Sadhguruयुद्ध का देवता कहे जाने वाले कार्तिकेय ने दक्षिण भारत में अगस्त्य ऋषि की काफी मदद की थी। क्या कारण था कि शिव पुत्र कार्तिकेय कैलाश छोड़कर दक्षिण की तरफ चल पड़े?

शिव के पुत्र कार्तिकेय के बारे में चमत्कारी बात यह थी कि वह एक महान प्रयोग से जन्मे थे, जिसमें छह जीवों को एक शरीर में जीवन दिया गया था। पहले भी इस तरह के कई प्रयोग हुए हैं, जहां एक ही शरीर में दो योगी रहते थे। वे अलग-अलग भाषाएं बोलते थे और उनके अस्तित्व का तरीका भी अलग होता था। यह कैसे हुआ, इसके बारे में एक लंबी-चौड़ी कहानी है।

हालांकि शिव को पौरुष का प्रतीक माना जाता है, मगर उनकी कोई संतान नहीं थी। कहा जाता है कि कोई स्त्री उनके बीज को अपने गर्भ में धारण नहीं कर सकती थी। इसके कारण, उन्होंने अपना बीज एक हवन कुंड में डाल दिया। हवन कुंड का मतलब जरूरी नहीं है कि आग का कुंड। वह एक ‘होम कुंड’ होता है। होम कुंड ऋषियों के लिए एक प्रयोगशाला की तरह था, जहां वे कई चीजों को उत्पन्न करते थे।

कृतिकाओं ने धारण किया शिव का बीज

होम कुंड से, छह कृतिकाओं ने शिव का बीज अपने गर्भ में धारण किया। ये कृतिकाएं अप्सराएं या कहें गैर इंसानी प्राणी थीं। वे इस धरती की नहीं थीं और उनकी क्षमता बहुत उच्च स्तर की थी। इसलिए शिव का बीज इन छह कृतिकाओं ने धारण किया। उन्होंने साढ़े तीन महीने तक उस बीज को गर्भ में धारण रखा, उसके बाद जीवन आकार लेने लगा और छह भ्रूण विकसित हुए। इसके बाद कृतिकाओं को लगा कि यह बीज उनके लिए कुछ ज्यादा गर्म है और वे उसे और ज्यादा समय तक धारण नहीं कर सकतीं। चूंकि ये कृतिकाएं मुख्य रूप से एक आयाम से दूसरे आयाम में भ्रमण करती रहती थीं, इसलिए उनमें सृष्टि के किसी खास अंश के प्रति जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी। इसलिए, जाते समय उन्होंने इन बच्चों को अपने गर्भ से बाहर निकाल दिया। उस समय वे बीज से थोड़ी ज्यादा विकसित अवस्था में थे। फिर वे चली गईं।

कार्तिकेय का जन्म

पार्वती खुद शिव के बच्चे को जन्म नहीं दे पाई थीं, इसलिए वह इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। उन्होंने इन छह अल्पविकसित बच्चों को कमल के पत्तों में लपेटकर उनके विकास की स्थिति पैदा करने की कोशिश की। वह देख सकती थीं कि अलग-अलग उनके बचने की संभावना बहुत कम है क्योंकि वे पूर्ण विकसित नहीं थे। मगर उन्हें यह लगा कि इन छह भ्रूणों में छह शानदार गुण हैं। पार्वती ने सोचा, ‘अगर ये सभी गुण किसी एक पुरुष में हो, तो वह कितना अद्भुत होगा।’ अपनी तांत्रिक शक्तियों के जरिये उन्होंने इन छह नन्हें भ्रूणों को एक में मिला दिया। उन्होंने एक ही शरीर में छह जीवों को समाविष्ट कर दिया, जिसके बाद कार्तिकेय का जन्म हुआ। आज भी, कार्तिकेय को ‘अरुमुगा’ या छह चेहरों वाले देवता की तरह देखा जाता है। वह एक अद्भुत क्षमता वाले इंसान थे। 8 साल की उम्र में ही वह एक अजेय योद्धा बन गए थे।

एक बार ऐसा हुआ कि गणपति और कार्तिकेय में एक छोटी सी झड़प हो गई। कार्तिकेय को अपने वाहन, तेजी से उड़ने वाले मोर, पर बहुत गर्व था। दोनों में बहस छिड़ गई। फिर उन्होंने आपस में एक प्रतियोगिता करने का फैसला किया कि कौन सबसे तीव्र गति से दुनिया का चक्कर लगा सकता है। जो भी जीतेगा, उसे मां-बाप से एक खास तरह का आम मिलेगा।

हालांकि शिव को पौरुष का प्रतीक माना जाता है, मगर उनकी कोई संतान नहीं थी। कहा जाता है कि कोई स्त्री उनके बीज को अपने गर्भ में धारण नहीं कर सकती थी। इसके कारण, उन्होंने अपना बीज एक हवन कुंड में डाल दिया। हवन कुंड का मतलब जरूरी नहीं है कि आग का कुंड।

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प्रतियोगिता शुरू हुई। कार्तिकेय अपने मोर पर उड़ चले। उन्होंने पूरी दुनिया का चक्कर लगाया मगर जब वह लौटे तो देखकर हैरान रह गए कि गणपति वहीं बैठे थे। उन्हें ईनाम मिल चुका था, वह उस आम को खाकर उसका आनंद भी ले चुके थे। अब वह धूप में बैठे सुस्ता रहे थे।

कार्तिकेय क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने माता-पिता से पूछा, ‘यह कैसे संभव है? मैं दुनिया का चक्कर लगा आया, जबकि इसने अभी चक्कर लगाना शुरू भी नहीं किया। फिर आपने इसे आम कैसे दिया?’ दरअसल गणपति ने शिव और पार्वती के तीन चक्कर लगा लिए थे। गणपति बोले, ‘मेरे लिए, मेरी पूरी दुनिया आप लोग ही हैं। मेरे लिए इतना काफी है, उसे दौड़ने दीजिए।’ शिव चीजों को वास्तविक रूप में समझने की गणपति की विशेषता को देखकर मुस्कुराते हुए बोले, ‘यह रहा आम, पुत्र। तुम इसके लायक हो।’

मगर कार्तिकेय को यह एक बड़ा अन्याय लगा, इसलिए वह इसे लेकर बहुत गुस्से में थे। पार्वती ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि कुछ चीजें ‘वस्तुपरक’ और कुछ ‘व्यक्तिपरक’ होती हैं, सभी अनुभव व्यक्तिपरक होते हैं। वस्तुएं सिर्फ व्यक्तिपरक अनुभव पैदा करने के लिए होती हैं। अपने आप में उनकी कोई अहमियत नहीं है। इसलिए गणपति ने बस अपने माता-पिता का चक्कर लगाया क्योंकि उनके अंदर यह समझदारी थी कि ‘मेरे माता-पिता मेरी दुनिया हैं, इसलिए मैं उनके ही चक्कर लगा लेता हूं।’ मगर कार्तिकेय को अपनी मां की कोई बात समझ नहीं आई और उन्होंने घर छोड़ दिया। वह अपने पिता से दूर चले जाना चाहते थे।

अगस्त्य मुनि की सहायता की कार्तिकेय ने

वह गुस्से में दक्षिण भारत चले आए और एक योद्धा बन गए। वह कई रूपों में एक बेमिसाल योद्धा थे। उन्होंने दक्षिण में कई युद्ध जीते, मगर उन्होंने राज करने के लिए युद्ध नहीं जीता। उन्हें लगता था कि उनके माता-पिता ने उनके साथ अन्याय किया, इसलिए वह न्याय स्थापित करना चाहते थे। वह किसी आंदोलनकारी या क्रांतिकारी की तरह थे। इसलिए जहां भी उन्हें अन्याय नजर आता था, वहां वह युद्ध छेड़ देते थे। अपने गुस्से में वह छोटी से छोटी चीज को बड़ा अन्याय मान लेते थे और बहुत से लोगों को उन्होंने मौट के घाट उतार दिया। उन्होंने एक के बाद एक लड़ाइयां लड़ीं और दक्षिण की ओर चलते गए।

एक अच्छा काम उन्होंने किया - अगस्त्य की मदद की। अगस्त्य दक्षिण में आध्यात्मिकता लेकर गए थे। जहां भी अगस्त्य को विरोध का सामना करना पड़ा, वहां कार्तिकेय ने युद्ध लड़ा। अगस्त्य ने ही उन्हें युद्ध कौशल सिखाया और अगस्त्य ने ही उनके गुस्से को ज्ञानप्राप्ति के एक साधन के रूप में बदल दिया।

कहानी कुमार पर्वत की : भगवान कार्तिकेय की महासमाधि

कार्तिकेय को आखिरकार सुब्रह्मण्य नामक जगह पर आराम मिला। वह युद्ध से ऊब गए थे। उन्हें समझ आ गया था कि हजार सालों तक लड़ने के बाद भी इस तरह से दुनिया को बदला नहीं जा सकता। एक समाधान दस और समस्याएं पैदा कर देगा। इसलिए उन्होंने सारी हिंसा छोड़ दी, और अंतिम बार, अपने तलवार को कर्नाटक के ‘घाटी सुब्रह्मण्य’ में साफ किया। उन्होंने कुछ समय तक वहां ध्यान किया। फिर पहाड़ पर चले गए, जिसे आज ‘कुमार पर्वत’ के नाम से जाना जाता है। कर्नाटक में, सुब्रह्मण्य को कुमार के रूप में जाना जाता है। कुमार का मतलब है पुत्र। शिव मुख्य देवता हैं और कुमार पुत्र हैं, इसलिए उस पहाड़ को कुमार पर्वत के नाम से जाना जाता है। उन्होंने उसके शिखर पर खड़ी मुद्रा में महासमाधि ली।

योग परंपरा में, एक बार जब योगी अपने जीवन के काम को पूरा कर लेते हैं, तो वे अपनी इच्छा से शरीर को छोड़ देते हैं। यह आत्महत्या नहीं है, यह बस शरीर का त्याग है। ज्यादातर योगी बैठकर अपना शरीर छोड़ते हैं। यदि किसी वजह से शरीर इस बात की इजाजत नहीं देता, तो वे करवट के बल लेटते हुए ऐसा करते हैं। मगर चूंकि कार्तिकेय एक महान योद्धा थे, उन्होंने खड़े-खड़े अपना शरीर त्याग दिया।

आम तौर पर, लोग सुब्रह्मण्य के मंदिर में बस जाकर लौट आते हैं। मंदिर में कुछ खास नहीं है, मगर वह पर्वत बिल्कुल अलग है। वह शिखर प्राकृतिक दृश्यों के लिहाज से बहुत खूबसूरत जगह है और चोटी तक पहुंचने के लिए 15-20 किलोमीटर पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है। कई साल पहले, मैं लोगों के एक समूह के साथ वहां गया था और हमने चोटी तक का तीन-चौथाई रास्ता तय करने के बाद रात भर के लिए डेरा डाल दिया। हम अगली सुबह चोटी तक जाने वाले थे।

जब हमने डेरा डाला, तो हमने सोने के लिए एक छोटा सा तंबू तान लिया। मगर मैं वहां बैठ भी नहीं पा रहा था। मेरा शरीर अपने आप खड़ा हो जा रहा था, जिससे तंबू गिर जाता था। पूरी रात, मैं बस खड़ा रहा। वह जगह इतनी शक्तिशाली है।

उस जगह की ऊर्जा बेहद प्रबल और शक्तिशाली है। वह बिल्कुल एक अलग ही दुनिया है। अगर आप संवेदनशील हैं, तो वह आज भी आपको जड़ से हिला कर रख देता है। जब हमने डेरा डाला, तो हमने सोने के लिए एक छोटा सा तंबू तान लिया। मगर मैं वहां बैठ भी नहीं पा रहा था। मेरा शरीर अपने आप खड़ा हो जा रहा था, जिससे तंबू गिर जाता था। पूरी रात, मैं बस खड़ा रहा। वह जगह इतनी शक्तिशाली है।

यह अनोखी घटना 15,000 साल से भी पहले हुई थी। हमें निश्चित तिथि नहीं मालूम, मगर वह जगह और उन्होंने वहां जो कुछ छोड़ा, वे अब भी जीवंत हैं। इस पर्वत शिखर पर, छोटे-छोटे कुदरती पत्थर हैं, जो सब छह चेहरों की तरह तराशे हुए हैं। इन पत्थरों को ‘शंमुख लिंग’ कहा जाता है। इतने सालों से, उनकी ऊर्जा वहां स्पंदित हो रही है कि पत्थरों ने भी धीरे-धीरे खुद को छह चेहरों का आकार दे दिया है।

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महाशिवरात्रि - एक रात शिव के साथ