लेख : अक्तूबर 10, 2017

करण जौहर: आजकल भारत सहित, दुनिया के बहुत सारे भागों में मानसिक बीमारियां बहुत तेजी से फैल रही हैं। इसके बारे में आप क्या सोचते हैं?

सद्‌गुरु: मानसिक रूप से बीमार होना कोई मजाक की बात नहीं है। ये बहुत दर्दनाक चीज़ है। आप को अगर कोई शारीरिक रोग है तो सभी आप के लिये करुणावान होंगे, पर जब आप को कोई मानसिक रोग है तो, दुर्भाग्यवश, आप हँसी के पात्र बन जायेंगे। ऐसा इसलिये है क्योंकि ये मालूम करना बहुत कठिन है कि कोई कब बीमार है और कब बेवकूफी कर रहा है? यदि किसी के परिवार में कोई मानसिक रूप से परेशान, अशांत है, तो ये उनके लिये सबसे बड़ी समस्या है। आप को पता ही नहीं चलता कि वे कब वास्तव में पीड़ा भोग रहे हैं और कब ऐसे ही बनावट कर रहे हैं ? आप समझ नहीं पाते कि कब आप उनके साथ करुणावान हों और कब कठोर?

मनुष्य का मानसिक स्वास्थ्य एक नाजुक चीज़ है। स्वस्थचित्तता और पागलपन के बीच एक बहुत छोटा अंतर होता है। यदि आप अंतर की इस सीमारेखा को रोज़ धक्का मारते हैं, तो आप उसे कभी पार भी कर लेंगे। आप जब क्रोध में होते हैं, तो हम कहते हैं, "वो गुस्से से पागल हो रहा है" या, "वो अभी पागल हो गया है"। आप उस थोड़े से पागलपन का मजा भी ले सकते हैं। आप थोड़ी देर के लिये सीमा पार करते हैं और एक तरह की स्वतंत्रता और शक्ति का अनुभव करते हैं। पर किसी दिन, अगर आप इसे पार कर के वापस लौट न पायें, तो पीड़ा शुरू हो जाती है। ये शारीरिक दर्द की तरह नहीं है, ये बहुत ज्यादा गहरी पीड़ा है। मैं ऐसे बहुत से लोगों के साथ रहा हूँ, जो मानसिक रूप से बीमार हैं और उनकी सहायता करता रहा हूँ। ऐसा किसी को नहीं होना चाहिये, पर दुर्भाग्यवश अब दुनिया में ये छूत की बीमारी की तरह फैल रहा है।

सुरक्षा जाल से परे जाना

पश्चिमी समाजों में ये बहुत बड़े स्तर पर हो रहा है, और भारत भी बहुत पीछे नहीं है। भारत में, खास तौर पर शहरी इलाकों के लोग इस दिशा में कई तरह से आगे बढ़ेंगे क्योंकि शहरी भारत पश्चिम की अपेक्षा ज्यादा पश्चिमी होता जा रहा है। अमेरिका की तुलना में यहाँ ज्यादा लोग डेनिम पहनते हैं। मानसिक बीमारियाँ, पहले के किसी भी समय की अपेक्षा, अब ज्यादा बढ़ रही हैं क्योंकि हम वे सब सहारे, साथ, सहयोग के साधन खींच कर फेंक रहे हैं जो लोगों के पास थे। पर हम इन सहारों के स्थान पर कुछ भी ला नहीं रहे हैं। अगर लोग अपने आप में चेतन और सक्षम हों तो सब कुछ ठीक रहेगा, भले ही आप सभी सहारों को खींच कर अलग कर दें। पर वो सक्षमता दिये बिना अगर आप सहारे तोड़ देंगे तो लोग टूट जायेंगे।

मानसिक बीमारियाँ, पहले के किसी भी समय की अपेक्षा, अब ज्यादा बढ़ रही हैं क्योंकि हम वे सब सहारे, साथ, सहयोग के साधन खींच कर फेंक रहे हैं, जो लोगों के पास थे। पर हम इन सहारों के स्थान पर कुछ भी नहीं ला रहे हैं।

बहुत लंबे समय से, हम अपनी मानसिक और भावनात्मक स्थिरता के लिये कुछ चीजों पर निर्भर रहे हैं। पर अब, ये सब चीजें ले ली जा रही हैं। इन चीजों में से एक है परिवार। परिवार हमें सहारा देता है - चाहे कुछ भी हुआ हो, कोई न कोई हमेशा आप के साथ खड़ा होता था। जब आप चीजें सही करते हैं तो हर कोई आप के साथ होता है, पर जब आप कुछ गलत करते हैं तो वे सब दूर हो जाते हैं। परिवार ऐसे लोगों का समूह था जो आप के द्वारा किये जा रहे सर्कस के लिये एक सुरक्षा जाल जैसा था। आप चाहे किसी भी तरफ गिरें, कुछ देर के लिये आप को पकड़ने वाला कोई न कोई ज़रूर होता था। लेकिन बहुत से लोगों के लिये वो सुरक्षा जाल अब नहीं है। जब आप गिरते हैं तो गिर ही जाते हैं। इस कारण से लोग टूट रहे हैं।

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भारत की संस्कृति में, एक समय ऐसी परम्परा थी कि कुल आबादी के 30% लोग संन्यासी होते थे। उन्होंने जागरूकतापूर्वक बिना परिवार के रहने का निर्णय लिया था, बिना सहारे के रहने का, बिना घर के रहने का। इसलिये नहीं कि उनके पास साधन नहीं थे, बल्कि इसलिये कि उन्होंने इस विकल्प का चयन किया था। उन्हें कभी भी कोई अवसाद नहीं होता था क्योंकि वे सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता के परे चले गये थे।

अगर आप ने ट्रेपीज़ बार झूले पर झूलना ठीक तरह से सीख लिया है तो आप इसे सुरक्षा जाल के बिना भी कर सकते हैं। पर अगर आप इसे ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं तो बेहतर होगा कि आप सुरक्षा जाल रखें, नहीं तो आप अपना सिर तोड़ लेंगे। यही सब तो हो रहा है। हमारे पास जो पारम्परिक साथ, सहयोग की व्यवस्था थी हम उसे निकाल कर फेंक रहे हैं।

दूसरा पहलू ‘धर्म’ है। मनुष्य के मनोवैज्ञानिक संतुलन को धर्म आसानी से संभाल लेता था। "ईश्वर तुम्हारे साथ है, चिंता मत करो", इसी बात से बहुत सारे लोग शांत, स्थिर हो जाते थे। इस बात के महत्व को कम मत समझिये। आज लोग मनोचिकित्सकों के पास जा रहे हैं। भारत के पास 100 करोड़ लोगों के लिये पर्याप्त संख्या में मनोचिकित्सक नहीं हैं। किसी भी देश में नहीं हैं। और सबसे मुख्य बात - वे बहुत ही अकुशल हैं क्योंकि वे एक समय में एक ही रोगी को देख सकते हैं, और उन्हें बहुत सारे साजो-सामान की ज़रूरत होती है। पूरे सम्मान के साथ, हमें धर्म के इस पहलू को स्वीकार करना चाहिये। ये अत्यंत कम खर्चीली, सभी लोगों को एक साथ संभालने वाली मनोचिकित्सा है।

करण जौहर: :इस सब के लिये आप का धन्यवाद, क्योंकि मैं जानता हूँ कि निश्चित रूप से ये एक बड़ी विपत्ति है जो हम पर आ रही है और जैसा कि मैंने कहा, कुछ लोग मदद लेते हैं। कई बार इसका निदान रासायनिक असंतुलन के रूप में किया जाता है और उसके लिये दवाईयाँ दी जाती हैं। आप ने पहले भी, अपने आप को खोजने तथा अंदर की सुखदता को पाने के बारे में कहा है। तो ऐसी परिस्थितियों में ये हमें किस प्रकार सहायता दे सकता है?

रसायनों का एक आर्केस्ट्रा

सद्‌गुरु: मानव सुखदता को कई अलग-अलग तरीकों से देखा जा सकता है। इसको देखने का एक आसान तरीक़ा यह है कि प्रत्येक मानवीय अनुभव का एक रासायनिक आधार होता है। आप जिसे शांति, खुशी, प्रेम, उथल पुथल, स्वस्थचित्तता, मानसिक पीड़ा, उल्लास आदि कहते हैं, उन सभी का एक रासायनिक आधार होता है। स्वास्थ्य और अस्वस्थता का भी एक रासायनिक आधार होता है। आज दवाईयों का सारा ज्ञान बस रसायनों द्वारा आप के स्वास्थ्य का प्रबंधन करने का प्रयत्न कर रहा है। अब चिकित्सा का काम केवल रसायनों के बैंड का उपयोग कर के स्वास्थ्य का प्रबंधन करना ही रह गया है।

मानसिक अस्वस्थता का प्रबंधन भी ज्यादातर बाहर के रासायनिक पदार्थ दे कर ही किया जा रहा है। लेकिन इस धरती पर आप जितने भी रसायनों के बारे में सोच सकते हैं, वे सब, किसी न किसी प्रकार से, आप के शरीर में उपस्थित ही हैं।

सही चीज़ का पता लगाना

मूल रूप से स्वास्थ्य का अर्थ है सुखदता का एक विशेष स्तर। जब आप का शरीर सुख में होता है तो हम इसे अच्छा स्वास्थ्य कहते हैं। अगर ये बहुत ज्यादा सुखी हो जाता है तो हम इसे प्रसन्नता कहते हैं। अगर आप का मन सुख में होता है तो हम इसे शांति कहते हैं। जब ये बहुत ज्यादा सुखी होता है तो हम इसे परमानंद कहते हैं। अगर आप की भावनायें सुखद हैं तो हम इसे प्रेम कहते हैं। जब ये बहुत ज्यादा सुखद होती हैं तो हम इसे करुणा कहते हैं। जब आप की उर्जायें सुखद होती हैं तो हम इसे आनंद कहते हैं। जब ये बहुत ज्यादा सुखद हो जाती हैं तब हम इसे उल्लास कहते हैं। जब आप के आसपास का वातावरण सुखद हो जाता है तो हम इसे सफलता कहते हैं।

मानव शरीर एक जटिल रासायनिक कारखाना है। इसका प्रबंधन बाहर से करना मुश्किल है। आप इसका अंदर से प्रबंधन कर सकते हैं पर उसके लिये आप की पहुँच अपने अंदर होनी चाहिये।

हम अपने अंदर रसायन डाल कर सुखदता का प्रबंधन करने का प्रयत्न कर रहे हैं। कहा जाता है कि अमेरिका में 70% जनसंख्या दवाओं पर जी रही है। सबसे समृद्ध देश में, जहाँ लोगों के पास पोषण और जीवन पद्धति के इतने सारे विकल्प उपलब्ध हैं, वहाँ 70% लोग पर्चे में लिखी दवाईयों पर अपना जीवन जी रहे हैं। आप अपने मानसिक स्वास्थ्य एवं शारीरिक स्वास्थ्य का प्रबंधन बाहर से रसायन डाल कर कर रहे हैं।

मानव शरीर एक जटिल रासायनिक कारखाना है। इसका प्रबंधन बाहर से करना मुश्किल है। आप इसका अंदर से प्रबंधन कर सकते हैं पर उसके लिये आप की पहुँच अपने अंदर होनी चाहिये। ये योग है जो आप के अंदर धड़क रहे, सृष्टि के स्रोत तक, आप की पहुँच बनाता है। आप की आंतरिक व्यवस्था में इतनी बुद्धिमत्ता है जो चावल के एक दाने को, या एक केले को या रोटी के एक टुकड़े को मनुष्य बना देती है। सोचिये, रोटी के टुकड़े से आप पृथ्वी की सबसे जटिल मशीन बना लेते हैं। इस बुद्धिमत्ता की एक बूंद भी अगर आप के दैनिक जीवन में प्रवेश कर जाये, तो आप जादुई ढंग से जियेंगे।

जगत का सबसे अदभुत इंजीनियर आप के अंदर है। यही वो बात है जिसके आधार पर हम आप को इनर इंजीनियरिंग देते हैं - अपनी आंतरिक व्यवस्था की इंजीनियरिंग कर के अपने जीवन का प्रभार स्वयं लेने का काम! हम जिस तरह से जन्म लेते हैं, जिस तरह से हम जीते हैं, सोचते हैं, महसूस करते हैं और अपने जीवन का अनुभव करते हैं, हम कहाँ पहुंचेंगे और कैसे मरेंगे - यह हर व्यक्ति द्वारा स्वयं ही तय किया जाता है।

Editor’s Note: Excerpted from Sadhguru’s discourse at the Isha Hatha Yoga School’s 21-week Hatha Yoga Teacher Training program. The program offers an unparalleled opportunity to acquire a profound understanding of the yogic system and the proficiency to teach Hatha Yoga. The next 21-week session begins on July 16 to Dec 11, 2019. For more information, visit www.ishahathayoga.com or mail info@ishahatayoga.com