सद्‌गुरुभक्ति आंदोलन अध्यात्म का एक संक्रमण काल था जिसमें पुराने रीती रिवाज टूट गए और जिसने हर व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार ईश्वर से जुड़ने में सक्षम बनाया।

तमिल नाडू से शुरू हुई भक्ति लहर

भक्ति आंदोलन एक तरह से उस पारंपरिक व्यवस्था का टूटना था, जिसमें इंसान द्वारा ईश्वर की खोज को कर्मकांडों, रीति-रिवाजों, धर्मग्रंथों और ऐसी ही दूसरी चीजों में बांध दिया गया था।

इन संतों में करईक्कल अम्मैयर नाम की महिला, सुंदरर, जिनका असली नाम सुंदरमूर्ति है, समंधर और थोड़े बाद में नौवीं सदी में माणिक्कावासगर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ये कुल 63 संत थे, जिन्हें नयनमार कहा जाता है। ये सभी एक ही पीढ़ी के संत हैं।
लगभग सातवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन तमिलनाडु में शुरू हुआ और कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और बंगाल से होते हुए यह पूरे उत्तर भारत में फैलता गया। और फिर यह सब तरफ फैल गया। केवल कुछ ही लोगों ने इस आंदोलन को चलाने की कोशिश की, बाकी सब तो उसकी मिठास के बहाव में बहते चले गए। उनके अंदर आई मिठास ने इसे पूरी धरती पर फैला दिया। तिरूनावक्करसु को लोग अप्पा के नाम से बुलाते थे, जिसका मतलब पिता होता है। उनसे ही यह सिलसिला शुरू हुआ और नौवीं शताब्दी में तो तमिल संतों की बाढ़-सी आ गई। इन संतों में करईक्कल अम्मैयर नाम की महिला, सुंदरर, जिनका असली नाम सुंदरमूर्ति है, समंधर और थोड़े बाद में नौवीं सदी में माणिक्कावासगर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ये कुल 63 संत थे, जिन्हें नयनमार कहा जाता है। ये सभी एक ही पीढ़ी के संत हैं। इनके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। फिर कुछ समय बाद यह आंदोलन कर्नाटक की ओर मुड़ गया, जहां इसे बसव ने आगे बढ़ाया, हालांकि बाद में अल्लामा ही छाए रहे। बसव को अन्ना के नाम से जाना जाता था, जिसका मतलब बड़ा भाई होता है। अक्का महादेवी को लोग अक्का कहते थे, जिसका मतलब बड़ी बहन होता है। इसी तरह हर एक को लोगों ने कुछ न कुछ नाम दे रखा था।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

भक्ति के मार्ग पर गलतियाँ हो सकतीं हैं

अल्लामा महाप्रभु को लोग प्रभु के नाम से जानते थे, हालांकि वे बासवा से बेशक  कुछ साल छोटे थे, फिर भी वे एक तरह से इन सभी लोगों के गुरु की तरह थे, वे सबको राह दिखाते थे।

कहा जाता है कि एक समय में वहां लोगों की सक्रिय भागीदारी होती थी और लगभग दो लाख लोग हर रोज विचार-विमर्श करने, बहस करने, भजन गाने और अपनी संपूर्ण भक्ति को जताने के लिए वहां इकट्ठे होते थे।
वह उन्हें डांटते थे, उनकी गलतियों को सुधारते थे और कई बार उनकी भक्ति में भी कमी निकालते थे। भक्ति एक पागलपन की तरह होती है, क्योंकि यह आपकी अपनी खुद की होती है, इसे आप अपने मन‐मुताबिक ढाल सकते हैं। यह आपकी कमियों को छिपाने का एक साधन भी हो सकती है, एक बहाना भी हो सकती है, यह आपके अस्तित्व का बहाव भी बन सकती है। इसके अलावा भी बहुत कुछ हो सकती है, लेकिन लोगों की गलतियां निकालना और उनमें सुधार कराना प्रभु का स्वभाव बन गया था। वह बसव का भी मजाक उड़ाते थे कि कैसे वे खुद को एक भक्त कहते हैं, जबकि उनके कपड़े, रहन-सहन शाही अंदाज में था। दरअसल बासवा राजा के यहां काम करते थे, इसलिए वे बसव के कपड़ों और रहन-सहन पर टिप्पणी करते रहते थे।

वह अक्का महादेवी के बारे में भी बात करते थे, जो पूरी जिंदगी नग्न ही रहीं, वह भी उन दिनों जब वह एक नवयुवती थीं। लेकिन प्रभु कहते थे, ‘तुम अपनी नग्नावस्था का दिखावा करती हो, लेकिन खुद को लम्बे बालों से छिपाती भी हो।’ इस तरह वे हर किसी में दोष ही निकालते रहते थे, इसलिए लोग उन्हें गुरु की तरह पूजते थे। उन्होंने उस क्षेत्र में ‘अनुभव मंडप’ की स्थापना की जिसका शाब्दिक अर्थ है - अनुभवों का भवन। तो उन्होंने एक ऐसा स्थान बनाया जो लोगों के लिए उनके अनुभवों का घर था, जहां लोग इकठ्ठे होते थे। कहा जाता है कि एक समय में वहां लोगों की सक्रिय भागीदारी होती थी और लगभग दो लाख लोग हर रोज विचार-विमर्श करने, बहस करने, भजन गाने और अपनी संपूर्ण भक्ति को जताने के लिए वहां इकट्ठे होते थे।

भक्ति के माध्यम से पुराने रिवाज़ टूट गए

हमें समझना चाहिए कि यह पूरा आंदोलन आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक संक्रमण काल था, जिसमें पहले से स्थापित धार्मिक व्यवस्थाओं की जगह ऐसी व्यक्तिगत प्रक्रियाएं ले रही थीं, जिनकी मदद से इंसान ईश्वर की खोज कर सकता हैै।

ईंट और गारे से बने मजबूत ढांचों के समान धार्मिक रीति-रिवाजों को तोडक़र भीतरी आयाम में ले जाने का काम किया भक्ति आंदोलन ने। अगर किसी इंसान के साथ कुछ घटित होना है तो आखिरकार वह उसके अंदर ही घटित होगा।
भक्ति के लिए आपको किसी धार्मिक ढांचे, व्यवस्था या किसी रूढि़वाद की जरूरत नहीं है, बल्कि यह हर एक व्यक्ति की चाहत पर निर्भर है। अगर किसी की चाहत बहुत तीव्र है, तो उसके लिए ईश्वर वहीं उपस्थित होंगे। जरुरी नहीं कि आत्म-ज्ञान किसी व्यवस्थित और तय चरणों से होकर गुजरने पर ही मिले। यही भक्ति के आंदोलन का मूल मंत्र था।

ईंट और गारे से बने मजबूत ढांचों के समान धार्मिक रीति-रिवाजों को तोडक़र भीतरी आयाम में ले जाने का काम किया भक्ति आंदोलन ने। अगर किसी इंसान के साथ कुछ घटित होना है तो आखिरकार वह उसके अंदर ही घटित होगा। इस तरह यह एक बुनियादी बदलाव था। मुझे लगता है कि यह बहुत अफसोस की बात रही कि ऐसी अद्भुत घटना, जिसने जीवन के लगभग हर पहलू को छूआ, इतने उत्तम दर्जे की कविता, भावनाओं की ऐसी तीव्रता, जिस तरह से ये सब व्यक्त हुआ और जिस तरह का विवेक इन सबके पीछे था, यह सब हम संसार के बाकी हिस्सों तक नहीं पहुंचा सके। लेकिन अब समय आ गया है, जब भारत का भक्ति-काव्य सारे संसार में पहुंचना चाहिए।

बस अंदर मुड़ना है

ईशा का सार भी यही है। योग का भी मूलतत्व और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं, उसका भी मूलतत्व यही है कि जिसे हम ईश्वर कहते हैं, उसका अनुभव करने के लिए आपको कहीं आकाश में या बाहर देखने की जरूरत नहीं है, बस अपने भीतर मुडऩा है।

यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई पाने में सक्षम है। पूरा का पूरा भक्ति आंदोलन कुल मिलाकर इसी बात को काव्य के जरिए या अलग-अलग तरीकों से कहता रहा है।
यही योग का सिद्धांत भी है और यही सार भी। हम भी इसे ही बड़े पैमाने पर प्रचारित कर रहे हैं। न आसमान में, न बाहर, बस अंदर की ओर - यानी एक ही रास्ता है और वह अंदर की ओर है। अगर आप आसमान में देखते हैं, तो निश्चित ही भ्रम में पड़ जाएंगे और अगर आप बाहर की तरफ देखते हैं, तो अपने सुख की तलाश में सारे संसार को बर्बाद कर देंगे, जैसा कि हम अभी कर ही रहे हैं। लेकिन अगर आप अपने भीतर की ओर मुड़ते हैं, तो आपका कल्याण और भलाई सुनिश्चित है और वह ‘इको-फ्रेंडली’ भी होगा। यह रास्ता किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, और न ही उसका किसी से कोई विरोध है। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई पाने में सक्षम है। पूरा का पूरा भक्ति आंदोलन कुल मिलाकर इसी बात को काव्य के जरिए या अलग-अलग तरीकों से कहता रहा है।