यह एक नियम-सा हो गया है कि मैं बिना किसी तैयारी के तमाम गतिविधियों में कूद पड़ता हूं। एक लंबी और मुश्किल ट्रेकिंग पर जाने से पहले हाथ-पैर में मजबूती लाना जरूरी होता है। अधिक ऊंचाइयों पर सांस न फूले और थका कर चूर कर देने वाली कठिन यात्रा से फेफड़ों की लय-ताल मिली रहे इसके लिए उनको खास तौर से तैयार करना होता है। लेकिन पिछले दो महीनों से कामकाज इतना सख्त और कमरतोड़ रहा है कि मैं न तो अपनी सैर का खयाल रख पाया और न ही खाने-पीने का; सीधे यहां चला आया। बस पहा‌ड़ी इलाके में दो-चार दिन गोल्फ खेलने भर का मौका मिल पाया। थोड़ा गोल्फ खेल लेने के कारण हीं मैं इन टांगों पर चल पा रहा हूं वरना  हर दिन लगभग बारह से चौदह घंटे एक ही जगह पर बैठे रहने से तो चलने की आदत ही छूट गई थी।

लुंबिनी से रवाना होने के बाद खूबसूरत पहाड़ों का सफर काफी चुनौतीभरा और जान को सांसत में डालनेवाला था। उस लंबे सफर को तय कर के जब काठमांडू पहुंचे तो अपने दल के सब साथियों से मिल कर, एक-दूसरे का हाल जान कर बड़ा सुकून मिला। मैं पिछले पैंतीस साल से लुंबिनी जाने की चाह मन में संजोए हुए था। 1979 में मैं अकेला ही मोटरसाइकिल पर नेपाल की सीमा तक पहुंच गया था – लेकिन पासपोर्ट न होने की वजह से उन्होंने नेपाल में घुसने नहीं दिया। मुझे मालूम था कि सीमा के ठीक उस पार ही गौतम बुद्ध का जन्म-स्थान है। पर किस्मत का खेल! लुंबिनी जाने में इतना वक्त लग गया!

लुंबिनी से रवाना होने के बाद खूबसूरत पहाड़ों का सफर काफी चुनौतीभरा और जान को सांसत में डालनेवाला था। उस लंबे सफर को तय कर के जब काठमांडू पहुंचे तो अपने दल के सब साथियों से मिल कर, एक-दूसरे का हाल जान कर बड़ा सुकून मिला।

काठमांडू से नेपालगंज की फ्लाइट में ज्यादा कुछ नहीं हुआ सिवाय इसके कि कुछ अजीब वजहों से पाइलट ने हवा की दिशा में बनी एक छोटी-सी पट्टी पर लैंड करने का फैसला कर लिया और नतीजतन उसको घबराहट में ब्रेक लगा कर जाने क्या-क्या करना पड़ा। नेपालगंज मौसम को ले कर बहुत मशहूर है; यहां लोग कई-कई दिन बल्कि कई-कई हफ्ते फंसे रह जाते हैं। लेकिन हम लोग खुशनसीब थे कि एक घंटे से भी कम समय में, एक छोटे से डोर्नियर विमान में बैठे आसमान में उड़ान भर रहे थे। ये हवाई जहाज डिजाइन और फिटिंग में बहुत पुराने होने के बावजूद जबरदस्त काम करते हैं। बेहद मुश्किल इलाकों में भी ये एक  वफादार कुत्ते की तरह लोगों की सेवा करते आ रहे हैं।

सिमिकोट में विमानों के लिए 100 से 280 डिग्री के बीच बनी एक शानदार लैंडिंग स्ट्रिप है। उस इलाके में इसको एक चमत्कार ही माना जाता है कि आप काठमांडू से उड़ान भरें और तीन घंटे से भी कम में सिमिकोट पहुंच जाएं – मौसम कभी भी ऐसा होने नहीं देता – शायद मौसम के देवता हम पर खास मेहरबान हैं! जल्दी से कुछ  थोड़ा सा खा कर हम नीचे धारापानी की ओर ट्रेकिंग के लिए निकल पड़े। दूरी है तो सिर्फ नौ किलोमीटर की, लेकिन ढलान इतनी खड़ी और चट्टानी है कि घुटने टूट जाते हैं। अपने दल के आखिरी सदस्य को साथ ले कर अपने शिविर तक पहुंचने में कोई नौ घंटे का वक्त लगा। हमेशा ही ऐसा होता है कि डर और दर्द के मारे कुछ साथी बीच में यात्रा छोड़ वापस जाना चाहते हैं लेकिन जाहिर है मैं उन्हें जाने नहीं देता। दूसरे दिन उनकी चुस्ती वापस लौट आयी और धारापानी से कर्मी तक की दस किलोमीटर की ट्रेकिंग उन्होंने खुशी-खुशी तय की। वैसे इस ट्रेक में कहीं-कहीं जानलेवा खड़ी चढ़ाई थी पर ढलान ज्यादा नहीं थे और रास्ता भी उतना चट्टानी नहीं था।

अब हम कर्मी पहुंच चुके हैं। हमारे शिविर से उस घाटी का नजारा इतना खूबसूरत दिख रहा है कि उसको देखने के लिए दो आंखें  कम पड़ रही हैं।

अब हम कर्मी पहुंच चुके हैं। हमारे शिविर से उस घाटी का नजारा इतना खूबसूरत दिख रहा है कि उसको देखने के लिए दो आंखें  कम पड़ रही हैं। अब तक कुछ खास आध्यात्मिक गतिविधि नहीं हुई है, बस सिर्फ टांगों और फेफड़ों की कंडिशनिंग हो रही है। कल से हम अपने दल को इस लायक बनाने की कोशिश में लग जाएंगे कि  वे यह जान और समझ सकें कि इस क्षेत्र से और खास तौर से कैलाश और मानसरोवर से कितना कुछ पाया जा सकता है। यह कठोर ट्रेक लोगों को और अधिक आत्मबोधी बनाने का एक अच्छा साधन है बशर्ते कि वे  अपनी ताकत व उपलब्धि के घमंड में ना फंस जाएं, जैसा कि अकसर होता है। वैसे इस दल के सारे लोग नेक और समझदार हैं। उम्मीद करता हूं कि ये पर्वत और मैं मिल कर उनके आत्मबोध के दरवाजे खोल सकेंगे और उन्हें महादेव से मिला सकेंगे।

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सूरज बस अभी-अभी पहाड़ों की चोटियों के पीछे छिपने गया है, उसके और भी तो अप्वाइंटमेंट होंगे। उसे धरती के दूसरे हिस्सों को भी तो रोशनी और गर्मी देने जाना है जहां हजारों-लाखों किस्म के पेड़-पौधे, प्राणी और इंसान उसकी गर्मी और रौशनी का गर्मजोशी से इंतजार कर रहे हैं। शाम का यह धुंधलका कितना जादुई है! एक नयी रंगत बिखेरती पेड़-पौधों की गहराती हरियाली, ऊंचाइयों को चीरती चट्टानें, हवा में अपनी महक और कदमों की सरसराहट घोलते घर लौटते जानवर और पास ही के एक गांव में खाना पकाती चूल्हे की आग। और इन सबसे कहीं ज्यादा जादुई है नीचे बह रही नदी का निरंतर शोर। बाकी सब तो कुछ पलों के मेहमान हैं सिवाय इस अनमोल तत्व जल के, जो हर तरह के जीव-जंतुओं और करोड़ों लोगों को पालने-पोसने के लिए तेजी से मैदानी इलाकों की ओर बह रहा है। लेकिन सबका दुखता बदन रात के इंतजार में है जब कलकल बहते पानी का यह शोर लोरी बन कर सबको मीठी नींद सुलाएगा।

शिव की सुगंध

संयमित, किंतु छ्लकती आंखे लिए

ये शांत मूक पहाड़।

खुद को निर्बंध करने को आतुर

ये भागती-गरजती नदी।

रहस्यमयी तरीके से खड़ी

एक अनाम घाटी।

केंचुए की तरह मिट्टी को खोदते-खाते

इंसानों ने ढूंढ़ लिए हैं रास्ते

कुदरत को मोड़ने का, तोड़ने का, मन मुताबिक

जादू से चीजें हासिल करने का।

खींच रही है मुझे सुगंध शिव की

कर रही है विवश करने को

एक रात उनके नाम ,

सिर्फ एक दिन, एक रात।

कैसे बताएं इन मूर्खों को भला,

विधान उनके कितने निराले कितने अथाह ।

प्रेम व प्रसाद