तकरीबन तीस साल पहले मुझे इस बात का अहसास हुआ कि मैं कौन हूं और मैं क्या कर सकता हूं। हालांकि जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि मानो ये सब बीते कल की बातें हो, क्योंकि इस दौरान चीजें बेहद तेजी से घटित हुईं। जिसमें पहले बारह सालों तक तो मैं बेहद खामोश रहा, मुश्किल से ही कुछ बोलता था, उस दौरान मेरे दिमाग में ऐसी तमाम तरह की चीजें चलती थीं, जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इसके अगले बारह से तेरह सालों में योग मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा बनता गया और इसके साथ ही मैं अपने आस-पास की चीजों और उनके काम करने के तरीकों और उनकी असलियत के प्रति ज्यादा से ज्यादा जागरूक होता गया। और उसी के साथ मैं दिन-ब-दिन गुस्सैल होता गया।

अगर आप न्याय की अपेक्षा कर रहे हैं तो यकीन मानिए आप क्रोध से मर जांएगे। कोई और तरीका नहीं है क्योंकि मानव समाज में ऐसी कोई चीज नहीं है, जब तक कि आप दूसरों की कही हुई बातों पर यकीन नहीं करते। अगर आप यह देख पाने में सक्षम हैं कि लोग अपने परिवारों के भीतर, सामाजिक परिवेश में, देश और दुनिया में किस तरह से काम करते हैं, कैसा व्यवहार करते हैं तो आप क्रोध में जलकर मर जाएंगे। इसलिए उस दौरान मैं भीतर ही भीतर उबल रहा था। खुशकिस्मती से मेरी अभिव्यक्ति का इजहार सिर्फ क्रांतिकारी बैठकों में हिस्सा लेने और उनके पोस्टर यूनिवर्सिटी की दीवारों पर चिपकाने तक ही सीमित रहा। मेरे बंदूक उठाने की नौबत नहीं आई। हालांकि मेरे कुछ दोस्तों ने ऐसा किया, वे इस में काफी आगे निकल गए। उनमें से एक तो बहुत बड़ा नेता बन गया और तकरीबन दो साल पहले मारा गया। उस समय दुनिया के काम करने के ढंग को लेकर मेरे भीतर बेहद गुस्सा था - यहां कितना छल-कपट है, कितना अन्याय है, काम करने को लेकर कितनी लापरवाही है, लोग किस तरह से एक दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, किस तरह से इंसान धरती पर रहने वाले दूसरे प्राणियों के साथ व्यवहार करता है। इन सारी चीजों को देख-देखकर मैं भीतर ही भीतर घुटा और उबला करता।

अगर मेरे जीवन में ज्ञान की शीतलता न आई होती तो शायद मैं क्रोध की वजह से मर गया होता। उस समय मेरे भीतर बहुत ज्यादा गुस्सा था। हालंाकि अपने दैनिक जीवन में इसका इजहार नहीं करता था, लेकिन मुझे लगता है कि तब मेरे खून का तापमान सामान्य नहीं हुआ करता होगा। जब मैं अपने आस-पास हर चीज में इतना भेदभाव, इतना अन्याय और छल कपट देखता, तो मेरे शरीर की नस-नस, रोम-रोम क्रोध से जला करता। तब मुझे जीवन के अन्य पहलुओं को देखने के लिए बोध का एक अलग आयाम मिला - सिर्फ इंसान को ही नहीं, धरती के अन्य प्राणियों और सृष्टि के मूल को देखने के लिए। तब मुझे महसूस हुआ कि दुनिया कितनी खूबसूरत हैं, कितनी करुणामय है और किस कदर शानदार है। अगर मेरे सामने जीवन का यह आयाम न खुला होता तो यकीन मानिए मेरे गुस्से को निकलने के लिए जो भी तरीका या रास्ता मिलता, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि वह भले ही प्रभावशाली होता लेकिन उससे भला नहीं होता। इसलिए हमारे अस्तित्व के लिए आध्यात्मिक प्रक्रिया का होना बहुत जरूरी है। जीवन में या तो आप असंवेदनशील हो जाएं या फिर आध्यात्मिक, वर्ना तो आप सिर्फ क्रोधित ही होते रहेंगे।

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अगर आप संवेदनशील और जागरूक हैं, परंतु ज्ञानी नहीं तो यह दुनिया आपके लिए भयावह हो जाएगी। अगर आप पूरी तरह से अनभिज्ञ है तो भी अच्छा है। अगर आपको ज्ञानप्राप्ति हो चुकी है, तब तो बहुत ही सुंदर है। लेकिन इन दोनों स्थितियों के बीच में रहना, क्योंकि मैं वहां झूल चुका हूं, रहने के लिए कोई अच्छी जगह नहीं है। तो सवाल है कि इसके लिए क्या करना होगा। आध्यात्मिक प्रक्रिया हमेशा त्याग से जुड़ी होती है। यहां मैं एक बात कहना चाहूंगा कि त्याग एक ऐसा शब्द है, जिसका हमेशा गलत मतलब निकाला गया है। लोगों को लगता है कि त्याग का मतलब ‘सब कुछ छोड़ देना’ होता है। जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। त्याग का आशय कुछ उसी तरह से है, जैसे जन्म लेने के लिए शिशु को अपनी मां के गर्भ का त्याग करना पड़ता है, फिर बच्चा बनने के लिए अपना शैशवावस्था छोड़नी पड़ती है, जवानी के लिए बचपने को छोड़ना होता है, प्रौढ़ावस्था के लिए जवानी को और बुढ़ापे के लिए प्रौढावस्था को छोड़़ना होता है। फिर अगर आप पहले से ही मरे हुए इंसान नहीं हैं तो मरने के लिए आपको बुढ़ापे को छोड़ना होता है। करना तो ये आपको हर हालत में पड़ेगा। अगर आप पूरी गरिमा और चेतना के साथ ऐसा करते हैं तो यह त्याग कहलाता है; अन्यथा हम इसे उलझन ही कहेंगे। अगर आप जागरूकतापूर्वक चीजों को छोड़ रहे हैं तो उसमें छोटी चीजें आपसे छूटेंगी और अपेक्षाकृत बड़ी चीजें आपके जीवन में आएंगी, यही त्याग है। त्याग का मतलब है कि आप छोटी व तुच्छ चीजों को छोड़कर बड़ी चीजों की तरफ बढ़ते जाते हैं और यह सिलसिला जारी रहता है। यही त्याग है, यानी आप किसी पेंच या उलझन में नहीं हैं।

समाज में आज संन्यास शब्द को लेकर तमाम तरह की नकारात्मकता दिखाई देती है, इसके पीछे वजह है कि संन्यासियों ने अपने कर्म से समाज के आगे बहुत ही गलत और खराब उदाहरण पेश किए हैं। हालंाकि सारे संन्यासी खराब नहीं होते, उनमें से कुछ बहुत अच्छे भी होते हैं, जबकि काफी लोग अपने जीवनयापन के लिए इसे एक पेशे के रूप में चुन लेते हैं। संन्यासियों के बारे में लोगों की यह खराब धारणा इसलिए बनी, क्योंकि बहुतायत में ऐसे उदाहरण उनके सामने आए। मैं इस बारे में लंबे समय, खासकर पिछले डेढ़-दो सालों से गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा हूं। मैं जीवन के बारे में काफी कुछ जानता हंू, उस आधार पर कह सकता हूं कि अगर कोई इंसान ठीक तरह की जगह और तरीके से रहता है तो वह आसानी से रूपांतरित हो सकता है। ऐसे में मुझे उस अंगुलिमाल की याद आती है, जो अपनी डकैतियों और लूट का लेखा-जोख रखने के लिए लूटे गए लोगों की उंगली काट कर उन्हें गले में लटका लेता था। इन कटी हुई उंगलियों की वह माला बनाकर अपने गले में पहना करता था; उसके पास सैकड़ों कटी हुई उंगलियां थीं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में भी रूपांतरण हुआ और वह साधु बन गया। आज हमें ऐसे तमाम जेल में बंद ऐसे तमाम लोगों के उदाहरण मिल जाएंगे, जो सही मायनों में अपने तरीके से एक सच्चे साधु बन चुके हैं। हमारे लिए यह एक शानदार सफर रहा है - जो लोग ईशा योग या इनर इंजीनियरिंग सिखाते हैं, वह जानते हैं कि इस रूपांतरण का सही मायने क्या हैं। इस दौरान वे देखते हैं कि महज तीन से सात दिनों के भीतर इस कार्यक्रम को सीखने वाले लोगों में कैसा रूपांतरण होता है। इंसान के लिए दुनिया में इससे बढ़कर कोई खुशी नहीं हो सकती कि वो कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिनकी वजह से लोगों की जिंदगी किस कदर बदल रही है, महज चंद दिनों में ही उनकी जीवन में निखार आना शुरू हो जाता है।

एक बात तो मैं सौ फीसदी जानता हूं कि कैसा भी इंसान हो, अगर आप उसे ठीक तरह के माहौल, ठीक तरह की उर्जा क्षेत्र और ठीक तरह के प्रभाव में रखेंगे तो वह शानदार और खूबसूरत इंसान के रूप में सामने आएगा। संन्याय लंबे समय से मेरे दिमाग में घूम रहा है। मैं यह सोच रहा हूं कि कैसे इसे बड़े पैमाने पर लोगों के सामने लाया जाए। अभी तो किसी एक व्यक्ति को कुछेक खास सालों के लिए ब्रह्मचारी रहना होगा, लेकिन ऐसा सबके लिए कर पाना मुश्किल होगा। कम से कम आपके जीवनसाथी- पति या पत्नी तो इसके लिए तैयार नहीं होंगे और आपकी परिस्थितयां भी आपको इसकी अनुमति नहीं देंगी।

संन्यास का यह मतलब नहीं है कि आपको कहीं दूर जाना होगा। संन्याय की मतलब है कि आपको हर वक्त अपने आत्म विकास की चाहत में डूबा रहना होगा। जब आप विकास करते हैं तो इस प्रक्रिया में हर वक्त आप कुछ न कुछ चीज छोड़ते या त्याग करते हैं। सिर्फ जो लोग थम चुके या जड़ हो चुके हैं, वहीं लोग बिना त्याग के रह सकते हैं। जो लेाग विकास कर रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं, वो तो हरदम कुछ न कुछ छोड़ रहे हैं। अगर आप किसी चीज का त्याग नहीं करेंगे तो आप अगले की तरफ नहीं बढ़ोगे। यही जीवन का स्वभाव है। तो सक्रिय संन्यास की शुरुआत अगले साल या उसके आसपास हो जाएगी, जिसमें लोग विभिन्न तरीकों से भाग ले सकेंगे। आप चाहें किसी भी जगह और अवस्था में हों, आप संन्यासी बन सकेंगे। भले ही आप शादीशुदा क्यों न हों, फिर भी आप संन्याय ले सकेंगे, क्योंकि तब आप कभी जड़ न होने की प्रतिज्ञा ले चुके होंगे। आपके जीवन में हर पल कुछ नया घटित होता है। इसके लिए कुछ पुरानी चीजों का छूटना जरूरी है। आपको कुछ पुरानी चीजों का त्याग करना होगा, जिससे आपके जीवन में कुछ नया आ सके। अगर हर पल ऐसा न हो सके तो कम से कम हर दिन तो ऐसा अवश्य होना ही चाहिए, क्योंकि जब तक आप खुद को किसी चााहत या ध्येय में नहीं डुबोएंगे, तब तक जीवन में कृपा से वंचित रहेंगे। अगर आपके भीतर चाहत ही नहीं है तो भले ही आपके आसपास जीवन की सुंदरतम चीजें भी क्यों न हों आप उनकी तरफ आकृष्ट ही नहीं होंगे, क्योंकि आपके जीवन में चाहत की कमी है। तो लोगों के लिए एक ऐसा अवसर तैयार करने के लिए, जहां वे हर वक्त दिव्य कृपा में रह सकें और इस उर्जा में लीन रह सकें, हम ‘क्षेत्र संन्यास’ की शुरुआत करेंगे। ‘क्षेत्र संन्यास’ का मतलब है कि आप कभी भी उस उर्जा स्थान को न छोड़ने का संकल्प लेंगे। आने वाले साल में क्षेत्र संन्याय के अलग-अलग प्रबलता वाले विभिन्न स्तर के तीन आयाम स्थापित किए जाएंगे।

Love & Grace

3 सितंबर 2012 को सद्गुरु के जन्मदिन पर आयोजित सत्संग के अंश