सद्‌गुरुईशा लहर के मार्च अंक में हमने शिव भक्तों और सातवीं शताब्दी से शुरू हुए भक्ति आंदोलन से जुड़े अन्य संतों के बारे में जानकारी दी है। पढ़ते हैं इस माह का सम्पादकीय स्तंभ

भारतीय इतिहास जितना राजनैतिक उथल-पुथल से गुजरा है, उतना ही इसने सांस्कृतिक उथल-पुथल का भी सामना किया है। अध्यात्म इस संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी इस देश ने बहुत परिवर्तन देखे हैं। अनुभवों व ज्ञान से जन्मी वैदिक संस्कृति कालांतर में रूढिय़ों में घिरती चली गई। समाज में ग्रंथों, शास्त्रों और कर्मकांडों का वर्चस्व बढ़ता गया। शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञान का अधिकार समाज में कुछ खास जातियों तक ही सीमित था। कर्मकांडों में भी एक खास तबके के लोग ही भाग ले सकते थे। निम्न जाति के लोगों को धार्मिक अनुष्ठानों से वंचित रखा गया था।

सातवीं शताब्दी में उठी भक्ति आंदोलन की लहर

ऐसे समय में एक जबरदस्त सांस्कृतिक आंदोलन का जन्म हुआ जिसे भक्ति आंदोलन कहा गया। इसकी शुरुआत दक्षिण भारत से हुई।

धन्ना, रैदास, कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई जैसे अनेक भक्तों की रचनाओं और भक्तिगीतों ने जनमानस को भक्ति से सराबोर कर दिया।
सातवीं शताब्दी में इसकी लहर दक्षिण भारत में उठी और धीरे-धीरे पंद्रहवीं शताब्दी तक पूरे उत्तर भारत में फैल गई। भारत में इसके सूत्रधार रहे - रामानंद, चैतन्य महाप्रभु व वल्लभाचार्य। किसी ने राम तो किसी ने कृष्ण की भक्ति पर जोर दिया। रामानंद से लेकर तुलसीदास ने एक तरफ राम नाम की अलख जगाई, तो वल्लभाचार्य से लेकर मीरा ने कृष्ण की उपासना में सब कुछ अर्पित कर दिया। इतना ही नहीं, भक्ति में नाम और रूप भी गौण हो गए, रैदास और कबीर जैसे संतों ने निर्गुण भक्ति की। इस दौरान भक्त संतों की एक बाढ़ सी आ गई। धन्ना, रैदास, कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई जैसे अनेक भक्तों की रचनाओं और भक्तिगीतों ने जनमानस को भक्ति से सराबोर कर दिया।

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भक्ति की इस बयार ने रूढि़वादिता के ताने-बाने में बुनी ऊंच-नीच, जांत-पांत जैसी कुप्रथाओं की जड़े हिला दीं। उस समय यह दोहा एक नारे की तरह छा गया, ‘जाति-पांति पूछे नहीं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।’ कबीर ने लिखा, ‘कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय। भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।’

भक्ति आंदोलन की सफलता

अध्यात्म व भक्ति किसी शास्त्र, कर्मकांड या किसी बाहरी चीज का मोहताज नहीं होती। यह एक भीतरी प्रक्रिया है।

धन्ना, रैदास, कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई जैसे अनेक भक्तों की रचनाओं और भक्तिगीतों ने जनमानस को भक्ति से सराबोर कर दिया।
खुद को अपने इष्ट से जोडक़र परम मुक्ति को प्राप्त करने की संभावना और काबिलियत हर इंसान के अंदर होती है। अपने आचरण की शुद्धता और भाव की तीव्रता से हर कोई अपने भीतर प्रभु को पा सकता है - यह संदेश जन-जन तक पहुंचाने में भक्ति आंदोलन बेहद सफल रहा।

तो आखिर भक्ति है क्या? एक भक्त का अपने भगवान से कैसा रिश्ता होता है? इस बार के अंक में हमने कुछ ऐसे ही प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश की है। भौतिक से अभौतिक की ओर ले जाने वाले भक्ति आंदोलन की इस यात्रा को, इसके कर्णधारों को और उनकी रचनाओं को रोचक ढंग से हमने इस अंक में समेटने की कोशिश की है। आशा है आप भी भक्ति का रसास्वादन कर पाएंगे।

-डॉ सरस

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