टेनेसी में आईआईआई में 90 दिवसीय अनादी कार्यक्रम के दौरान, बहुत सारे उमंग से भरे लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने अपनी साधना को एक अलग स्तर पर ले जाने के लिए एक अद्भुत प्रयास किया। हमने उन आयामों की खोज की जो केवल असामान्य नहीं हैं - उस से भी बहुत गहरे हैं। अनादी कार्यक्रम के दौरान गुरु पूर्णिमा का उत्सव भी मनाया गया।

मेरे जीवन का सबसे प्रमुख कारक(अंश या हिस्से) सिर्फ मेरे गुरु रहे हैं। आज भी मेरे मन में - मेरे मन से भी ज्यादा मेरे शरीर के हर अंग में और मेरे तंत्र में उठने वाली हर तरंग में - यह सिर्फ उनकी मौजूदगी ही है जो मेरे भीतर सबसे प्रभावशाली है। शायद इसी वजह से, मेरी पूरा तंत्र जिस तरह से गुंजायमान है, उसकी वजह मैं नहीं, बल्कि मुझसे बहुत परे की कोई वस्तु है।

मैंने अपने गुरु को एक ऐसे आदमी के रूप में नहीं देखा जिसने मुझे छुआ था, हालांकि उनका स्पर्श मुझे अनुभव के उच्चतम स्तर तक ले गया था, और उनके स्पर्श से जीवन और उसके परे के रहस्यों से पर्दा उठ गया था। फिर भी, मेरे भीतर की पुरानी धारणाएं उसे स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी, क्योंकि वह अनुभव मुझे स्वयं शिव से नहीं मिला था। मेरे गुरु करुणावश खुद शिव के रूप में बदल गए। मुझे नहीं पता कि उन्होंने खुद अपने आपको उस रूप में बदला था - या वे उस समय वास्तव में वैसे ही थे। लेकिन तब से, मैं एक ऐसी भीतरी स्थिति में हूँ, जहां मुझे कुछ भी जानने का प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती। मैं जो भी कुछ जानना चाहता हूँ, वो सहज ही मेरे गुरु के रूप में उपलब्ध होता है।

गुरु पूर्णिमा पर, 5 से 10 मिनट के भीतर मैंने ये पाँच छोटी कविताएं लिखीं। मैं शब्दों का एक महान रचनाकार नहीं हूँ, और किसी भाषा पर महारत न होने के बावजूद, मैंने कृपा या अनुग्रह के माध्यम से, उस चीज़ को अभिव्यक्त किया जो उन पलों में घटित हो रही थी।

मेरे गुरु

अपनी समझ और धुंधली नज़र
से नहीं भेद पाया मैं जब लक्ष्य को,
तभी वे आए मेरे जीवन में 
एक निर्दयी सम्राट की तरह,
और अपनी तिरछी छड़ी से,
छोड़ गए अपना निशान मुझ पर।

पराजित। जीवन और मृत्यु दोनों ही से पराजित। जीवन और मृत्यु दोनों से ही गुज़र कर, न हो पाई मेरे भीतर हलचल कोई। तब आया मेरे पास, हाथों में छड़ी लिए एक सक्षम शरीर वाला मनुष्य। जन्म और मृत्यु दोनों को ही देख लिया, और देख ली वे सभी चीज़ें जो दे सकता है जीवन। 
पर था बैठा तब भी भौंचक्का, कि तभी आया हाथों में छड़ी लिए एक मनुष्य, और कर दिया उस छड़ी से बिजली का वार मुझ पर। 

पूरी दुनिया गुज़र गई 
मेरे आँखों के सामने से,
अध्यात्म और भौतिकता की दुनिया,
और दुनिया धरती और आकाश की भी। 

खोजा मैंने माँ के गर्भ में,
और प्रेमी के आँचल में भी।
पर न मिला ऐसा कोई,
जब तक न पहुंचा मैं उनके पास,
रेंगते हुए किसी कीड़े की तरह। 

बेचारा गुरु कर ही क्या सकता है?
हरदम बस मैं कुछ न कुछ करता ही रहा। 
जब देख लिया मैंने वो सब,
जो देखा जा सकता है।
वे आए मुझे ये सिखाने कि 
हुआ कैसे जाता है। 

सांस जो बाहर जाती है,
फिर लौट कर नहीं आती। 
वे गुरु जिन्होंने मुझे छुआ 
और चल दिए,
वे मुझसे दूर गए ही नहीं,
और न ही है उन्हें जरुरत,
फिर लौट कर आने की।