इधर महल में कौरवों और पांडवों के बीच मनमुटाव आक्रामक रूप लेता जा रहा था, उधर काल एक नया अध्याय लिख रहा था। पांडवों की माता का एक और पुत्र था। कौन था वह और क्यों नहीं था वह अपने भाइयों के साथ?

कर्ण कौन था?

बचपन में कुंती ने एक बार दुर्वासा ऋषि का बहुत अच्छे तरीके से अतिथि सत्कार किया था। इससे प्रसन्न होकर, दुर्वासा ने कुंती को एक मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वो किसी भी देवता को बुला सकती थी। एक दिन कुंती के मन में उस मन्त्र को आजमाने का खयाल आया। वह बाहर निकली तो देखा कि सूर्य अपनी पूरी भव्यता में चमक रहे थे। उनकी भव्यता देखकर वह बोल पड़ी – ‘में चाहती हूं, कि सूर्य देव आ जाएं।’

सूर्य देव आए और कुंती गर्भवती हो गयी, और एक बालक का जन्म हुआ। वो सिर्फ चौदह साल की अविवाहित स्त्री थी। उसे समझ नहीं आया कि ऐसे में सामाजिक स्थितियों से कैसे निपटा जाएगा। उसने बच्चे को एक लकड़ी के डिब्बे में रख दिया, और बिना उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचे, उसे नदी में बहा दिया। उसे ऐसा करने में थोड़ी हिचकिचाहट हुई, पर वो कोई भी कार्य पक्के उद्देश्य से करती थी। एक बार वो अगर मन में ठान लेतीं, तो वो कुछ भी कर सकती थी। उसका हृदय करुणा-शून्य था।

अधिरथ को मिला नन्हा कर्ण

धृतराष्ट्र के महल में कम करने वाला सारथी, अधिरथ, उस समय नदी के किनारे पर ही मौजूद था। उसकी नजर इस सुंदर डिब्बे पर पड़ी तो उसने उसको खोलकर देखा। एक नन्हें से बच्चे को देख कर वो आनंदित हो उठा, क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। उसे लगा कि ये बच्चा भगवान की ओर से एक भेंट है। वो इस डिब्बे और बच्चे को अपनी पत्नी राधा के पास ले गया। दोनों आनंद विभोर हो गए। उस डिब्बे की सुंदरता को देखकर वे समझ गए कि ये बच्चा किसी साधारण परिवार का नहीं हो सकता। 

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची।
राजा या फिर रानी ने इस बच्चे को छोड़ दिया है। वे ये तो नहीं जानते थे कि किसने इस बच्चे को ऐसे छोड़ दिया है, पर उसे पाकर वे बहुत खुश थे। क्योंकि इस बच्चे के कारण वे जीवन में पूर्णता महसूस कर रहे थे।उस बच्चे को बाद में कर्ण नाम से जाना गया। वह एक अद्वितीय मनुष्य था। जन्म से ही उसके कानों में सोने के कुंडल और उसके छाती पर एक प्राकृतिक कवच था। वह अद्भुत दिखता था। राधा ने बहुत प्रेम से उसका पालन-पोषण किया। अधिरथ खुद एक सारथी था, इसलिए वह कर्ण को भी रथ चलाना सिखाना चाहता था। पर कर्ण तो धनुर्विद्या सीखने के लिए बेचैन था। उन दिनों, सिर्फ क्षत्रियों को शस्त्रों और युद्ध कला की शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। ये राजा की ताकत को सुरक्षित रखने का एक सरल तरीका था। क्योंकि अगर हर कोई शस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख जाता, तो फिर सभी शस्त्रों का इस्तेमाल करने लगते। कर्ण क्षत्रिय नहीं था, इसलिए उसे किसी भी शिक्षक ने स्वीकार नहीं किया।

द्रोण पहुंचे हस्तिनापुर

द्रोण को अपने शास्त्र देने से पहले, परशुराम ने ये शर्त रखी थी कि वो कभी भी किसी क्षत्रिय को इनके बारे में कुछ नहीं सिखाएंगे। द्रोण ने वचन तो दिया, पर वो सीधे हस्तिनापुर चले गए और क्षत्रियों को शस्त्र सिखाने के लिए राजदरबार में नौकरी कर ली। वे ऐसे ही थे - एक महत्वाकांक्षी मनुष्य। उनके अपने आदर्श थे, उन्हें सभी धर्मों, शास्त्रों, नियमों और ग्रंथों का ज्ञान था, पर पर उनमें रत्ती भर भी कोई नैतिक संकोच नहीं था। वो एक महान शिक्षक थे, पर एक चालाक और लालची मनुष्य भी थे।

द्रोण के हस्तिनापुर आने से पहले, पांडवों और कौरवों को कृपाचार्य युद्ध-कौशल सिखा रहे थे। एक दिन सभी लड़के गेंद से खेल रहे थे। उन दिनों गेंदें रबर, चमड़े या प्लास्टिक की नहीं बनी होतीं थीं। वे ज्यादातर घास-फूस को अच्छे से बांधकर बनाई जाती थी। गेंद गलती से एक कूएं में गिर गयी। उन्होंने गेंद को कूएं में तैरता देखा पर किसी को समझ नहीं आ रहा था कि उसे बाहर कैसे निकाला जाए, क्योंकि कूआं गहरा था और उसमें सीढियां नहीं थीं।

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उसी समय द्रोण उधर से गुजरे और स्थिति को देखते हुए पुछा – ‘क्या तुम लोग क्षत्रिय नहीं हो?’

वे सब बोले – ‘हम क्षत्रिय ही हैं।’

‘तो क्या तुम में से किसी को धनुर्विद्या नहीं आती।’

अर्जुन बोला – ‘हां, मैं एक धनुर्धर हूं, और मैं इस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना चाहता हूँ।’

द्रोण ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोले – ‘अगर तुम धनुर्धर हो, तो तुम इस गेंद को बाहर क्यों नहीं निकाल पा रहे?’

उन्होंने पुछा – ‘तीरों का इस्तेमाल करके हम गेंद को कुएं से बाहर कैसे निकाल सकते हैं?’

द्रोण ने कहा – ‘में दिखाता हूं।’

भीष्म पितामह ने द्रोण को बनाया राजगुरु

द्रोण ने घास के एक सीधे तिनके को उठाया और उसे गेंद की ओर चला दिया। वो घास गेंद में घुस गई। उसके बाद द्रोण ने एक के बाद एक घास के टुकड़े चलाये, जिनसे कि एक तार बन गयी और उसका इस्तेमाल करके द्रोण ने गेंद को बाहर निकाल दिया। वे लड़के द्रोण की कला को देखकर हैरान हो गये। ये सब किसी जादू की तरह था। उन्होंने द्रोण से ये कला सिखाने के लिए कहा। द्रोण ने उनसे कहा कि वो तब तक उन्हें नहीं सिखा सकते, जब तक कि वे उनको अपना गुरु स्वीकार नहीं कर लेते। वे सभी लड़के द्रोण को भीष्म पितामह के पास ले गये। भीष्म पहचान गए कि वो कौन हैं - वे जानते थे कि द्रोण कौन हैं और वे उनकी प्रतिभा के प्रशंसक थे। भीष्म ने उन्हें राजगुरु बना दिया – मतलब भावी राजाओं के गुरु।

फिर द्रोणाचार्य के साथ प्रशिक्षण शुरू हो गया, और इसके साथ कौरवों और पांडवों के बीच प्रतिस्पर्धा भी शुरू हो गयी। कुछ ही सालों के प्रशिक्षण के बाद, वे सभी महान योद्धा बन गए। भाले के साथ युद्ध लड़ने में युधिष्ठिर सबसे अच्छे थे। गदा युद्ध में भीम और दुर्योधन एक बराबर थे। वे दोनों लड़ते लड़ते थक जाते थे, पर कोई किसी को हरा नहीं पाता था। अर्जुन सबसे अच्छे धनुर्धर थे। नकुल और सहदेव तलवारबाज़ी और घुड़सवारी के महारथी थे।

कर्ण को अस्वीकार किया द्रोण नें

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची। भेदभाव और अपमान का बारबार सामना करने की वजह से एक सीधा-सच्चा इंसान एक अधम इंसान में बदल गया। जब भी कोई उसे सूतपुत्र कहता, तो उसकी अधमता इतनी ऊँची उठ जाती, जितनी कि उसकी प्रकृति में नहीं था। द्रोण द्वारा क्षत्रिय न होने के कारण अस्वीकार किये जाने पर, कर्ण ने परशुराम के पास जाने का फैसला किया। परशुराम युद्ध कलाओं के सबसे महान शिक्षक थे।

तो क्या परशुराम ने कर्ण को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया? परशुराम को क्या कर्ण ने अपनी वास्तविकता बताई थी? क्या हुआ फिर कर्ण के धनुर्धर बनने की इच्छा का?

जारी ...