सद्गुरुजब भीतरी प्रकृति की बात आती है, तो यह साबित हो चुका है कि औरतें भी उतनी ही समर्थ हैं जितना कि पुरुष। जिसे आप स्त्री या पुरुष कहते हैं, वह सिर्फ एक खोल है। चाहे आप पुरुष का बाहरी खोल पहनें या स्त्री का। वह आपकी आध्यात्मिक योग्यताएं तय नहीं करेगा।
वैदिक काल में जनेऊ पहनने के बाद ही वेद-उपनिषद पढ़ने की अनुमति थी। इसीलिए, आज के ब्राह्मण की तरह उस वक्त औरतें भी जनेऊ पहना करतीं थीं।

वे भी दस-बीस साल विवाहित जीवन जीने के बाद, आध्यात्मिक प्रेरणा जागने पर परिवार त्याग देतीं। लेकिन जब एशिया के मंगोलिया, मध्य चीन और इंडो-चीन के जंगली कबीलों ने भारत पर चढाई की, तो धीरे-धीरे औरतें अपनी आजादी खोने लगीं। लोग ने उन पर कई सीमाएं लगा दी और शास्त्रों व स्मृतियों को दोबारा लिखने लगे। शायद बाहरी परिस्थितियों के दबाव की वजह से कुछ समय तक ऐसा करना जरूरी भी था, लेकिन दुर्भाग्यवश औरतों पर लगी रोक-टोक को नियम बना दिए गए। श्रुति में, जनेऊ न पहनना उन पर पहली रोक थी। धीरे-धीरे लोग यहां तक कहने लगे कि औरतों का मुक्ति पाने का एकमात्र तरीका अपने पति की सेवा करना है। और फिर, यह तय हुआ कि सिर्फ पुरुष ही औरत का त्याग कर सकता है।

विवेकानंद ने कहा, “तुम उनसे दूर रहो! तुम्हें उनके बारे में कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें अकेला छोड़ दो! उन्हें जो करना है, वे खुद कर लेंगी।"
 
दुर्भाग्य से, आज भी यही हो रहा है। अगर आप स्त्री पैदा होतीं हैं, तो आपका जन्म अपने पिता या पति की सेवा करने के लिए ही हुआ है। इससे आगे आपके लिए और कुछ नहीं है! यह शिक्षा वे लोग देते हैं जो अस्तित्व के एक होने की बात करते हैं। सब कुछ एक है, लेकिन औरत निम्न है। अगर एक इंसान अपने पैदा होने की वजह को भी स्वीकार नहीं कर पाता, तो वह अद्वैतवादी कैसे हो सकता है ? सब जानते हुए भी, अगर आदमी अपने वजूद की मूल वजह को स्वीकार नहीं कर सकता, तो उसके लिए बाकी सभी चीजों को स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता!

हीन या बेहतर होने का सवाल सिर्फ एक भ्रष्ट मन की उपज है। यह सिर्फ दो स्वभावों का प्रश्न है। अगर आपको जन्म देने वाली औरत नीच है, तो आप  बेहतर कैसे हो सकते हैं? और यह सब सिर्फ किसी एक भद्दे आदमी की सोच न रहकर आपके सारे जीवन का हिस्सा बन गया है। चाहे वह आपका घर हो, समाज, संस्कृति, धर्म, या और सभी चीजें, आपने इसे ही सबका मूल आधार बना लिया है। एक बार विवेकानंद के पास एक समाज सुधारक आया और बोला, “बहुत अच्छी बात है कि आप भी औरतों का हित कर रहें हैं, बतलाइए कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं भी उनकी सहायता करके उनमें सुधार लाना चाहता हूं।" विवेकानंद ने कहा, “तुम उनसे दूर रहो! तुम्हें उनके बारे में कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें अकेला छोड़ दो! उन्हें जो करना है, वे खुद कर लेंगी।" बस इसी की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि किसी आदमी को औरतों को  सुधारने की जरूरत है। अगर वह औरतों को बस थोड़ी आजादी दे दे, तो वे खुद वह सब कर लेंगी जो उन्हें करने की जरूरत है।

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