इस द्वैत और जीवन के सात आयामों की वजह से ही दुनिया में जीवन के तमाम रूप, तमाम स्तर, जीवन को अनुभव करने के तमाम तरीके हैं। ध्यानलिंग इन सभी स्तरों पर अभिव्यक्त है, लेकिन इसका मकसद इंसान को इस द्वैत से परे जाने में उसकी सहायता करना है।


प्रश्न: सद्‌गुरु, आप कहते हैं कि ध्यानलिंग हर इंसान के लिए एक संभावना पेश करता है कि वह जीवन को पूर्णता में अनुभव कर सके। क्या आप हमें बता सकते हैं कैसे?

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सद्‌गुरु: मेरे विचार से ध्यानलिंग के पीछे जो विज्ञान है, हमें उसकी एक समझ पैदा करने की जरूरत है। योग परंपरा में, जिसे हम ‘शिव’ और ‘शक्ति’ कहते हैं, वह पूरा पहलू जीवन के द्वैत के बारे में है। जब आप जीवन को अपनी इंद्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं, तो यह अनुभव एक तरह के द्वैत में होता है। योग परंपरा में, इसी द्वैत-तत्व का शिव और शक्ति, अर्धनारीश्वर, की तरह मानवीकरण किया गया है।

योग में हम इसे इड़ा और पिंगला कहते हैं, और सुदूर पूर्व की संस्कृति में इसे ‘यिन’ और ‘यैंग’ की तरह जाना जाता है।
योग में हम इसे इड़ा और पिंगला कहते हैं, और सुदूर पूर्व की संस्कृति में इसे ‘यिन’ और ‘यैंग’ की तरह जाना जाता है। आप इसे अपने भीतर नारीसुलभ गुण (स्त्रैण) और पुरुषत्व गुण (पुरुषैण) कह सकते हैं या आप इसे अन्तज्र्ञान और तार्किक पहलू भी कह सकते हैं। आपका और आपके चारों ओर मौजूद दुनिया का अस्तित्व इन्हीं दो आयामों में है। इस द्वैत के आधार पर ही सभी धार्मिक विज्ञान विकसित हुए हैं। इसी के आधार पर जीवन का सृजन हुआ है। यह जीवन जैसा अभी है वह इस द्वैत के बिना नहीं हो सकता।

शुरुआत में सब कुछ मौलिक रूप में था, कोई द्वैत नहीं था, लेकिन जैसे ही सृष्टि का सृजन हुआ, द्वैत आ गया। इस द्वैत का अनुभव करने और आपको इस तक सीमित रखने के लिए ही ये इंद्रियां हैं। आप हर चीज को अपनी इंद्रियों से अनुभव करते हैं - देख कर, सूंघ कर, चख कर, सुन कर और छू कर। ये इंद्रियां दुनिया में द्वैत-बोध को दिखाती हैं और इसे दृढ़ बनाती हैं। रोशनी और अंधेरा, अच्छा और बुरा, सुखद और दुखद की समझ से हर चीज़ ज़्यादा प्रमाणित लगती है। जैसे-जैसे आप इंद्रिय-बोध के साथ जुड़ते जाते हैं, सोचते रहते हैं, और जीवन को अनुभव करते हैं, द्वैत और गहरा होता जाता है।

द्वैत से परे 

तो क्या द्वैत गलत है? बात इसकी नहीं है। बिना द्वैत के सृष्टि नहीं है। सिर्फ इन विपरीत चीज़ों के कारण ही सृष्टि बनी है, लेकिन इस द्वैत के अंदर फंसे रहना एक समस्या है।

दुनिया में सारे सुखों का स्रोत द्वैत ही है। साथ ही, सभी दुखों की जड़ भी द्वैत ही है। सिर्फ इन विपरीत चीज़ों की वजह से ही इंसान सुख-दुख झेलता है। वे जीवन के अनुभव से बुद्धिमान नहीं बनते, वे इससे घायल हो जाते हैं। वे न तो इस द्वैत को संभाल पाते हैं, और न ही इसके परे जा पाते हैं।
अगर कोई द्वैत तक ही सीमित है, तो वह नहीं जान पाता है कि उसके परे क्या है। तब यह आपके जीवन में एक बाधा बन जाता है। दुनिया में सारे सुखों का स्रोत द्वैत ही है। अगर विपरीत चीज़ें न हों, तो कोई सुख नहीं होगा। साथ ही, दुनिया के सभी दुखों की जड़ भी द्वैत ही है। सिर्फ इन विपरीत चीज़ों की वजह से ही इंसान दुख झेलता है। जीवन के इस ‘सुख और दुख’ के अनुभव में फंसकर लोग जीवन द्वारा जख़्मी हो जाते हैं। वे जीवन के अनुभव से बुद्धिमान नहीं बनते, वे इससे घायल हो जाते हैं। वे न तो इस द्वैत को संभाल पाते हैं, और न ही इसके परे जा पाते हैं।

जब तक आपने ख़ुद को इंद्रियों के अनुभवों तक ही सीमित रखा है, तब तक आप इस द्वैत में बंधे रहते हैं, आप विवश होते हैं। ऐसा लगता है कि ये इंद्रियां आजादी का जरिया हैं। मिसाल के लिए, आपकी दृष्टि आपको आजादी लगती है। अगर आपके पास आंखें नहीं हैं, तो आपको कोई बाहरी अनुभव नहीं होगा, लेकिन ये आंखें ही हैं जिन्होंने आपको कई तरह से सीमित कर रखा है। ये आंखें आपके शरीर में खिडक़ी की तरह हैं, इसी खिडक़ी से आप बाहर देख सकते हैं। यह खिडक़ी एक विशाल संभावना जैसी लगती है, लेकिन यह खिडक़ी आपके लिए एक बाधा भी है। अगर आप इस बाधा को हटा देते हैं, तब आप यह गौर करेंगे कि ये आंखें नहीं हैं जो देखती हैं, यह आप हैं जो देखते हैं। आपकी आंखें दुनिया को देखने के लिए एक छोटा सा रास्ता हैं। तो यह इंद्रिय-बोध बस एक छोटा सा द्वार है और साथ ही, यह आपके भीतर एक विशाल बंधन भी है।

तार्किक और अंतर्ज्ञान के आयाम से परे

ध्यानलिंग की प्रक्रिया या विज्ञान का मकसद जीवन के द्वैत की प्रचुरता को प्रमाणित करना है। इड़ा और पिंगला नाडिय़ों के जरिए, सातों चक्रों के जरिए, और तरह-तरह के अनुभव और अभिव्यक्तियों के जरिए, यह जीवन घटित हुआ है। सिर्फ इस द्वैत और सात चक्रों या जीवन के सात आयामों की वजह से ही दुनिया में जीवन के तमाम रूप, जीवन के तमाम स्तर, जीवन को अनुभव करने के तमाम तरीके हैं। ध्यानलिंग इन सभी स्तरों पर अभिव्यक्त है, लेकिन इसका मकसद इंसान को इस द्वैत से परे जाने में उसकी सहायता करना है। हम इंद्रिय-बोध के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन यह जानकर कि यह किस तरह की बाधा है, इंसान को इसके परे जाने की जरूरत है। इड़ा और पिंगला या शिव और शक्ति की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से दोनों आयामों - तार्किक और अंतर्ज्ञान - को अनुभव किया जा सकता है और उनका आनंद लिया जा सकता है। यह जान लेने के बाद कि तर्क और अंतर्ज्ञान, दोनों ही काफी नहीं हैं, आपको वह जानना चाहिए जो इससे परे है, जिसे योग में हम ‘प्रज्ञा’ कहते हैं, जहां न तो तर्क रह जाता है और न ही अंतर्ज्ञान। फिर आपको दुनिया का सीधा बोध होता है, जिस तरह से वह है। आप जीवन को बस उसी तरह अनुभव करते हैं जिस तरह से यह है, न कि इंद्रियों द्वारा निकाले गए मतलब के जरिए।