सद्गुरुपिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा कि ऐसा क्या है जिसे कृष्ण धर्म मानते हैं। एक ओर जहां कृष्ण ने एक विनम्र इंसान के धर्म को कायरता बता कर वापस भेज दिया, वहीँ दूसरी ओर ईसा अपने उपदेशों में विनम्र इंसान को धन्य बताते हैं। क्यों है इन उपदेशों में इतना भेद?

प्रश्‍न:

सद्‌गुरु, जब उस विनम्र आदमी ने कृष्ण के पास आकर बताया कि वह अपने धर्म को किस तरह से देखता है - वह हर उस चीज को पूरी तरह से स्वीकार कर लेता है, जिससे उसका सामना होता है, तो कृष्ण ने उसके धर्म को कायरता कहा; जबकि ईसा का कहना है, “विनम्र इंसान धन्य हैं। यह धरती उन्हें मिलेगी।” कृष्ण और ईसा की बातों में यह अंतर क्यों है ?

सद्‌गुरु:

एक बात आपको हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि मैं कृष्ण के जीवन की सभी कहानियों को इसलिए विस्तार से सुना रहा हूं, ताकि आप कृष्ण को सही संदर्भ में देख सकें और समझ सकें। यह हमेशा बहुत महत्वपूर्ण होता है कि हम उस समाज की, जिसमें वो लोग रहते थे, हकीकत और हालात को समझें, तभी हम समझ पाएंगे कि जो कुछ उन्होंने कहा, वो क्यों कहा।
किसी भी शिक्षा या ज्ञान का एक पहलू ऐसा होता है, जिसकी प्रकृति हमेशा एक सी रहती है। उस पहलू के बारे जो भी बात करेगा, एक ही तरह से करेगा। लेकिन शिक्षा या ज्ञान का एक दूसरा पहलू भी होता है जिसका संदर्भ उन लोगों के लिए होता है, जो उस समय वहां मौजूद होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इसका संदर्भ बदलता है और इसलिए इसकी प्रासंगिकता भी बदलती रहती है। इतना ही नहीं, हर समाज के लिए, हर समुदाय के लिए, यहां तक कि हर इंसान के लिए इसकी प्रासंगिकता बदल जाती है, इसके मायने बदल जाते हैं। हर किसी के लिए यह एक अलग तरह का सत्य होता है। तो अगर हम कृष्ण या ईसा की शिक्षाओं के इस पहलू को समझना चाहते हैं, तो हमें उनके समय के सामाजिक माहौल और स्थिति को समझना और उसके साथ अपनी सामाजिक परिस्थितियों को जोडक़र देखना होगा, जिनमें हम आज जी रहे हैं।
ईसा ने विनम्र होने की बात कही थी। उन्होंने कहा था, “अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम दूसरा गाल भी आगे कर दो।” दरअसल, यह बात उन्होंने अपनी बेहद नजदीकी शिष्यों से उस वक्त कही थी, जब वे उनके संदेशों को आम लोगों के बीच फैलाने जा रहे थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था – “जब तुम मेरे संदेश को लेकर दूसरों के पास जाओगे और लोग तुम्हें एक गाल पर थप्पड़ मारें तो तुम अपना दूसरा गाल भी आगे कर देना।” लेकिन यह सीख आप सब के लिए नहीं है। क्या आप इस शिक्षा का पालन करते हुए जिंदगी चला सकते हैं? आप में से ऐसे कितने लोग हैं जो अपने जीवन में ऐसा कर सकते हैं? आप यह कर ही नहीं सकते।
शायद आपको पता हो, ध्यानलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करने से पहले मैं ब्रह्मचारियों से कहा करता था, “अगर आप बाहर जाएं और कोई आपके मुंह पर थूक भी दे तो आप उसे पोंछ कर मुस्कुराते हुए आगे चल दें। इसके अलावा आप कुछ न करें।” लेकिन अब मैं उनसे कहता हूं कि अगर कोई आपसे बकवास करे तो दृढ़ता से उसका जवाब दें। आपको किसी की भी बकवास सुनने की जरूरत नहीं है। यह मैं इसीलिए नहीं कह रहा हूं कि दुनिया के प्रति मेरा नजरिया बदल गया है, बल्कि दुनिया में अब मेरी भूमिका बदल गई है। क्या इसमें कोई विरोधाभास है? नहीं, कोई विरोधाभास नहीं है, क्योंकि आप जिन हालातों में रह रहे हैं, आपको उनके अनुसार ही बर्ताव करना चाहिए, जिससे आप अपने आपको और प्रभावशाली बना सकें।

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अलग-अलग सामाजिक हालात

कृष्ण बिल्कुल ही अलग तरह के सामाजिक हालातों में रहते थे। वह अलग-अलग लोगों से अलग-अलग तरह से बातें करते थे। अब अगर आप विनम्रता वाले पहलू को देखें तो आपको वह बिल्कुल उल्टा लगेगा। इसी तरह से कोई उस भक्ति के बारे में बात कर सकता है, जो कृष्ण ने कही थी। अगर आप भक्ति या समर्पण के बारे में कृष्ण की बातों पर गौर करें, तो वे आपको बिलकुल ईसा की बातों जैसी ही लगेंगी। लेकिन बाकी मामलों में वह बिल्कुल अलग थे।
दूसरी बात हमें यह समझनी होगी कि ईसा के सामने सामाजिक बंधन और रूकावटें बहुत ज्यादा थीं। उन्हें बोलने तक की आजादी नहीं थी। ईसा ने अपना ज्यादातर जीवन भगोड़े की तरह जिया। यहां-वहां वह लोगों के छोटे-छोटे समूहों से ही बात कर पाते थे। अगर वह एक भी शब्द ज्यादा बोलते तो उनकी जिंदगी को खत्म कर दिया गया होता, और ऐसा ही हुआ भी। जैसे ही उन्होंने थोड़ी रफ़्तार पकड़ी, आपको पता ही है उनके साथ क्या सलूक किया गया। दूसरी ओर कृष्ण खुद एक राजा थे और उनके दोस्त भी राजा-महाराजा थे। वो किसी को राजा बना भी सकते थे। वह अपने मकसद को पूरा करने के लिए बड़ी सेना बुला सकते थे। उनकी परिस्थितियां बिल्कुल ही अलग थीं।

इश्वर से एकरूपता

जब उस शाश्वत-सत्ता तक पहुंचने की बात आती है तो ईसा ने बस भक्ति-योग की ही बात की, और कुछ नहीं कहा। क्योंकि यही उनका तरीका था। वह परम सत्ता तक पहुंचने के लिए बस एक ही आयाम के बारे में कहा करते थे। उन्होंने बस यही कहा – “मेरा अनुसरण करो।” इसे ही भक्ति कहते हैं। कृष्ण ने भी यही बात कही – “मैं ही उस परम सत्ता तक पहुंचने का रास्ता हूं।” मेरे हिसाब से ईसा ने कुछ इस तरह से कहा था – “मैं ही ईश्वर तक पहुंचने रास्ता हूं, मैं ही सत्य हूं और मैं ही जीवन भी हूं। बिना मेरे ईश्वर तक कोई नहीं पहुंच सकता है।” फिर बाद में किसी और जगह पर उन्होंने कहा- “मैं और मेरे पिता यानी ईश्वर एक ही हैं।” दुनिया के उस हिस्से में इस तरह की बात कहना पवित्र धर्म का अपमान समझा जाता था। अगर कोई यह कहे, “मैं और मेरा ईश्वर एक ही हैं” तो इसका मतलब वो ये कहना चाहता है, - “मैं ही भगवान हूं।” और उस समाज में ऐसा कहने वाले को मौत की सजा दे दी जाती थी।

लेकिन यहां भारत में ऐसा नहीं होता था, क्योंकि यहां न जाने कितने योगियों ने इस तरह की बात कही है, ऐसे योगियों को यहां लोग भगवान मानकर उनकी पूजा करते थे, क्योंकि उनमें लोगों को ईश्वरीय अनुभूति होती थी। ऐसे में कृष्ण का यह कहना कि मैं ही अनंत, श्रेष्ठ हूं, मैं ही ईश्वर हूं, लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। इसे धर्म का अपमान नहीं माना गया। उनका यह कथन अपवित्र इसीलिए भी नहीं था, क्योंकि इस तरह की बात लोग समझ सकते थे। लोग तो बड़े खुश हुए कि उनके जीते जी कृष्ण इस धरती पर आए।
न जाने कितने योगियों ने भी ऐसा कहा था। इनमें कई तो जाने-माने योगी थे और कुछ छोटे योगी भी। छोटे से मेरा मतलब समाज में उनकी लोकप्रियता से है। ये लोग अपने आप में तो महान थे, लेकिन दुनिया में सामाजिक तौर पर उतने लोकप्रिय नहीं हुए। ऐसे लोग भी भगवान की तरह ही पूजे गए। लेकिन ईसा का यह कहना “मैं और मेरे पिता यानी ईश्वर एक ही हैं” - उस संस्कृति में बिल्कुल ही अलग बात थी। उनका यह कहना उनकी मौत की वजह बन गया। लोगों ने कई बार कृष्ण को भी मारने की कोशिश की, लेकिन वे बड़े चतुर थे। खास बात यह है कि उनकी शिक्षाओं के कारण कभी किसी ने उन्हें मारने की कोशिश नहीं की। लोग उन्हें राजनैतिक कारणों से, सत्ता और सैन्य मामलों में दखल देने की वजह से मारने की कोशिश करते थे, न कि उनकी कही गई बातों की वजह से।