प्रश्न : नमस्कारम, सदगुरु। ब्रह्मचर्य के मार्ग पर क्या करना पड़ता है और किसी को कैसे मालूम हो कि वह उसके योग्य है कि नहीं ?

सद्‌गुरु: ब्रह्मचर्य का अर्थ है एक मंद पवन, बयार की तरह होना -- इसका मतलब है कि आप कहीं पर भी, ठहरते नहीं हैं। हवा हर जगह जाती है लेकिन हम नहीं जानते कि इस समय ये कहाँ से आ रही है ? इसने अभी समुद्र को पार किया और यहाँ आयी। ये अभी यहाँ है और अब आगे बह रही है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, बस जीवन होना -- वैसे जीना जैसे आप जन्में थे--अकेले ! अगर आप की मां ने जुड़वाँ बच्चों को भी जन्म दिया था, तो भी आप तो अकेले ही आये थे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है -- दिव्यता से अत्यंत निकटता से जुड़ना, और वैसे ही जीना।

दिव्य के पथ पर आगे बढ़ने का तरीका

ब्रह्मचर्य कोई महान कदम नहीं है। यह तो बस वैसे ही रहना है, जैसे जीवन है। शादी, विवाह एक बड़ा कदम है -- आप कुछ बहुत बड़ा करने का प्रयत्न कर रहे हैं। कम से कम लोगों को तो ऐसा ही लगता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, आप ने कुछ नहीं किया, अपने जीवन को आप ने वैसे ही घटित होने दिया जैसे रचनाकार ने आप को बनाया -- आप इसमें से कुछ और नहीं बनाते। तो इसमें कोई कदम नहीं उठाना है। अगर आप कुछ नहीं करते तो आप ब्रह्मचारी हैं।

लेकिन इसके लिये साधना है, अभ्यास हैं, अनुशासन है, वो सब किसलिये हैं ? ये सब आप को बस, वैसे ही रहने में मदद करने के लिये हैं। इसका कारण यह है कि आप ने इस पृथ्वी से बहुत कुछ लिया है, तो पृथ्वी के बहुत से गुण आप में आ जाते हैं और आप पर अधिकार जमाते हैं। एक मूल गुण यह है कि जब आप पृथ्वी को शरीर के रूप में उठा लेते हैं तो उसमें एक चीज़ आती है जड़ता! सुबह उठने पर भी जड़ता का अनुभव होता है (आप उठना नहीं चाहते)। अगर आप दिव्यता के पथ पर बढ़ना चाहते हैं तो यह ज़रूरी है कि आप पृथ्वी के गुणों के आगे न झुकें।

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एक बात जड़ता है, तो दूसरी है मज़बूरी वश चलना। अगर आप पृथ्वी को शरीर के रूप में उठा लेते हैं तो आप पृथ्वी जैसे हो जाते हैं। यह आप को गोलाकार चक्करों में ले जाती है। चक्रीय गति हर उस चीज़ का मूल आधार है जिसे ब्रह्माण्ड में भौतिक कहते हैं।

आप अगर एक गोल चक्र में घूमते हैं, चाहे वह कितना भी बड़ा हो, आप हमेशा वापस आते हैं, चाहे कोई आप को वापस न बुलाये। हमें नहीं पता कि ये दुनिया आप का यहाँ होना पसंद करती है या नहीं, लेकिन आप किसी भी तरह से वापस आ ही जायेंगे, क्योंकि आप एक गोल चक्र में हैं। जो यह महसूस करते हैं कि यहाँ उनकी कोई ज़रूरत नहीं है, जो एक सीधे रास्ते पर चलना चाहते हैं, उनके लिये यह दिव्य पथ है, ग्रहों के जैसा गोल घूमने वाला प्रक्षेप पथ(ट्रेजेक्ट्री) नहीं। तो कोई भी इंसान ब्रह्मचर्य को एक प्राकृतिक प्रक्रिया की तरह नहीं बल्कि एक मार्ग और एक अनुशासन की तरह अपनाता है जिससे वे जीवन की चक्रीय गति (जन्म-मरण के चक्कर) में न पड़ें। वे जीवन की चक्रीय गति के आगे झुकना नहीं चाहते।

आपकी गतिविधियाँ आपके बारे में न हो

तो ब्रह्मचर्य में क्या करना होता है? अगर आप बहुत जागरूक हैं तो इसमें कुछ भी नहीं करना है, यह बहुत सरल है। आप रोज़ सुबह ऐसे उठते हैं जैसे अभी-अभी पैदा हुए हैं, रात में सोने के लिये ऐसे जाते हैं, जैसे आप मरने वाले हैं। बीच के समय में आप वो करते हैं जो लोगों के लिये उपयोगी है। आप ये सब करते हैं क्योंकि अभी आप उस जगह नहीं पहुंचे हैं जहाँ आप बिना किसी गतिविधि, कार्य के रह सकें -- आप को कुछ तो करना है।

तो इसका मुख्य विचार यह है कि गतिविधि आप के बारे में नहीं होनी चाहिये, क्योंकि अगर ऐसा होता है तो आप बंधनों में फंस जायेंगे। इसलिए आप लगातार ऐसी गतिविधि करते हैं जिसमें आप के बारे में कुछ नहीं है। आप इतना ज्यादा कार्य करते हैं कि जब आप सोने के लिये बिस्तर पर जायें तो आप के पास एक क्षण भी न हो-- आप ऐसे गिरें जैसे मर गये हों। फिर सुबह आप पक्षियों से भी पहले उठ जाते हैं और काम में व्यस्त हो जाते हैं। बाकी सब कृपा संभाल लेती है।

आप को बहुत ज्यादा करने की जरुरत नहीं है, क्योंकि “ब्रह्मचारी” बनाने के लिये हम आवश्यक ऊर्जा लगाते हैं। वैसे तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। अगर वे बिलकुल कुछ न करें, तो वे वहां पहुँच जाएंगे। लेकिन पृथ्वी के गुण आपके अंदर काम करते हैं, क्योंकि आप शरीर को एक तरफ नहीं रख सकते। उसकी अपनी याद्दाश्त है, उसका अपना कर्मों का एक बड़ा ढेर है, इसलिए उसकी अपनी प्रवृत्तियां या रुझान हैं।

शरीर की वजह से प्रवृत्तियाँ आती हैं

ये प्रवृत्तियां आप के अस्तित्व का स्वाभाविक भाग नहीं हैं, लेकिन यह शरीर जो एक वाहन की तरह है उसकी अपनी प्रवृत्तियां होती हैं। मान लीजिये कि आप एक कार चला रहे हैं जिसकी कुछ भाग सीध में नहीं हैं, तो आप को उसे सीधा करना होगा वरना वह एक तरफ झुकती ही रहेगी। तो हमारे शरीर में भी सीध की ऐसी ही समस्या होती है, और यह शरीर भी हमेशा किसी एक तरफ झुकना चाहता है। घूमना या झुकना शुरू करने के बाद, यह अपना चक्र पूरा करता है, बस समय कम या ज्यादा लग सकता है।

लेकिन क्योंकि इसे यह करने में कुछ समय लगता है और आप की जागरूकता कुछ ज्यादा नहीं होती, तो जब भी आप किसी बिंदु से दोबारा गुज़रते हैं तो वो आप को नया लगता है। अगर आप कहीं पर दोपहर में बैठें हों तो वो जगह आप को एक ख़ास तरह से दिखेगी, फिर आप वहां सूर्यास्त के समय आयें तो वह अलग लगेगी, और यदि आप वहीँ मध्यरात्रि को पहुँचते हैं तो वो और भी अलग लगेगी। तो आप को लगता है कि हर बार आप एक नयी जगह आये हैं, पर नहीं, ये बस समय, मौसम और खराब याददाश्त के कारण है।

अपने पागलपन को स्वीकार करना होगा

आप के पास जो है वह ऐसा ही टेढ़ा चलने वाला वाहन है, या ऐसा वाहन है जो गोलाकार गति में जाने के लिये ही बना है। आप चाहे 12 वर्ष की चक्रीय गति में हों या 3 महीने की, अंतर सिर्फ पागलपन की मात्रा का है कि ये कितना प्रतिशत है? अगर आप 3 महीनों के चक्र में हैं तो हर कोई जान जायेगा कि आप पागल हैं। यदि आप 12 साल के चक्र में हों तो शायद लोगों को पता न चले पर अगर ईमानदारी से आप अपने आप को देखें तो समझ जायेंगे कि आप भी मूर्ख ही हैं। बात बस यह है कि आप लोगों को बेवकूफ बना सकते हैं कि वे यह सोचें कि आप ठीकठाक हैं।

आप को अपने आप को ईमानदारी से देखना चाहिये - सामाजिक असर की चिंता न करें, आप को किसी और के सामने स्वीकार नहीं करना है - अपने अंदर ही देखिये, क्या आप पागल नहीं हैं? मैं चाहता हूँ कि आप इसे सच्चाई से, ईमानदारी से देखें। अगर आप ईमानदारी से सीधे-सीधे खुद को देखते हैं, तो आप को पता चलेगा कि आप हिले हुए हैं।

आप अगर इतने ज्यादा सामाजिक प्राणी हैं कि आप को बस यही चिंता लगी रहती है कि आप कैसे दिखते हैं, बजाए इसके कि आप क्या हैं, तो फिर आप ऐसे ही बहुत जन्मों तक आते-जाते रहेंगे। यदि आप के लिए यह महत्वपूर्ण है कि आप कैसे हैं -- और यह नहीं कि कोई आप के बारे में क्या सोचता है, तो आप दिव्य पथ पर हैं। अगर किसी दूसरे की आप के बारे में राय आप का जीवन नहीं चलाती है, बल्कि आप के अस्तित्व की प्रकृति यह तय कर रही है तो स्वाभाविक रूप से आप दिव्य पथ पर होंगे।