शेरिल सिमोन की जीवन-यात्रा को समेटने वाली पुस्तक ‘मिडनाइट विद द मिस्टिक’ का हिंदी अनुवाद ‐ आप पढ़ रहे हैं एक धारावाहिक के रूप में, पढ़ते हैं उसकी अगली कड़ी

बचपन में पैसे की कीमत नहीं समझ पाई

जब मैं छोटी थी और मेरे माता-पिता मेरी देखभाल करते थे तब मैंने चारों ओर देखा और पाया कि जिनके पास पैसा है वे भी सुखी नहीं हैं। इसलिए मैंने सोचा कि पैसा उतना महत्वपूर्ण नहीं है या उसको कुछ अधिक ही आंका गया है।

जब मेरे पास बिलकुल पैसा नहीं था तब जा कर मुझे पैसे के महत्व का पता चला।
मैं नहीं जानती थी कि ऐसी सोच कितनी कच्ची, अनुभवहीन और घमंडी थी और जब आपकी पैसे की सारी जरूरतें कोई और पूरी करे (और वह भी बड़े अच्छे ढंग से) तब ऐसा सोचना कितना आसान होता है। मैं अब भी यह जानती हूं कि पैसे और सुख का कोई रिश्ता नहीं है लेकिन जब जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी न हो पा रही हों तब होनेवाला दर्द....कुछ ऐसा जिसका मुझे जरा भी आभास नहीं था। जब मेरे पास बिलकुल पैसा नहीं था तब जा कर मुझे पैसे के महत्व का पता चला। मुझे पहले कभी पर्याप्त धन न होने के डर का अनुभव नहीं हुआ था; मैं पहले कभी किसी चीज के बारे में इतना डरी नहीं थी – यों लग रहा था मानो लकवा मार गया हो!

पढ़ाई के विषय ठीक न होने का अहसास

टेड बच्चे की देखभाल के पैसे दे रहा था पर यह हमारे खर्चों के आगे कुछ भी नहीं था। अपने और अपने बेटे के रहने-खाने के प्रबंध की जिम्मेदारी मुझ पर आ जाने से मैं बोझ-तले दबी हुई-सी महसूस करने लगी। शादी के बाद टेड घर का खर्च चलाता था। मैं थोड़ा कुछ कर लेती थी पर मेरे कमाने न कमाने से टेड को कोई फर्क नहीं पड़ता था।  मेरे पिता की तरह टेड ने धन कमाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी।

मैंने दर्शनशास्त्र पढ़ना शुरू किया पर यहां भी वही सवाल थे जो मेरे पास थे और मेरी दृष्टि में उसमें कोई जवाब नहीं थे। मुझे लगा कि मेरी रुचि मनोविज्ञान में है पर यहां भी जवाब नहीं थे।
मेरे सामने नौकरी की कोई योजना नहीं थी, मैंने किसी तरह की कोई ट्रेनिंग ली ही नहीं थी और सच कहूं तो पहले कभी मुझे काम करने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी। मैं कॉलेज जाती-छोड़ती थी पर मैंने कभी डिग्री लेने की कोशिश नहीं की। मैंने स्नातक उपाधि के लिए जाने कितने कोर्स लिये पर कभी मुझे अपनी पसंद का कोर्स नहीं मिला। ऐसा कुछ नहीं था जो मैं बनना चाहती थी। मैंने दर्शनशास्त्र पढ़ना शुरू किया पर यहां भी वही सवाल थे जो मेरे पास थे और मेरी दृष्टि में उसमें कोई जवाब नहीं थे। मुझे लगा कि मेरी रुचि मनोविज्ञान में है पर यहां भी जवाब नहीं थे। इसलिए मैंने बिना किसी विशेष उद्देश्य के वे कोर्स लिये जिनमें मुझे रुचि थी जैसे कि पूर्वी देशों के धर्म और अंग्रेजी। अब मैं उस समय के गलत निर्णयों के परिणाम भुगत रही थी; अपना व्यावसायिक मार्ग तय न करना मेरे लिए मुश्किल खड़ी कर रहा था। मुझे काम मिलता भी तो क्या? फिर यह भी पता चल गया कि मैं उतनी स्मार्ट नहीं हूं। अपने पैरों पर खड़े होने का मेरा पक्का इरादा था पर सच कहूं तो मैं घबरा भी रही थी।

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जीवन समाप्त होता सा लगा

कई मायनों में मुझे लगा कि मेरा जीवन समाप्त हो रहा है। मैं सिर्फ पच्चीस बरस की थी पर हर तरफ बस अंधेरा ही दिख रहा था।

मेरे मित्र दुनिया भर के मजेदार और दिलचस्प काम कर रहे थे। दुनिया की सैर कर रहे थे। ट्रॉपिक्स में स्काई डाइविंग, स्क्यूबा डाइविंग, स्विट्जरलैंड में स्कीइंग और पैरिस में नये-नये व्यंजन बनाना सीख रहे थे। वे यूरोप, हिंदुस्तान और इजिप्ट की सैर कर रहे थे।

मैं इसको झटक नहीं पा रही थी। मानो मैं एक काले घने कोहरे में घिर गयी थी। मेरा दम घुट रहा था। यह उदासी एक जीवित राक्षस की तरह थी।
मैं दो नौकरियां कर रही थी: एक जिसके लिए मुझे कुछ नहीं मिलता था और दूसरी जो मुझे खास पसंद नहीं थी। और मानो यह सब काफी नहीं मैं लगातार इस डर के साथ जी रही थी कि शायद मेरे पास जरूरत के पैसे न हों और मैं ऐसे ही अकेली बूढ़ी हो जाऊं। अब मेरी हालत बिगड़ने लगी; हम आज जिसे क्लिनिकल डिप्रेशन या नैदानिक उदासी कहते हैं, वह मुझे हो गया। मैं हर समय उदासी से घिरी रहती थी - सुबह उठने पर, दिन भर काम करते हुए और रात को सोते समय भी। मैं इसको झटक नहीं पा रही थी। मानो मैं एक काले घने कोहरे में घिर गयी थी। मेरा दम घुट रहा था। यह उदासी एक जीवित राक्षस की तरह थी। वह मेरा खून चूसने के लिए जीवित रहना चाहती थी। मेरे मन में भविष्य को ले कर आशा की कोई किरण नहीं बची थी। मैंने जीवन में पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। मैं एक खुश, मौज-मस्ती के पीछे भागनेवाली महिला थी लेकिन अब मेरे जीवन में खुशी से मिलती-जुलती कोई भी चीज नहीं बची थी।

खुद ही खुद को उदासी से बाहर निकाला

मुझे इस सब-कुछ निगल जाने वाली उदासी से बाहर निकलने और फिर से खुशी देखने में पूरा एक साल लगा। इतने गहरे गिरने के बाद बाहर निकल पाना बहुत कठिन था। बाहर निकलने में सफल होने के बाद मैंने अपनी दिमागी हालत पर गौर किया।

मैंने यह भी निश्चित रूप से मान लिया था कि मुझे दोबारा शादी नहीं करनी है। मुझे पुरुषों को पहचानने की अपनी परख-शक्ति पर भरोसा नहीं रह गया था और मैं और अधिक बच्चे नहीं चाहती थी।
मैं जानती थी कि मैं कभी उस काले अंधेरे में वापस नहीं जाऊंगी। मैं कभी भी अपने आपको ऐसी उदासी में डूबने नहीं दूंगी। यह मेरे सामने आईने की तरह साफ था कि मेरी खुशी मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। मुझे खुशी कोई और नहीं दे सकता; यह शक्ति मेरे और सिर्फ मेरे ही अंदर है। उसके बाद मैं इस बात के लिए सावधान हो गयी कि मेरा मन मुझे कहां ले जाता है और मेरी सोच कहां जा कर टिकती है। मैंने यह भी निश्चित रूप से मान लिया था कि मुझे दोबारा शादी नहीं करनी है। मुझे पुरुषों को पहचानने की अपनी परख-शक्ति पर भरोसा नहीं रह गया था और मैं और अधिक बच्चे नहीं चाहती थी। चूंकि मैं फिर से खुश रहने लगी थी इसलिए मुझे फिर से कोई रिश्ता जोड़ने की जरूरत महसूस नहीं हुई।

घरों से जुड़े काम में दिलचस्पी

मेरी पहली नौकरी अपने ही रिहायशी संकुल के अपार्टमेंट मैनेजर की थी। इस काम के चलते मुझे केवल रहने के लिए मुफ्त अपार्टमेंट और खाने और पेट्रोल के पैसे मिल जाते थे। सबने देखा कि मैं अपार्टमेंट किराये पर देने के काम में निपुण हूं।

मैंने इसकी छानबीन की और फिर फैसला कर लिया कि एक रिएल्टर यानी भूसंपत्ति दलाल बनना मेरे लिए ठीक रहेगा।
इसलिए मकान मालिक अच्छा किराया न पाने वाले अपने दूसरे घरों को किराये पर देने के लिए मुझे भेजने लगे। मेरे एक परिचित ने कहा, “शेरिल, तुम यह काम बहुत अच्छा कर लेती हो! तुम रियल एस्टेट (यानी भूसंपत्ति) के काम में खूब कामयाबी हासिल करोगी; बहुत पैसा बना पाओगी।”

मुझे अपार्टमेंट्स को किराये पर उठाने का काम अच्छा लगता था। कुछ होता हुआ देखने में मुझे बड़ी रुचि थी। ऐसा कुछ करने का विचार जिसमें मुझे मजा आता हो और साथ ही अधिक पैसे कमाये जा सकते हों बहुत अच्छा लगा। मैंने इसकी छानबीन की और फिर फैसला कर लिया कि एक रिएल्टर यानी भूसंपत्ति दलाल बनना मेरे लिए ठीक रहेगा।

रियल एस्टेट कारोबार में जुड़ना ठीक समझा

दिन में रियल एस्टेट स्कूल जा सकने की खातिर मैंने रात में एक कॉकटेल वेट्रेस की नौकरी कर ली। मैं सचमुच ठीकठाक पैसे कमाने लायक हो गयी थी। मैं नहीं चाहती थी कि जरूरत का पैसा न होना मेरे जीवन में कष्ट पैदा करे।

मुझे पहले कभी यह अहसास नहीं हुआ था कि जिस चीज पर हम अधिक ध्यान न दे कर उसे बस ऐसा-वैसा मान लेते हैं वह हमारे जीवन को इतना तितर-बितर कर सकता है।
मैं हमेशा किसी तरह अपना लाइसेंस पा लेने के बारे में सोचती रहती थी ताकि मैं पैसे का अपना कष्ट दूर कर लूं और रहन-सहन की वही शैली वापस पा लूं जो आरामदेह थी और जो मैंने इतने गैरजिम्मेदाराना तरीके से छोड़ दी थी। लेकिन रियल एस्टेट लाइसेंस मिल जाने के बाद मेरी परिस्थिति और बिगड़ गयी। अब मुझे नियमित वेतन नहीं मिलता था। मैं कोई घर बेच भी लेती तो बात पक्की होने में हफ्तों-महीनों लग जाते थे। गाड़ी की टायर पंक्चर वगैरह जैसी कोई मुसीबत की घड़ी आ जाती तो मेरे पास ठीक करवाने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। एक बार मुझे तेज फ्लू हो गया और मैं हफ्ते भर काम नहीं कर पायी। मैं बिजली का बिल नहीं चुका पायी और बिजली चालू रखने के लिए मुझे एक मित्र से उधार लेना पड़ा। मुझे पहले कभी यह अहसास नहीं हुआ था कि जिस चीज पर हम अधिक ध्यान न दे कर उसे बस ऐसा-वैसा मान लेते हैं वह हमारे जीवन को इतना तितर-बितर कर सकता है।