नित्या: सद्गुरु, भारतीय संस्कृति में लिंग को एक लैंगिक प्रतीक की तरह जाना जाता है। साथ ही हम यह भी कहते हैं कि यह चैतन्य की परम अभिव्यक्ति है। आप इस विरोधाभास की कैसे व्याख्या करेंगे?

सद्‌गुरु: जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि ऊर्जा का पहला रूप, मौलिक रूप, एक लिंग के आकार का होता है। विसर्जन से पहले जो आखिरी रूप होता है, वह भी एक लिंग है। अब, भारतीय संस्कृति में इसे कई तरह से देखा गया है। भारत में शिव को बहुत ही कम जगहों पर एक चेहरे के रूप में दिखाया जाता है। उन्हें ज़्यादातर एक लिंग की तरह दिखाया जाता है। शिव को एक विनाशक की तरह भी देखा जाता है। किसी भी दूसरी संस्कृति में एक विनाशक की पूजा करने वाले लोग नहीं मिलते। विनाश के स्रोत की पूजा करने की परंपरा एक गहरी समझ से आती है। सिर्फ इतना ही नहीं, एक संस्कृति जिसमें जीवन की एक बहुत गहरी समझ है, वही अपने ईश्वर को एक ऐसे रूप में दिखाने की हिम्मत करेगी, जिसे एक जननेन्द्रिय की तरह देखा जाता है, और फि र भी उसे पूजेगी। लिंग और योनि को प्रतीक बनाना, यह भी एक ऐसी चीज है जिसके बारे में किसी दूसरी संस्कृति ने कभी नहीं सोचा।

संभोग निचले चक्रों पर आधारित है। जब आप ईश्वर की बात करते हैं, जब आप चैतन्य की बात करते हैं, तो इसे ऊंचा होना चाहिए।

शिव - शक्ति

जब स्त्रीत्व और पौरुष, निम्नतम स्तर पर मिलते हैं, तो इसे संभोग कहा जाता है। जब वही स्त्रीत्व और पौरुष ऊंचे स्तर पर मिलते हैं, तो यह शिव और शक्ति के मिलन को जाहिर करता है। इस मिलन में, शिव ‘रूप’ हैं और शक्ति ‘शून्य’। शिव पुरुष हैं और शक्ति प्रकृति। शिव और शक्ति सभी विपरीत जोड़ों के हमेशा मौजूद होने को बताता है, और इस ब्रह्मांड में किसी भी चीज का अपने विपरीत के बिना अस्तित्व नहीं हो सकता।

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संभोग निचले चक्रों पर आधारित है। जब आप ईश्वर की बात करते हैं, जब आप चैतन्य की बात करते हैं, तो इसे ऊंचा होना चाहिए। यहां भारत में सबसे ऊंचे को सबसे छोटे प्रतीक के इस्तेमाल से दिखाया जाता है।

जब आपकी ऊर्जा मूलाधार के स्तर पर खर्च होती है, तो आपकी ऊर्जा कामुकता के स्तर पर होती है। यही ऊर्जा अगर शीर्ष तक, सहस्स्रार तक जाती है, तब यह ज्ञान की प्राप्ति बन जाती है, आत्मबोध बन जाती है।

 

उर्जा का स्तर

जब आपकी ऊर्जा मूलाधार के स्तर पर खर्च होती है, तो आपकी ऊर्जा कामुकता के स्तर पर होती है। यही ऊर्जा अगर शीर्ष तक, सहस्स्रार तक जाती है, तब यह ज्ञान की प्राप्ति बन जाती है, आत्मबोध बन जाती है। यानी वही ऊर्जा स्थूल को चैतन्य तक ले गई। विकास की संपूर्ण प्रक्रिया बस यही है, उस ऊर्जा को निचले स्तर के बजाय शिखर पर मिलाया जाए। शिव, स्त्रीत्व और पौरुष का सहस्त्रार पर मिलन है। एक सांप अपना फ न फैलाए शिव के गले में लिपटा हुआ है, यह एक प्रतीक है जो बताता है कि कुण्डलिनी सहस्रार में पहुंच चुकी है। शक्ति में शिव से जाकर मिलने की एक बहुत तीव्र लालसा रहती है। वे नीचे नहीं आ सकते, इसलिए उसे ऊपर जाकर उनसे मिलना होगा। तो वे लोग जो ऊपर जाकर उनसे मिलने की परेशानी नहीं मोल लेते, वे मूलाधार के स्तर पर संभोग के रूप में अपनी ऊर्जा खर्च कर देते हैं।

अगर कोई अपने अंदर एक खास इच्छा, एक खास जरूरत लेकर आता है, तो उसकी ऊर्जा कैसी है, उसके मुताबिक ध्यानलिंग काम करता है।

 

संध्या: कई बार आपने कहा है कि ऊर्जा में कोई विवेक-बुद्धि नहीं होती, इसकी कोई सीमा नहीं होती। क्या ध्यानलिंग के साथ भी ऐसा है, सद्गुरु?

सद्‌गुरु: ऊर्जा में विवेक-बुद्धि इस मायने में नहीं होती, कि आप इससे कई तरह से काम करा सकते हैं। ऊर्जा में खुद की विवेक-बुद्धि नहीं होती। यही वजह है कि मानव प्रकृति को हमेशा से पवित्र माना गया है, क्योंकि इसके पास एक सचेतन विवेक-बुद्धि होती है। हम तय कर सकते हैं कि ऊर्जा में किस तरह की बुद्धि पैदा करें, हम इसे खास तरीके से स्थापित कर सकते हैं। मिसाल के लिए, मान लेते हैं कि आप मिट्टी में एक नीम का बीज बोते हैं। बीज और मिट्टी दोनों में बुद्धि है कि इसे सिर्फ एक नीम के पेड़ की तरह ही बढऩा होगा और इसमें सिर्फ नीम के ही फ ल लगने चाहिए। उनमें इतनी निर्धारित बुद्धि है। अगर आप भूखे हैं और आपको एक आम चाहिए तो उसे नीम का पेड़ पैदा नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पास वैसी बुद्धि नहीं है। हालांकि उसकी भावनाएं आपके प्रति उदार हो सकती हैं, फि र भी उसके पास वह बुद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें ऊर्जा दूसरी तरह से काम करती है।

 

विवेक की प्रकृति

यही वजह है कि हमने मानव प्रकृति को एक सर्वोच्च संभावना की तरह माना है। मानव प्रकृति में एक सचेतन विवेक-बुद्धि होती है। बाकी सब जगह, ऊर्जा एक खास तरह के विवेक, एक निर्धारित बुद्धि के मुताबिक काम करती है। इसी तरह से, ध्यानलिंग भी एक बहुत शक्तिशाली ऊर्जा है और इसके पास एक स्थापित किया गया विवेक है, लेकिन सचेतन विवेक नहीं है। अगर कोई अपने अंदर एक खास इच्छा, एक खास जरूरत लेकर आता है, तो उसकी ऊर्जा कैसी है, उसके मुताबिक ध्यानलिंग काम करता है। मान लेते हैं कि किसी इंसान में अपने आध्यात्मिक कल्याण की ललक है, लेकिन आज वह अपने जीवन की वर्तमान परिस्थिति में फंस गया है, और वह ज़्यादा पैसे कमाना चाहता है। अब ध्यानलिंग सिर्फ उसकी ऊर्जा की ललक को महत्व देगा। उस ऊर्जा की जिस तरह से चाहत है, यह सिर्फ उसी को जवाब देगा। मान लेते हैं कि उसकी चाहत जीवन के भौतिक पहलुओं के लिए बहुत गहरी है, फिर ध्यानलिंग उसी पर काम करेगा। ऊर्जा हर जगह ऐसे ही काम करती है। यही वजह है कि ईश्वर को निर्गुण-ऊर्जा कहा गया है, क्योंकि उसका खुद का कोई गुण नहीं होता। उसके पास सचेतन विवेक-बुद्धि नहीं होती। ऊर्जा निराकार है, जो सृजन करती है वह निराकार है।