Sadhguruएक बार छात्रों से बात-चीत के दौरान सद्‌गुरु ने बड़े ही रोचक तरीके से समझाया कि जीवन में अपनी रोजी-रोटी की चिंता से परे भी कुछ है  - जो है खुद को जानना, अपने शरीर से परे खुद को जानना। कैसे समझें उसको जो खुद का हिस्सा है, लेकिन भौतिक नहीं है?

आपके हाथ पर अगर एक चींटी भी चढ़ जाए तो आपको महसूस हो जाता है, लेकिन आपके इसी शरीर के भीतर इतना सारा रक्त दौड़ रहा है। क्या आपको उसकी गति महसूस होती है?
ऐसा नहीं है कि आपके पास समय नहीं है। बात बस इतनी है कि ज्यादातर लोग समय का उपयोग नहीं करना चाहते। खाना मुश्किल से मिलता है, कपड़े भी मुश्किल से मिलते हैं, घर भी कठिनाई से बनता है। ऐसे में लोगों के दिमाग में कमी  का एक मनोविज्ञान विकसित हो गया है। उन्हें लगता है कि खुशी भी दुर्लभ है, आनंद भी दुर्लभ है और प्रेम भी, जबकि ऐसा नहीं है। इन चीजों की कोई कमी नहीं हैं। आप इन्हें जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, आपको ये उतनी ही मिलेंगी। ये चीजें ऐसी नहीं हैं जिनकी कभी कमी हो जाएगी। दिन में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेना जीवित रहने के लिए काफी है, लेकिन दिल्ली में जीवित रहने के लिए लोगों की आवश्यकता मर्सिडीज हो गई है। जीवित रहने के लिए जो चीजें असल में आवश्यक हैं, उन्हें हासिल कर जीवन की खोज करने की बजाय हम जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों की सूची को ही बढ़ाते जा रहे हैं। नतीजा यह होता है कि आप हमेशा चाहत और इच्छाओं के दलदल में फंसे रहते हैं। दरअसल, यही सामाजिक तरीका बन गया है। गौर से देखिए एक छोटा सा कीट जिसके पास इंसान की तुलना में महज दस लाखवां हिस्सा दिमाग है, जीवित रहने के काम को इंसानों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली तरीके से कर रहा है।

हर जगह बस एक ही सवाल है। तुम्हारी रोजी रोटी कैसे चलेगी? मैं कहता हूं तुम्हारी रोजी रोटी चलेगी। अब देखो मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं है और मैं हर जगह यात्रा करता हूं और गुजारा कर रहा हूं। कोई न कोई हमेशा मेरा ध्यान रखता है। अगर आप सभी के लिए उपयोगी और कुछ काम के आदमी बन जाते हैं तो कोई न कोई हमेशा होगा, जो आपका हर तरह से ध्यान रखेगा। मेरा मानना है कि अगर आप अपने दिमाग का सौवां हिस्सा भी उपयोग कर लेते हैं तो आप शानदार तरीके से गुजारा कर सकेंगे। सिर्फ गुजारे की खातिर जीवन भर सोचते रहने की आवश्यकता नहीं है। अपने जीवन की दिशा को निर्धारित करने का यह एक बेहद गलत तरीका होगा। मानवता के खिलाफ यह एक तरह का अपराध है। जरा बताइए, आप कैसे जानते हैं कि मैं यहां हूं?

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एक छात्र: हम एक दूसरे को देख सकते हैं।

सद्‌गुरु: आप देख सकते हैं, आप सुन सकते हैं। कल्पना कीजिए, आपको हल्की सी नींद आ जाए तो सबसे पहली चीज क्या होगी। मैं आपकी नजरों से गायब होने लगूंगा। फिर आपके आसपास के सभी लोग और खुद आप भी अपनी नजरों से गायब हो जाएंगे। लेकिन मैं तब भी यहीं हूं, दुनिया तब भी यहीं होगी, खुद आप भी यहीं हैं, आपका शरीर काम कर रहा है, आपका दिमाग भी क्रियाशील है, लेकिन आपके अनुभव में कुछ भी नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आपकी पांचों ज्ञानेंद्रियां बंद हो गई हैं। दरअसल, इन ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि ये उन चीजों को ही समझ सकती हैं, जो भौतिक हैं।

इन ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि ये उन चीजों को ही समझ सकती हैं, जो भौतिक हैं।
आपका शरीर स्थूल है जिसे आपने बाहरी चीजों से इकट्ठा किया है। लेकिन इस स्थूल से परे भी कुछ है जो आपके अनुभव में नहीं है। यह आपके अस्तित्व का 99 फीसदी है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आपके अनुभव में एक फीसदी से भी कम है।

स्थूल से परे जो पहलू है, आपको उसमें प्रवेश करना चाहिए। अगर आप ऐसा करते हैं तो आपके अंदर एक ऐसी सोच विकसित होने लगेगी, जो पांचों ज्ञानेंद्रियों की सीमा से परे है। जिस पल आप मां के गर्भ से बाहर दुनिया में आते हैं, पांचों ज्ञानेंद्रियां काम करना शुरू कर देती हैं क्योंकि जीवित रहने के लिए इनकी आवश्यकता होती है। कल्पना कीजिए, एक नवजात बच्चा एक जंगल में खो गया है। अगर खाने योग्य कोई चीज उसके सामने आएगी तो क्या वह इसे अपने कानों में या नाक में डाल लेगा? नहीं, उसे पता होगा कि इसे कहां रखना है।

कहने का अर्थ यह है कि जो चीजें जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं, उनके लिए हमें किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता नहीं होती। ये अपने आप काम करती हैं। लेकिन क्या कोई नवजात बच्चा लिख या पढ़ सकता है? क्या वह वे सब काम कर सकता है, जो बड़े होने पर हम करते हैं? नहीं, क्योंकि इन सभी चीजों के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है। आपको वह अंग्रेजी का ए याद है। जब आप साढ़े तीन साल के थे तो आपके बड़े आपको इसे लिखना सिखाते थे। उस वक्त यह कितना मुश्किल लगता था। आज भी अगर किसी अनपढ़ व्यक्ति को आप पढ़ना-लिखना सिखाने की कोशिश करते हैं तो उसे संघर्ष करना पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि हर उस चीज को सीखने के लिए आपको प्रयास करना पड़ता है, जो आपके जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है।

जाहिर है, अगर स्थूल से परे किसी पहलू को आप अपने जीवन में लाना चाहते हैं तो आपको कुछ श्रम, कुछ प्रयास करने ही होंगे, लेकिन बिल्कुल अलग दिशा में। जो कुछ भी आपके इर्द-गिर्द है, आप उसे तो देख सकते हैं, लेकिन आप अपनी आंखों को भीतर की तरफ मोड़कर अपने अंतर की पड़ताल नहीं कर सकते। आप बाहरी आवाजों को सुन पाते हैं, लेकिन आपके शरीर में इतना कुछ हो रहा है। क्या आप उसकी आवाज सुन पाते हैं? नहीं। आपके हाथ पर अगर एक चींटी भी चढ़ जाए तो आपको महसूस हो जाता है, लेकिन आपके इसी शरीर के भीतर इतना सारा रक्त दौड़ रहा है। क्या आपको उसकी गति महसूस होती है? नहीं न। दरअसल, हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वे बाहर की दुनिया को ही देख और महसूस पाती हैं, लेकिन जो कुछ भी आपको अनुभव होता है, वह आपके भीतर होता है।

इस स्थूल से परे भी कुछ है जो आपके अनुभव में नहीं है। यह आपके अस्तित्व का 99 फीसदी है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आपके अनुभव में एक फीसदी से भी कम है।
अभी मुझे आप सभी देख पा रहे हैं। मुझ पर प्रकाश की किरणें पड़ रही हैं और मेरे शरीर से परावर्तित होकर आपकी आंखों के लेंसों से गुजर रही हैं और रेटिना पर उलटा प्रतिबिंब बना रही हैं। इसीलिए आप अपने अंदर मुझे देख पा रहे हैं। आप अपने अंदर मुझे सुनते भी हैं। आप अपने अंदर पूरी दुनिया को देख पा रहे हैं। अभी आप अपने दोस्त का स्पर्श करो और देखो, आप उसके हाथ को महसूस नहीं करते। असल में आप चीजों को उसी तरह से महसूस करते हैं, जैसा आपका इंद्रियबोध होता है। इसके परे आपने कभी कुछ अनुभव ही नहीं किया है। आपके साथ जो भी हुआ है, आपकी खुशियां, आपकी परेशानियां आपके अंदर ही हुई हैं। प्रकाश हो या अंधकार सब कुछ आपके अंदर हुआ है लेकिन क्या आपके पास कोई साधन है जिससे आप अपने भीतर देख सकें। याद रखिए, ऐसा माध्यम आपको तब तक हासिल नहीं होगा, जब तक आप प्रयास नहीं करेंगे।

एक दिन की बात है। पास के एक गांव में एक शख्स ईशा योग सेंटर को ढूंढता हुआ आया। उसने वहीं के रहने वाले एक बच्चे से पूछा, 'ईशा योग सेंटर कितनी दूर है।’ लड़के ने कहा, '24998 मील।’ वह शख्स चौंका, 'क्या, इतनी ज्यादा दूर !’ लड़का बोला, 'जी हां, जिस दिशा में आप जा रहे हैं, उस दिशा से तो सेंटर इतनी ही दूर है, लेकिन अगर आप अपनी दिशा बदल दें तो यह महज 4 मील दूर ही है।’ कहने का मतलब है कि अभी आपके पास जो भी है, उसका रुझान बाहर की ओर है, लेकिन जो कुछ भी हो रहा है, वह भीतर हो रहा है। यही वजह है कि आपको पूरी तरह गलत बोध हो रहा है। खुद को अंदर की ओर मोड़ने के लिए आपको प्रयास करने होंगे। अगर आप एकाग्रचित होकर 28 घंटे दे दें तो हम आपकी दिशा बदल सकते हैं।

Steve Grosbois from flickr