर ही ढक़कर किए गए धूप सेवन से, उसने धीरे-धीरे अपने बुद्ध को काला कर दिया। दरअसल, यही उसकी प्रकृति थी, उसमें बहुत ज्यादा अधिकार भाव था। ऐसा नहीं था कि वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती, वह कर सकती थी। मैं यहां सिर्फ इतना बता रहा हूं कि क्यों बहुत सारी स्त्री-गुरु नहीं हैं और अगर हैं भी, तो प्राय: भक्ति मार्ग पर हैं। वैसे कुछ स्त्रियां भी बहुत अद्भुत गुरु रही हैं, पर वे बहुत अलग किस्म की थी। हमने हमेशा यह पाया कि वे एक बिल्कुल अलग तरीके से काम करती थी। उनकी कार्य-प्रणाली वैसी नहीं होती, जैसी पुरुष की होती है। उन्हें उस तरह की स्थिति की जरूरत होती है, समाज में उस तरह का समर्थन चाहिए होता है।

स्त्री गुरु को समाज का समर्थन कभी नहीं मिला

दूसरा पहलू यह है कि समाज ने स्त्री को एक गुरु के रूप में कभी समर्थन नहीं दिया। इससे पहले कि वह कुछ बने, लोगों ने उसकी हत्या कर दी। खासकर पश्चिम में, जब भी किसी स्त्री ने अपने ज्ञान को व्यक्त करना शुरू किया, जैसे ही वह साधारण चीजों के पार पहुंचने लगी, उसे डायन कहा गया और खूंटी से बांधकर जला दिया गया। मुख्य रूप से यूरोप में हजारों औरतों को खूंटी से बांधकर जला दिया गया। आज भी, अमेरिका जैसे आधुनिक देशों में, अगर किसी को डायन के रूप में देखा जाता है, तो ऐसा ही होता है। आज लोग उन्हें जलाते नहीं है, लेकिन पूरा समुदाय एक तरह से उनका बहिष्कार कर देता है। जैसे ही वह कुछ दूसरे गुण प्रकट करने लगती है, तो उस पर इस तरह का लेबल लगा दिया जाता है। जैसे ही वह एक खास अवस्था में पहुंचती है, तो वह पूरी तरह खुल जाती है। वह शारीरिक रूप से स्वतंत्र हो जाती है, जिससे लोग सोचते हैं कि वह अपनी नैतिकता खो चुकी है। लोग उसे केवल इसी तरह से समझ पाते हैं।

भविष्य में अधिक स्त्रियां गुरु बन सकतीं हैं

जैसे ही लोग ऐसा देखते हैं, उसका दमन करने के लिए बहुत सारे काम करते हैं। प्राय: उसकी हत्या कर दी जाती थी। अब आप उसकी हत्या नहीं कर सकते। इसके विरुद्ध कानून बन गया है। इसलिए दूसरे कई तरीकों से वे उसका विरोध करते हैं। स्त्री को ही हानि होती है। वहीं कुछ स्त्रियां ऐसी हैं, जिनमें अधिकांश पुरुषों से कहीं ज्यादा पौरुष-ज्वाला है। ऐसी भी औरतें हैं। अगर सामाजिक समर्थन हो तो, इस तरह की स्त्रियां अद्भुत गुरु बन सकती हैं। ऐसे लोग मौजूद हैं, लेकिन मानव इतिहास की इन सभी सदियों में जो हमें ज्ञात है, उन्हें वह समर्थन कभी नहीं मिला। संभवत: भविष्य में ऐसा संभव हो। हो सकता है कि हम बहुत सी स्त्रियों को आध्यात्मिक गुरु के रूप में देखें।

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