सद्‌गुरु बहुत से लोगों के लिए, बहुत अलग-अलग तरह से मायने रखते हैं – गुरु, दिव्यदर्शी, योगी, मित्र, बहुत से जाने-अनजाने विषयों के सलाहकार, कवि, आर्किटेक्ट...जाने कितने चेहरे, और कितने ही आयाम! परंतु वे एक पिता और पति भी हैं।

आध्यात्मिक जागरण अनुभव के दो वर्ष बाद, उनकी भेंट अपनी पत्नी विजयकुमारी से हुई, जिसे स्नेह से विज्जी कह कर बुलाया जाता है। उनकी पहली भेंट, मैसूर में एक लंच के दौरान हुई, जहाँ वे एक अतिथि के रूप में गए थे। इसके बाद उनके बीच कुछ समय के लिए बहुत ही हार्दिक पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। सन् 1984 की महाशिवरात्रि के शुभ अवसर पर, वे विवाह बंधन में बंध गए। सद्‌गुरु की योग कक्षाओं की दिनचर्या ज़ोरों पर थी और वे कार्यक्रमों के आयोजन के लिए पूरे दक्षिण भारत के दौरों पर रहते। विज्जी एक बैंक में काम करती थीं, वे भी अक्सर कार्यक्रमों में अपना सहयोग देने के लिए उनकी मोटरसाइकिल पर उनके साथ जातीं थीं।

1990 में, सद्‌गुरु और विज्जी के घर एक प्यारी सी बिटिया, राधे का जन्म हुआ। सद्‌गुरु बताते हैं, “विज्जी माँ बनना चाहती थी। उसे लगता था कि मातृत्व का अनुभव किसी भी स्त्री के जीवन का सबसे अहम अनुभव होता है।”. दरअसल जब मैं करीबन उन्नीस साल का था, तब मेरे मन में शादी करने या परिवार बसाने का कोई ख़्याल तक नहीं था, उन्हीं दिनों मैं ऋषि वैली स्कूल गया, यह उन्हीं स्कूलों में से था, जिनकी स्थापना जे. कृष्णमूर्ति के हाथों हुई थी। मैंने सोचा, ‘अगर कभी मेरी कोई संतान हुई, और जाने कैसे मेरे मन में एक बेटी का ही ख़्याल आया, तो मैं उसे (बिटिया को) पढ़ने के लिए यही भेजूँगा। फिर राधे के जन्म से करीब पाँच वर्ष पूर्व, मैं और विज्जी कलाक्षेत्र गए ((भारतीय शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा के लिए श्रेष्ठ संस्थानों में से एक), जब हमने उसे देखा तो कहा, “अगर हमारे घर बिटिया का जन्म हुआ, तो उसे यहाँ ज़रूर भेजेंगे।” उसके बाद मैंने इस बारे में कभी गौर ही नहीं किया। “और फिर, मेरी बिटिया आठ साल तक ऋषि वैली स्कूल में रही और फिर उसने चार साल कलाक्षेत्र में बिताए, अब वह एक नर्तकी बन गई है।”

ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, सद्‌गुरु ने अपना पूरा ध्यान ध्यानलिंग को पूरा करने में लगा दिया, और विज्जी भी पूरी आत्मीयता के साथ इस प्रक्रिया का अंग बन गईं। सद्‌गुरु कहते हैं, “1996 में, जुलाई का महीना था, हम ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा करने जा रहे थे। विज्जी ने तय कर लिया था कि लिंग का कार्य संपूर्ण होते ही, वह अपनी देह का त्याग कर देगी। उसने घोषणा कर दी कि वह एक निश्चित पूर्णिमा को इस संसार से विदा लेगी, उसने इस दिशा में कार्य करना आरंभ कर दिया। मैंने उससे बात करनी चाही, “अभी इसकी ज़रूरत नहीं, कुछ समय और प्रतीक्षा कर लो।” परंतु उसने कहा, “इस समय, मेरा जीवन संपूर्ण है, बाहर और भीतर, कोई अभाव या कमी नहीं। मेरे लिए यही उचित समय है। मैं नहीं जानती कि जीवन में ऐसा समय दोबारा कब आएगा।”

कुछ कारणों से हम लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा का काम उस समय पर पूरा नहीं कर सके। तो उस पूर्णिमा को, वह कुछ लोगों के साथ ध्यान की अवस्था में बैठी। आठ मिनट बाद, उसने बिना किसी प्रयत्न के, सहज भाव से, मुस्कुराते हुए अपने प्राण त्याग दिए। उसका स्वास्थ्य उत्तम था और उस समय वह केवल तैंतीस साल की थी। शरीर को बिना कोई हानि पहुँचाए, इस तरह संसार से जाना आसान नहीं होता। अपने शरीर को उसी तरह त्याग देना, जिस तरह हम कपड़े बदल देते हैं, यह कोई साधारण बात नहीं है। जब कोई व्यक्ति जीवन में ऐसे बिंदु पर आ जाता है, जहाँ आ कर उसे लगता है कि उसे जो भी चाहिए था, वह सब पूरा हो गया है, और जीवन में देखने के लिए कुछ नहीं रहा, तो वह अपनी मर्जी से शरीर का त्याग कर देता है। अगर कोई भी संघर्ष या चोट होती है, तो इसका मतलब है कि उसने आत्महत्या की है। जब कोई संघर्ष न हो, और कोई इसी तरह संसार को छोड़ दे, जिस तरह हम कमरे से बाहर आ जाते हैं, तो इसे महासमाधि कहते हैं।

जब कोई व्यक्ति इस तरह संसार से विदा लेता है, तो वह नहीं रहता। जब कोई मर जाता है तो हम उसके लिए इस वाक्य का प्रयोग करते हैं, “वह नहीं रहा।”, पर वह सच नहीं है। वह बस उन अर्थों में नहीं रहता, जिनमें आप उसे जानते थे। पर जब कोई व्यक्ति पूरी सजगता के साथ अपनी देह का त्याग करता है, अपने शरीर को बिना किसी हानि या कष्ट के छोड़ता है, तो वह व्यक्ति सही मायनों में नहीं रहता। उस व्यक्ति का अस्तित्व ही अब नहीं रहा। वह तो कहीं विलीन हो गया, खेल ख़त्म हो गया, पूरी तरह से, हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

सभी आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए, महासमाधि ही परम लक्ष्य है - चैतन्य में हमेशा-हमेशा के लिए लीन हो जाना ही उनकी साधना का चरम है।