सद्‌गुरु: भारत को एक विकासशील राष्ट्र कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि अभी बहुत सारा काम किया जाना बाकी है। अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा कि किसी को भी इस देश में बेरोज़गारी के बारे में बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारे पास करने के लिये लाखों काम हैं। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोग सिर्फ कुछ खास तरह के ही काम करना चाहते हैं जिसमें उन्हें बिना कुछ किए अधिक से अधिक वेतन मिले।

यदि आपके पास दिमाग है और कुछ सही करने की हिम्मत है तो दुनिया में करने को बहुत कुछ है, विशेष तौर पर भारत जैसे देश में यदि आप उद्यमी हैं तो दुनिया आप को रोक नहीं सकती। आप के मार्ग में लोग रोड़े अटका सकते हैं। आप उन्हें बाधाएं समझ लीजिये चाहे तो संभावनाएं। जहां समस्या है, यदि आप उस समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश करेंगे तो कोई बड़ी संभावना नज़र आएगी। हमारे देश में समस्याओं की कमी नहीं है, हमें उन्हें हल करने में निवेश करना चाहिये।

 

किसानों की मुश्किलों को हल करना

हम जब अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तब ज़्यादातर हम सिर्फ शेयर बाजार या मुम्बई जैसे कारोबारी जगहों के बारे में ही सोचते हैं। लेकिन भारत की 65% जनता ग्रामीण इलाक़ों में रहती है। इनमें से अधिकांश के साथ पिछले 8 - 10 पीढ़ियों से बेहद दुर्भाग्यशाली व्यवहार हुआ है। यदि आप आज किसी गाँव में जाते हैं तो देख सकेंगे कि अधिकांश पुरुषों का हड्डियों का ढांचा भी पूरी तरह विकसित नहीं है तथा स्त्रियों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है।

ज़रूरत इस बात की है कि ग्रामीण भारत का शहरीकरण हो लेकिन यह एक सपना ही रहेगा अगर अगले कुछ वर्षों में खेती की आय कई गुना नहीं बढ़ पाई। यदि हम उनकी आय दुगनी भी कर सकें तो अर्थव्यवस्था छप्पर फाड़कर कहीं की कहीं पहुँच जाएगी। अगर हम इस क्षेत्र को आकर्षक बना सकें तभी हम लोगों को ग्रामीण इलाकों में रोक कर रख सकेंगे वरना स्वाभाविक रूप से वे बड़े शहरों में बसने को जायेंगे जिससे बड़े पैमाने पर संतुलन बिगड़ेगा। हम काफ़ी हद तक आज यही हालत अपने शहरों में देख रहे हैं।

दो बड़ी मुख्य समस्याएं हैं जो हमारे किसानों को बहुत कष्ट दे रहीं हैं तथा उन्हें गरीबी और मौत की ओर धकेल रहीं हैं – एक है सिंचाई व्यवस्था में होने वाला बड़ा खर्च और दूसरी है बाज़ार में उनके लिये मोल-भाव करने की ताकत का न होना। आज हर किसान को अपने खेती के लिये बिजली खरीदना, बोरिंग खोदना और पंप सेट लगाना पड़ता है। इसमें इतना बड़ा खर्च होता है कि उसे कर्जा लेना ही पड़ता है, जिसे वह चुका नहीं पाता और फिर किसान को या तो ज़मीन बेचनी पड़ती है, या गाँव से भाग जाना पड़ता है या आत्महत्या करनी पड़ती है। और इस सब के बावजूद जब वह अपनी फसल बेचना चाहता है तो उसके पास न तो ट्रांसपोर्ट है, न स्टोर करने की व्यवस्था और न ही कोई स्थापित बाज़ार। फसल उगाना एक बात है लेकिन उसे ले जा कर बाज़ार में बेचना एक बड़ी कसरत है, जो वह कर ही नहीं पाता।

हम ऐसी कानूनी व्यवस्था की कोशिश कर रहे हैं जिससे किसानों का अपनी जमीन पर पूरा नियंत्रण व मालिकाना हक़ रहे और सारी व्यवस्था उनके लिये सौ फ़ीसदी सुरक्षित हो।

हम इस हालत में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं इसके लिए हम किसानों को ‘किसान उत्पादक संगठन’ (फ़ार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनिज़ेशन - एफपीओ) के तहत संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें कम से कम 10000 एकड़ जमीन इकट्ठा हो। हम ऐसी कानूनी व्यवस्था तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे किसानों का अपनी जमीन पर पूरा नियंत्रण व मालिकाना हक़ रहे और सारी व्यवस्था उनके लिये सौ फ़ीसदी सुरक्षित हो। किसान अपनी जमीन पर व्यक्तिगत रूप से खेती कर सकें पर उनके लिये सिंचाई व्यवस्था तथा उनकी फसल की बिक्री का काम सामुहिक तौर पर ऐसी कंपनियों के द्वारा हो जिनके पास इन कामों के लिये ज़रूरी क़ाबिलियत हो। अगर हम अपने किसानों के लिये ऐसी भरोसे की सहायक संस्था बना सकें जिससे उन्हें फसल उगाने के अलावा और कुछ देखना न पड़े तो भारत सारे विश्व के लिये अन्नपूर्णा बन सकता है। यदि आप इसमें आय बढ़ाने वाले उत्पाद जैसे दूध, मछली, हस्तकला वस्तुएं आदि और जोड़ सकें तो यह ग्रामीण भारत के लिए सफलता की एक जबरदस्त कहानी होगी।

 

पारंपरिक औषधियों का पुनर्जीवन

अच्छी कमाई का एक और तरीक़ा है, औषधीय वनस्पतियों की खेती। ईशा में हम ‘सिद्ध औषधियों’ का प्रभावशाली इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यह छोटे स्तर पर है। सिद्ध औषधियों एवं कुछ हद तक आयुर्वेद के साथ भी एक खास समस्या है कि इसमें उपयोग की जाने वाली वनस्पतीय सामग्री में एक ख़ास स्तर की गुणवत्ता होनी चाहिये, जिसको मैनेज करना बहुत मुश्किल होता है।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

अगर आप पेड़ पर से कुछ तोड़ते हैं तो इसमें भी यह बात महत्वपूर्ण होती है कि आपने उसे सुबह तोड़ा है या शाम को, गर्मी में तोड़ा है या बारिश के बाद। इन चीज़ों से भी उनकी गुणवत्ता में अंतर आ जाता है। सिद्ध औषधियां बनाने वाले सिद्ध वैद्य इन बातों के प्रति जागरूक होते हैं लेकिन वे इसे मेंटेन नहीं कर पाते। हम बीस सालों से कोशिश कर रहे हैं कि इन चीज़ों की पैदावार बढ़ाएँ, लेकिन अगर आप उत्पादन बढ़ाते हैं तो उनकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। यह एक बड़ी चुनौती है। एलोपैथी इस मामले में सफल है क्योंकि वे सिर्फ केमिकल इस्तेमाल करते हैं और जब चाहे जितनी चाहे गोलियां बना सकते हैं। लेकिन सिद्ध औषधि में ऐसा नही है। यह पूरी तरह ऑर्गैनिकनिक है और इसमें तत्व के स्तर पर काम किया जाता है जिसके लिये एक खास तरह की दक्षता की ज़रूरत होती है। इसके लिये बहुत अधिक जुड़ाव एवं इस्तेमाल की जरूरत है, सिर्फ 5 साल की मेडिकल डिग्री से काम नहीं चलता। आपको इसे अनुभव के स्तर पर समझना होता है।

औषधीय सामग्री पाना भी बहुत कठिन हो गया है। चूंकि हम (ईशा सेंटर) एक पहाड़ के बिलकुल पास में रहते हैं, जो बेहद अद्भुत है, इसलिए हमारे पास कुछ चीज़ें हासिल कर पाना आसान है। लेकिन अगर हमें यही चीज़ें अमेरिका भेजनी हो, जहां हमारा एक क्लीनिक है तो हमें इन वनस्पतीय सामग्रियों को सुखाना पड़ता है या ठंडा कर के जमाना पड़ता है जिसकी वजह से उनकी गुणवत्ता और उनका असर कम हो जाता है।

जब हमारी जमीन हरी-भरी थी और जड़ी-बूटियां बहुत अधिक मात्रा में मौजूद थीं, तब पारंपरिक दवायें बहुत अधिक मात्रा में व बढ़िया होती थीं।

तो यह ऐसी बात है जिसे लोग शायद स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन अधिकतर आयुर्वेदिक दवाओं के मामले में, चाहे वो किसी भी कम्पनी की हों, दवाओं के एक बैच से दूसरे बैच में, दवाओं के असर में बहुत अंतर होता है। विशेष रूप से सिद्ध दवाओं में, हरेक बैच की गुणवत्ता बनाए रखना लगभग असंभव है क्योंकि इस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है कि तोड़ी जाने वाली पत्ती की गुणवत्ता कैसी होगी। आप चाहे जितनी भी सावधानी रखें, एक बैच बहुत अच्छा होगा, दूसरा साधारण हो सकता है तो तीसरा इन दोनों के बीच वाली गुणवत्ता का हो सकता है। जब वनस्पतियाँ एकदम ताजी और अच्छी हों, तभी औषधि का असर बहुत अच्छा होता है।

जब हमारी जमीन हरी-भरी थी और जड़ी-बूटियां बहुत अधिक मात्रा में मौजूद थीं, तब पारंपरिक दवायें बहुत अधिक मात्रा में व बढ़िया होती थीं। लेकिन अब हमें किसी विशेष पहाड़ पर जा कर ही इन्हें हासिल करना पड़ता है। जब आप इन दवाओं के कारोबार को ऊंचा बढ़ाना चाहते हैं तो यह सही रूप से काम नहीं करता।

तो हमारी आयुर्वेदिक एवं सिद्ध दवाओं की गुणवत्ता को बनाये रखने का काम तभी हो सकता है जब हमारे खेतीहर उद्यमी ऐसी जगहें तैयार करें जहां वे औषधीय वनस्पतियों को ऑर्गैनिक तरीक़े से अच्छी गुणवत्ता के साथ उगायें। यह सिर्फ काफी लाभदायक कारोबार ही नहीं होगा बल्कि पारंपरिक दवाओं को अधिक असरदार भी बनायेगा।

 

प्राकृतिक बीज की शक्ति

एक देश के रूप में हमने जो एक बड़ा मूर्खतापूर्ण कार्य किया है वह यह है कि सिंचाई और मार्केटिंग के ऊपर ध्यान देने की बजाए हमने बीज एवं खाद के लिये बड़ी कंपनियां बना दीं। अब बुरा हाल यह है कि हम बीजों का आयात कर रहे हैं। हमें अपने किसानों की अन्न उत्पादन करने की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिये। उनकी यह क्षमता जबरदस्त है लेकिन हम इस क्षमता को खो रहे हैं क्योंकि सारा बीज विदेश से आ रहा है।

दक्षिणी भारत में, विशेष रूप से आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ भागों में 12000 सालों से भी ज्यादा पहले से खेती हो रही है और इन 12000 सालों से हम उसी जमीन में खेती कर रहे हैं, संभवतः वही परिवार जो पुश्त दर पुश्त उसी जमीन में खेती कर रहे हैं और पिछले कई हज़ार वर्षों से हम वही बीज इस्तेमाल में ला रहे हैं।

अपने बीजों को अपने पास बनाए रखने की शक्ति जबरदस्त होती है। कर्नाटक में इसे ‘बीजा-देवरु’ कहते थे। हर घर में कुछ बोरी बीज एक तरफ़ रख दिए जाते थे, जिनकी लोग रोज पूजा करते थे। वे चाहे भूखे रह जायें पर उस बीज को खाते नहीं थे। सिर्फ वर्षा के बाद और बुआई करने के लिये उस बीज का इस्तेमाल होता था। लेकिन पिछले 35-40 वर्षों में हमने ये बीज खो दिये हैं और इसकी बहुत बड़ी कीमत हम चुकाने जा रहे हैं।

अब, शोध कार्य पर लाखों डॉलर खर्च करने के बाद वे हमें बता रहे हैं कि हमें इसी प्रकार से खाना चाहिए। हम तो हज़ारों सालों से इसी तरह से खा रहे थे लेकिन पिछले 30 वर्षों से हमने यह परंपरा छोड़ दी है।

इस देश में अन्न के अधिकतर प्रकारों के बीज अब ख़त्म हो गए हैं। मुझे बताया गया है कि पिछले 50 वर्षों में दालों, अनाज, फलियों आदि के 87 से भी ज्यादा प्रकार हमने नष्ट कर दिये हैं। तीस साल पहले तक दक्षिणी भारत में अनाज की किसी भी दुकान पर दालों और अनाज की बहुत सारी क़िस्में मिलती थीं। अब बस लोग सफेद चावल और गेहूं खा रहे हैं, कुछ और मिलता ही नहीं है। पहले ऐसा नहीं था। वर्ष भर, अलग-अलग समय पर हम अलग-अलग तरह के अनाज खाते थे जो हमें तंदुरुस्त रखते थे। अब, शोध कार्य पर लाखों डॉलर खर्च करने के बाद वे हमें बता रहे हैं कि हमें इसी प्रकार से खाना चाहिए। हम तो हज़ारों सालों से इसी तरह से खा रहे थे लेकिन पिछले 30 वर्षों से हमने यह परंपरा छोड़ दी है।

दुर्भाग्यवश, हमने न सिर्फ जमीन के साथ ग़लत किया है बल्कि उस प्राकृतिक बीज को भी ख़त्म कर दिया है जो न केवल जमीन से पोषण लेता था बल्कि जमीन को पोषण देता भी था। हमारे देसी बीज के बारे में यह बेहद महत्वपूर्ण बात है। अगर आप अनाजों, दालों के कुछ अलग क़िस्म विदेशों से लाकर इस जमीन पर बोयेंगे तो हमारे देश के लिये यह एक भयंकर विपदा होगी। कर्नाटक के लोगों ने यह देखा है। सिल्वर ओक एवं यूकेलिप्ट्स के पेड़ जमीन का पोषण नहीं करते बल्कि उसका उपजाऊपन छीन लेते हैं। अगर आप यूकेलिप्टस के बागानों में जायें और जमीन को परखें तो पायेंगे उस जमीन में कीड़े भी नहीं हैं क्योंकि उनके लिये भी वहां कुछ नहीं है। यदि कीट पतंगे भी उस जमीन को पसंद नहीं करते तो फिर समझ लीजिए कि काम तमाम है। हम यह सब सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिए कर रहे हैं जो कोई और कमा रहा है। अगर हमने अब इन चीजों को सही ढंग से नहीं संभाला तो हमारे लिये जो भी बेहद मूल्यवान रहा है, नष्ट हो जाएगा।

अपने प्राकृतिक बीज को वापस लाना हमारे लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है। यह बहुत ज्यादा लाभदायी और स्वास्थ्यपूर्ण होगा और हम इसे निर्यात भी कर सकेंगे क्योंकि आज पूरी दुनिया में लोग स्थानीय तौर पर और ऑर्गैनिक तरीक़े से उगाई गई चीज़ों को ढूँढ रहे हैं।

कचरे से संपत्ति की ओर

अब, कचरे में से हमें बहुत अधिक कारोबार मिल सकता है।

उद्यम एक और मामले में बड़ा काम कर सकते हैं, वह है कूड़े, कचरे, गंदे पानी को धन में बदलना। हमारे कस्बों, शहरों का अधिकांश मैला नदियों और समुद्रों में धकेला जा रहा है। यह न सिर्फ भयंकर प्रदूषण बढ़ा रहा है बल्कि आर्थिक नुकसान भी कर रहा है क्योंकि अब ऐसी तकनीकें उपलब्ध हैं जो हमारे कूड़े, कचरे, मैले का रूपांतरण धन संपत्ति में कर सकती हैं। सिंगापुर ने यह कर दिखाया है। उन्होंने गंदे पानी को साफ़ और शुद्ध करके स्वच्छ पेय जल में बदल दिया है। हमें शायद उस स्तर पर शुद्धिकरण की ज़रूरत नहीं है लेकिन यदि हम भारत के कस्बों, शहरों का 360 करोड़ लीटर गंदा पानी 60 से 90 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन की सिंचाई करने में भी उपयोग में ला सकें तो यह एक बहुत बड़ा फायदा होगा।

कचरे में इतने अधिक कारोबार की क्षमता है। उदाहरण के लिये लोग बात करते हैं कि प्लास्टिक कितनी खराब चीज़ है। लेकिन यह सही नहीं है। प्लास्टिक सबसे अधिक रि-साइकल किए जा सकने वाले पदार्थों में से एक है। यदि हम सही ढंग से इस्तेमाल करें तो यह हमारे भविष्य की सामग्री है। प्लास्टिक कोई समस्या नहीं है, उसका गैर जिम्मेदाराना इस्तेमाल असली समस्या है।

इधर उधर फेंकने के बजाय हमें देखना चाहिये कि प्लास्टिक का फिर से इस्तेमाल कैसे हो सकता है। ज़रूरत है इसके लिए एक सेंट्रलायज़्ड इंडस्ट्री की। इसे स्थानीय स्तर पर भी किया जा सकता है जो ग्रामीण लोगों के लिये एक बढ़िया रोज़गार हो सकता है। अगर लोगों को पता चले कि प्लास्टिक वास्तव में धन संपत्ति है तो वे एक भी टुकड़ा इधर उधर नहीं फेकेंगे। वे इस बात का ध्यान रखेंगे कि कैसे इन सबका फिर से इस्तेमाल हो पाए।

ग्रामीण भारत का बदलाव

आज भारत ख़ुशहाली की दहलीज़ पर खड़ा है। यदि हम अगले दस सालों में सही चीजें करें तो हम बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रहन-सहन के एक स्तर से अगले स्तर तक ले जा सकते हैं। कॉरपोरेट क्षेत्र की यह जिम्मेदारी भी है और विशेषाधिकार भी कि इस बदलाव को अमली रूप दें। यह कोई दान धर्म नहीं है। यह एक अच्छा निवेश है, जिसमें बहुत अच्छी कमाई है, आर्थिक रूप से भी और करोड़ों लोगों को सम्मान एवं समृद्धि से भरा जीवन देने में भी।