ईशा लहर का अक्टूबर अंक में हमने स्त्री और पुरुष प्रकृति के बीच के अंतर के बारे चर्चा की है। इस अंक में आप समाज में स्त्रियों के बदलती भूमिका, स्त्री प्रकृति और पुरुष प्रकृति के बीच बढ़ते असंतुलन और साथ ही आध्यात्मिक मार्ग पर स्त्री प्रकृति के महत्व के बारे में पढ़ सकते हैं।

महिलाएं पुरुष प्रकृति अपनाने लगी हैं

सृष्टि के सतत विस्तार के क्रम में, स्रष्टा ने दो तरह के भौतिक शरीरों की रचना की - एक को हमने ‘नर’ कहा और दूसरे को ‘मादा’। सृजन की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि दोनों के योगदान के बिना रचना होगी ही नहीं।

जीवन संरक्षण के लिए जिस दृढ़ और कठोर गुण की जरुरत होती है, उसे ‘पुरुष-स्वभाव’ कहा गया और जो जीवन के कलात्मक, भावनात्मक और कोमल पहलुओं को दर्शाने वाले गुण होते हैं, उनको ‘स्त्री-स्वभाव’ कहा गया।
इस व्यवस्था को लेकर कहीं कोई समस्या नहीं थी, जब तक कि भौतिक शरीर विकास के पायदान चढ़ते-चढ़ते मानव शरीर तक नहीं पहुंच गया। मानव रूप में आने के बाद जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित होती गईं, स्त्री और पुरुष के बीच समस्याएं बढ़ती गईं। धीरे-धीरे हम यह भूलते गए कि दोनों समान रूप से रचना में भागीदार हैं, और अपने शारीरिक अंतर को बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगे। खासतौर पर औद्योगिक क्रांति के बाद दोनों के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गई और महिलाएं अपना गुण खो कर खुद को पुरुष बनाने की होड़ में लग गईं।

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स्त्री-प्रकृति और पुरुष-प्रकृति में क्या अंतर है?

हर इंसान में स्त्रैण और पौरुष गुण होते हैं। अलग अलग इंसानों में, ये गुण अलग अलग अनुपात में होते हैं। जीवन संरक्षण के लिए जिस दृढ़ और कठोर गुण की जरुरत होती है, उसे ‘पुरुष-स्वभाव’ कहा गया और जो जीवन के कलात्मक, भावनात्मक और कोमल पहलुओं को दर्शाने वाले गुण होते हैं, उनको ‘स्त्री-स्वभाव’ कहा गया। लेकिन चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष, जब तक ये दोनों गुण इंसान में पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं होते, उसे पूर्णता का अहसास नहीं होता।

स्त्री-प्रकृति आध्यात्मिक संभावना के द्वार खोलती है

जब तक जीवन संरक्षण और गुजर बसर एक बड़ा मुद्दा होता है, पुरुष प्रकृति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, पर इंसान को अपनी परम संभावना में खिलने के लिए उसके अंदर स्त्रैण प्रकृति की अभिव्यक्ति आवश्यक हो जाती है।

अपने शरीर को बहुत महत्व देने की वजह से ही हम खुद को एक पुरुष या एक स्त्री के रूप में देखते हैं। अगर देखा जाए तो बाथरुम और बेडरुम के अलावा अपनी इस पहचान को हर जगह ढोने का कोई औचित्य नहीं है।
  लेकिन दुर्भाग्य से हम इन दोनों प्रकृतियों को उपयोगिता के तराजू में तौल कर एक को बेहतर और दूसरे को कमतर ठहराने की कोशिश करते रहते हैं। यही वजह है कि हम स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक संतुलन लाने की हड़बड़ी में, व्यक्ति के अंदर असंतुलन पैदा करते रहे हैं। संतुलन समाज में केवल तभी संभव है, जब व्यक्ति संतुलित हो, और व्यक्ति तभी संतुलित हो सकता है, जब वह जागरूकता-पूर्वक अपने भीतर इन गुणों को पूरी तरह से खिलने का अवसर दे। स्त्री और पुरुष को बराबर करने की बजाए, हमें उन्हें बराबर अवसर देने होंगे, हमें अपने भीतर स्त्रैण और पौरुष प्रकृति को पूरी तरह से व्यक्त होने देना होगा।

इस पहचान को सिर्फ दो जगहों पर महत्व देने की जरुरत है

अपने शरीर को बहुत महत्व देने की वजह से ही हम खुद को एक पुरुष या एक स्त्री के रूप में देखते हैं। अगर देखा जाए तो बाथरुम और बेडरुम के अलावा अपनी इस पहचान को हर जगह ढोने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन इस पहचान से मुक्त कैसे हों? इसके लिए हमें खुद के ऊपर काम करना होगा, अपनी चेतना के उच्चतर आयामों में विकसित होना होगा।

- डॉ सरस

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