ईशा फाउंडेशन द्वारा नवरात्रि उत्सव के दौरान 9 से 13 अक्टूबर तक ईशा योग सेंटर में हैंड्स ऑफ ग्रेस नामक एक हस्तशिल्प मेला आयोजित किया जा रहा है। यहां पचास स्टाल लगाए जाएंगे जिनमें बेहतरीन किस्म की हजारों हाथ से बनी कलाकृतियों का प्रदर्शन किया जाएगा। इसमें फर्नीचर, घर सजावट की चीजें, कपड़े, ऑर्गेनिक बॉडी केयर प्रॉडक्ट्स, पत्थर और धातुओं की बनी कलाकृतियां, ऐक्सेसरीज और गिफ्ट आइटम्स जैसी चीजें शामिल होंगी। ये सभी सामान भारत की हस्तशिल्प और हस्तकलाओं की शानदार परंपरा की झलक दिखाने वाले होंगे। हैंड्स ऑफ ग्रेस, एक अनोखी कोशिश है ईशा फाउंडेशन की, जो चाहता है भारतीय हस्तकला और हस्तशिल्प उद्योग में एक नई जान फूंकना। जो चाहता है आनेवाली पीढ़ियों के लिए पारंपरिक कलाओं की कभी न खत्म होने वाली विरासत तैयार करना।  यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को और मजबूत करने की ईशा की बहुत बड़ी पहल का ही एक हिस्सा है।

भारत की हस्तकलाओं की परंपरा जितनी पुरानी है उतनी ही विविधताओं से भरी हुई है। अगले चार हफ्तों में हम हैंड्स ऑफ ग्रेस में शामिल विविध हस्तशिल्प शैलियों में से कुछ की झांकी पेश करेंगे और साथ ही आपको उनसे जुड़े कुछ कलाकारों से मिलवाएंगे जो इस क्राफ्ट प्रदर्शनी में शामिल हो रहे हैं। आज हम चंदेरी और कांसे की चीजें बनाने की कला के बारे में बताएंगे।

हस्तकला: चंदेरी कपड़े

दस्तकार / संस्था: चंदेरी हैंडलूम क्लस्टर डेवेलपमेंट कंपनी

आइटम: साड़ियां, ड्रेसेज, सूट और सोफासाजी के कपड़े

इस कला को यह नाम मिला है- मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक स्थान ‘चंदेरी’ के नाम से। चंदेरी, हाथ का बुना हुआ कपड़ा होता है जो अपने अनोखे और मुलायम बनावट के लिए मशहूर है। कपड़े में यह गुण बुनाई में इस्तेमाल किए गए महीन धागे से नहीं बल्कि एक फ्लेचर वाले धागे से आता है। इस तरह के धागे में कच्चे धागे की सरेस को निकाला नहीं जाता और सरेस को निकाले बगैर इस तरह छोड़ देने से तैयार कपड़े को एक पारदर्शी चमक मिलती है। इसका पारदर्शी धागा या तो सूत का हो सकता है या रेशम का, पर 90% चंदेरी साड़ियां सूत और रेशम के मिश्रण से बनती हैं। यह कपड़ा पिछले 600 सालों से, मुगलों के जमाने से बनता आ रहा है।

चंदेरी कस्बे में अलग-अलग तबकों के तकरीबन 3500 परिवार रहते हैं जिनका गुजर-बसर चंदेरी कपड़े बना कर होता है। पिछले चार सालों में चंदेरी साड़ियों और कपड़ों की मांग में जबरदस्त तेजी आई है जो पहले कभी नहीं देखी गई। इसकी वजह से बुनकरों की आमदनी और कामकाजी हालात में काफी सुधार हुआ है।

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चंदेरी साड़ियों में असाधारण बारीकी देखने को मिलती है। सबसे खास बात यह कि पल्लू और बॉर्डर पर इस्तेमाल किए गए रंगों की ही छटा साड़ी के पूरे हिस्से में होती है। दरअसल, कोई पचास साल पहले ही चंदेरी साड़ियों पर रंगों का इस्तेमाल शुरू हुआ। उसके पहले सारे कपड़े कुदरती सफेद सूत में ही बुने जाते थे और फिर उनको केसर में धो कर एक खास सुनहरी रंगत और खुशबू दी जाती थी। कुछ बुनकर तैयार कपड़ों पर फूलों से बनाए हुए कुदरती डाइज के इस्तेमाल के लिए मशहूर थे। आजकल, चंदेरी बुनकर इसकी बजाय तेजी से असर करने वाले रासायनिक रंगों को अहमियत देते हैं।

चंदेरी साड़ी की शोभा में चार चांद लगा कर उसे पूरा करने वाली बूटियों की डिजाइन को पहले ग्राफ पेपर पर प्रधान बुनकर द्वारा बनाया जाता है, फिर उनको कपड़ों पर हाथ से बुना जाता है। डिजाइन करते वक्त प्रधान बुनकर धरती और आकाश की चीजों से प्रेरणा लेते हैं। हंस, पेड़, फल, फूल और आकाशीय पिंडों को इन छोटी-छोटी बूटियों में दर्शाया जाता है। इसी तरह अशरफी भी देखने को मिलती है, जो सोने के सिक्के के आकार में बनाई गई लोकप्रिय डिजाइन है। साड़ियों पर बूटियां और डिजाइन जितनी ज्यादा होती हैं उसकी कीमत उतनी ही ज्यादा होती है। महारत-हासिल बुनकर इन बूटियों और उम्दा सुनहरे साड़ी बॉर्डरों की बुनाई-कढ़ाई के लिए खास सुइयों और सोने के धागे का इस्तेमाल करते हैं। सोने के धागे की क्वालिटी भी चंदेरी साड़ियों को बाकी नकली साड़ियों से अलग चमक देती है। पुराने जमाने में बॉर्डर और बूटियां शुद्ध सोने या चांदी के धागे से बुनी जाती थीं। ये ऑर्डर देने पर बनाई जाती थीं और बहुत महंगी होती थीं। पर उस जमाने में चंदेरी कपड़े सिर्फ राजा-महाराजाओं के परिवारों के लिए ही बनते थे। अब चंदेरी ने आम आदमी की जिंदगी में भी अपना मुकाम बना लिया है।

हस्तकला: कांसा / बेल मेटल की चीजें

हस्तशिल्पकार / संस्था: प्रकाश चंद्र महापात्र, नयागढ़, ओडिशा

आइटम: धातु के बर्तन

पिछले 300-400 सालों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रकाश चंद्र का परिवार कांसे (बेल मेटल) से बर्तन और दूसरी कई चीजें बनाता रहा है। इस पेशे ने उनको कांसा समुदाय का हिस्सा बना दिया है। प्रकाश जैसे पेशे वाले लोगों को कंसारी कहा जाता है। वैसे तो परिवार के सारे लोग कांसे की चीजें बनाने में जुटे रहते हैं, पर मर्द (उनके पिता, भाई और वे खुद) इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं। वे धातु को तेज गर्मी दे कर पिघलाने और जमीन में छोटे-छोटे गड्ढे खोद कर पिघली हुई धातु को इनमें डालने का काम संभालते हैं। तीन-चार घंटे तक ठंडा होने के बाद लकड़ी-कोयले के अंगारों से इनको फिर गर्म किया जाता है और लाल-गर्म धातु को लोहे के हथौड़े से पीट-पीट कर मनचाहा आकार दिया जाता है। इस अवस्था में बर्तन का रंग कालिख वाला काला होता है, इसलिए उसकी कालिख वाली परत हटाने के लिए उसको अमढी नामक पत्ते से घिसा जाता है। बस यही एक काम है जो घर की औरतों के जिम्मे होता है। साफ किए गए बर्तन की पत्थर के पॉलिशिंग व्हील पर पॉलिश की जाती है। प्रकाश और उनके परिवार का दिन सुबह चार बजे शुरू हो जाता है और शारीरिक मेहनत वाला काम होने की वजह से वे सब मिल कर दिन भर में सिर्फ चार थालियां ही बना पाते हैं।

पारंपरिक रूप से उड़िसा के लोग हमेशा से खाना बनाने और खिलाने के लिए कांसे के बर्तनों-थालियों का ही इस्तेमाल करते रहे हैं, क्योंकि उनको इस धातु के औषधीय गुणों में बड़ा भरोसा है। वहां कांसे के बर्तन हमेशा से आदिवासी दुलहनों के साज-सामान का जरूरी हिस्सा रहे हैं। पर अब कांसे के बर्तनों को महंगा समझा जाने लगा है। कांसे का मौजूदा दाम लगभग 250 रुपए प्रति किलोग्राम है। इसलिए कांसे के बर्तनों को अब पहले जितना भारी और बड़ा नहीं बनाया जाता। प्रकाश कहते हैं कि उनके ज्यादातर खरीदार डाक्टर हैं जो अच्छी सेहत के लिए कांसे के बर्तनों के इस्तेमाल से होने वाले फायदों के बारे में जानते हैं।

संपादक की टिप्पणी: लिंग भैरवी में 5 से 14 अक्टूबर तक मनाया जाने वाला नौ दिनों का नवरात्रि उत्सव भी महोत्सव का भाग है। इस उत्सव के दौरान हर रात शास्त्रीय संगीत के एक जाने-माने कलाकार की संगीत-सभा होगी। मौज-मस्ती और आनंद-मंगल के इस मौके पर एक कठपुतली का शो और तोते वाला ज्योतिष कार्यक्रम भी होगा।