ईशा लहर के अगस्त अंक में हम भारतीय संस्कृति की विशेषताओं के बारे में चर्चा कर रहे हैं। भारत के उत्सव, भारत की आध्यात्मिकता और यहां का स्वर्णिम इतिहास - इस अंक का मूल विषय है। इस अंक में आप यह जानेंगे कि कैसे भारत को एक महाशक्ति बनाने की आकांक्षा से कहीं बेहतर है, कि हम इसे एक ऊर्जावान और उल्लासित राष्ट्र बनाने की कोशिश करें...

 

संपादकीय:

पश्चिम के देशों में वर्षों तक योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार के बाद स्वामी विवेकानंद भारत लौट रहे थे। उनके एक पश्चिमी शिष्य ने उनसे पूछा, ‘इतने वर्षों तक अमेरिका और यूरोप की समृद्ध और विलासपूर्ण जीवन शैली में समय बिताने के बाद अब आप अपने गरीब देश भारत को लौट रहे हैं,

यहां पर सत्य की खोज को सर्वोपरि स्थान दिया गया। सत्य को धर्म और ईश्वर से भी ऊंचा रखा गया। इसी खोज के फलस्वरूप यहां पर योग विज्ञान का जन्म हुआ जिसकि तकनीकी प्रक्रियाओं का लाभ आज पूरा विश्व उठा रहा है।
आपको कैसा महसूस हो रहा है?’ स्वामी जी ने कहा, ‘मेरा देश तो मेरे लिए हमेशा से प्रिय रहा है, परंतु इतना समय यहां बिताने के बाद अब उस भूमि की धूलि भी मेरे लिए पवित्र और पुण्य हो गई है।’ भारत पहुंचने के बाद भारतवासियों को संबोधित करते हुए विवेकानंद ने कहा था, ‘मैं भारतवासी हूं और हर भारतवासी मेरा भाई है... अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी और चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं। भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, मेरी जवानी की फुलवारी, बुढ़ापे की काशी और मेरा पवित्र स्वर्ग है। भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है।’

स्वामी विवेकानंद के ऊपर देश भक्ति का नशा छा गया था। उनके हृदय में देश के प्रति अगाध प्रेम और दिमाग में देश के पुनरुत्थान के लिए विचारों का सैलाब उमड़ रहा था। अमेरिकन लेखक मार्क  ट्वैन (जिन्हें अमेरिकी साहित्य का पिता भी कहा जाता है) ने अपने भारत भ्रमण पर कहा था, ‘भारत को विश्व का सबसे महान राष्ट्र बनाने में इंसान और प्रकृति ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। वह सब कुछ जो किया जा सकता है, यहां पर किया जा चूका है।’

स्वामी विवेकानंद और मार्क ट्वैन जैसे लोग किसी खास देश, धर्म, सिद्धांत या पंथ तक सीमित नहीं थे। ये लोग ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सूत्रपाती थे, जिनके लिए संपूर्ण विश्व ही एक परिवार था, इसके बावजूद भारत में उनकी गहरी श्रद्धा थी। आखिर ऐसा क्या है भारत में? विश्व के किसी भी कोने में अगर कोई इंसान अपनी चेतना में खिला तो उसने भारत को पहचाना, इसकी ओर श्रद्धा और सम्मान से देखा।

मुहम्मद इकबाल के शब्दों में,

यूनान-ओ-मिस्र-ओ रोमा सब मिट गए जहां से,

अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशां हमारा,

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा,

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।

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वह कौन सी ताकत है जिसने हमारी हस्ती को मिटने से बचाया - इसे न केवल हमें समझना होगा, बल्कि अपने भीतर उतारना भी होगा।

भारत की संस्कृति धर्म, विश्वास, मान्यता और शिष्टाचार की संस्कृति नहीं है, यह खोजियों की संस्कृति रही है।

भारत पहुंचने के बाद भारतवासियों को संबोधित करते हुए विवेकानंद ने कहा था, ‘मैं भारतवासी हूं और हर भारतवासी मेरा भाई है... अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी और चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। भारतवासी मेरे प्राण हैं।
यहां पर सत्य की खोज को सर्वोपरि स्थान दिया गया। सत्य को धर्म और ईश्वर से भी ऊंचा रखा गया। इसी खोज के फलस्वरूप यहां पर योग विज्ञान का जन्म हुआ, जिसकी तकनीकी प्रक्रियाओं का लाभ आज पूरा विश्व उठा रहा है। अपनी इस भीतरी समृद्धि के साथ हम समय की एक ऐसी दहलीज पर खड़े हैं, जहां बाहरी संपन्नता भी हमें गले लगाने को पुकार रही है। बाहरी और भीतरी समृद्धि के इस पावन संगम को हमें खोना नहीं है। यह समय है आखें खोलने का, जागने का, नई सुबह को निहारने का और बाहें पसार गले लगाने का।

कविवर बंसीधर शुक्ल के शब्दों में,

उठो सोने वालों सबेरा हुआ है

वतन के फकीरों का फेरा हुआ है

उठो अब निराशा निशा खो रही है

सुनहली-सी पूरब दिशा हो रही है

उठो देवियों वक्त खोने न दो तुम

जगे तो उन्हें फिर से सोने न दो तुम

कोई फूट के बीज बोने न दो तुम

कहीं देश अपमान होने न दो तुम

घड़ी शुभ महूरत का फेरा हुआ है।

उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।

 

जन-गण-मन के भीतर यह सबेरा उदित हो, इसी मनोरथ के साथ हम इस बार अपने महान भारत के कुछ पहलुओं को आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। इस विशाल देश के अथाह पहलुओं को समग्रता में समेटना तो संभव नहीं था, पर शायद इसके कुछ पहलुओं को आप तक  पहुंचाने में हम सफल हो जाएं। जय हिन्द, जय भारत।

 

 - डॉ सरस

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