हमारा आज का ब्लॉग, ईशा हिंदी की मासिक पत्रिका ईशा लहर की एक झलक है। इस महीने ईशा लहर का मुख्‍य विषय है मौन । इस माह के संपादकीय में आप महसूस करेंगे मौन का एक स्‍पंदन।  52 पृष्ठों की इस रंगीन पत्रिका में लेख, फीचर एवं सद्गुरु के विचारों के साथ-साथ समसामायिक मुद्दों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उससे भारत के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक आयाम की सहज समझ हो।

संपादकीय:

आज से लगभग छ: माह पहले - अक्टूबर 2014 के अंक में हमने चर्चा की थी ध्वनि की, और आज हम जिक्र कर रहे हैं मौन का। ऐसा माना जाता है कि मौन, ध्वनि का विलोम है - यानि अगर ध्वनि महत्वपूर्ण है तो मौन नहीं या फिर अगर मौन महत्वपूर्ण है तो ध्वनि नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है, ध्वनि और मौन एक दूसरे के पूरक हैं। ध्वनि एक यात्रा है और मौन मंजिल। ध्वनि सृजन की प्रक्रिया है, मौन विसर्जन की। ध्वनि जीवन का सृजन करती है, उसे चरम तक ले जाती है। चरम पर मौन घटित होता है, मौन जीवन को असीम में विलीन कर देता है।

बाहर सृष्टि में ध्वनि है, पर हमारा अंतर मौन है। सतह पर ध्वनि, अंतरतम मौन। ध्वनि एक गूंज है, मौन भी एक गूंज है। इंद्रियां जब बाहर की ओर उन्मुख होती हैं, तो ध्वनि के स्पंदन का अनुभव करती हैैं, पर जब वही इंद्रियां अंतर की ओर उन्मुख होती हैं तो वहां मौन के चिर स्पंदन में लीन हो जाती हैं।

मौन का स्पंदन रोमांचित कर देता है। उसमें सृष्टा की गंध होती है, जीवन का कलकल प्रवाह होता है। हम अपने भीतर जीवन के जितने करीब होते हैं, मौन उतना ही सघन होता है, अंतर उतना ही तृप्त होता है।

दिनकर के शब्दों में,

 

जीवन अपनी ज्वाला से आप ज्वलित है,

अपनी तरंग से आप समुद्वेलित है।

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तुम वृथा ज्योति के लिए कहां जाओगे,

है जहां आग, आलोक वहीं पाओगे।

जहां जीवन है वहीं आग है, वहीं आलोक है और वहीं मौन है।

जीवन की गहन अनुभूति और परिपूर्णता में मौन घटित होता है। मौन परिपूर्णता की अभिव्यक्ति है, मौन शून्य की ध्वनि है, चैतन्य की भाषा है। जब हम चैतन्य की भाषा में संवाद करते हैं तो मौन हो जाते हैं। कबीर झूम-झूम कर गाते थे...

 

मन मस्त हुआ

अब क्या बोलें,

क्या बोलें फिर क्यों बोलें,

हीरा पायो गांठ गठियाओ

बार-बार वाको क्यों खोलें

मन मस्त हुआ अब क्या बोलें।

कबीर ही नहीं, जिसने भी परम को पा लिया, वह नि:शब्द हो गया। बाहर से चाहे कितना भी मुखर रहा हो, वह भीतर मौन हो गया। जीवन की साधना मौन को पाना है। जीवन को तीव्रता में जीने के लिए मौन की छांव चाहिए। मौन की छांव में ही जीवन को ठांव मिलता है, जीवन खिलता है, उसके प्रवाह में वेग पैदा होता है, तीव्रता आती है। जीवन को प्रवाहपूर्ण, तीव्र और प्रबुद्ध बनाने के लिए मौन की साधना करनी होगी।

यह एक विडंबना ही है कि ‘मौन’ के लिए भी मुखर होना पड़ रहा है। हम मौन की स्तुति शब्दों में कर रहे हैं। हालांकि यह एक कोशिश है मौन के स्पंदन को आप तक पहुंचाने की। हमारी कामना है कि आप इस स्पंदन को महसूस करें और अपनी ध्वनि-मय जीवन यात्रा को मौन के उत्कर्ष तक ले जाएं! अपनी इसी कामना के साथ यह अंक आपको चुपचाप समर्पित करते हैं।

 - डॉ सरस

 

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