करण जौहर: जब भी हम परिवार की बात करते हैं, तो मेरे मन में कुछ सवाल अक्सर उठते हैं, जिनका उत्तर मैं आप जैसे इंसान से चाहता हूँ। सवाल है कि एक पिता और पुत्र के बीच एक ‘ओरगेनिक डिस्टेंस’ यानी जैविक दूरी क्यों होती है। इस रिश्ते में हमेशा एक रोष क्यों मौजूद रहता है? मुझे यकीन है कि यहां कई सारे ऐसे लोग होंगे जिन्होंने अपने घरों में, अपने माहौल में इसका अनुभव किया होगा।

परिवार से समाज का निर्माण होता है

सद्‌गुरु: क्योंकि हर पीढ़ी एक ही गलती करती है, इसका मतलब है कि वे कुछ नहीं सीख रहे। एक समाज के निर्माण में परिवार सबसे बुनियादी संस्था होती है, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको बुनियादी ही बने रहना है।

जब आप आठ-दस साल के होते हैं, तो आपके पिता भगवान की तरह होते हैं। समस्या तब शुरू होती है, जब आप पंद्रह-सोलह साल के होते हैं।
आपका परिवार आपकी बायोलॉजिकल पहचान है। आपकी बायोलॉजी सबसे बुनियादी पहचान है। बायोलॉजी एक हक़ीक़त है। निश्चित रूप से आपको यह शरीर आपके माता-पिता ने दिया, कम से कम एक निश्चित हद तक। आपका शरीर जैसा है और जैसा दिखता है, यह मुख्य रूप से उनके कारण है। इसी तरह उनके शरीर उन्हें अपने माता-पिता से मिले थे। लेकिन जीवनभर खुद को अपनी बायलॉजिकल पहचान तक सीमित रखना एक अपराध है, जिसके कई नतीजे हो सकते हैं। इस देश ने लंबे समय तक इसके कारण बहुत चीजें भुगती हैं। 

पारिवारिक पहचान से निकल कर आगे बढ़ना होगा

परिवार एक बुनियादी पहचान है, जो हमें जन्म के साथ ही मिल जाती है। यह पहचान तब तक बहुत अच्छी है, जब तक आप बच्चे होते हैं। परिवार के सहयोग के बिना कई रूपों में आज आप वह नहीं होते, जो हैं। इसलिए परिवार को पूरा सम्मान मिलना चाहिए क्योंकि इंसान जब अपनी मां की कोख से बाहर आता है, तो वह उसी समय अपने पैरों पर खड़े होकर बाकी प्राणियों की तरह काम नहीं कर सकता। एक लड़के के पुरुष बनने या लड़की के स्त्री बनने में लंबा समय लगता है, इस समय के दौरान परिवार में उसका पालन-पोषण सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस में कोई संदेह नहीं है। लेकिन आपको उस पहचान से निकल कर आगे बढ़ना होता है, जो बहुत से लोग कभी नहीं करते और फिर कष्ट उठाते हैं। कई बार किसी के किसी खास जगह जन्म लेने की वजह से पूरे देश को भुगतना पड़ता है। पूरा का पूरा महाभारत महज़ एक पारिवारिक समस्या थी। 

एक ही घर में दो पुरुषों का रहना टकराव पैदा करता है

आपने कहा कि हर पिता और पुत्र के बीच किसी तरह का रोष होता है। क्या ये जरुरी है कि यह रोष पिता और पुत्र के बीच में ही हो? यह दरअसल पिता और पुत्र की बात नहीं है, यह बस एक ही घर में रहने वाले दो पुरुषों की बात है। जब आप आठ-दस साल के होते हैं, तो आपके पिता भगवान की तरह होते हैं। समस्या तब शुरू होती है, जब आप पंद्रह-सोलह साल के होते हैं। उस समय आप पुरुष बनना चाहते हैं और इसके लिए स्पेस नहीं होता, क्योंकि आपके पिता ने अधिक स्पेस घेर रखा होता है। इस स्थिति में दोनों एक-दूसरे को पिता और पुत्र के रूप में नहीं पहचान रहे होते, वहां बस दो पुरुष होते हैं, जिनके लिए स्पेस काफ़ी नहीं होता। यह सिर्फ इंसानी परिवारों में ही नहीं बल्कि दूसरे जीवों के जीवन में भी होता है, चाहे वह हाथी हो, भैंस हो, या और कोई और जीव। जब पिता और पुत्र में टकराव होता है तो दोनों में से एक वह जगह छोड़कर चला जाता है। इसलिए यह समस्या पिता और पुत्र की नहीं है, यहां दो पुरुष होते हैं जो एक ही जगह और एक ही स्त्री को, जिसे एक ‘मां’ कहता है और दूसरा ‘पत्नी’, को बांटने की कोशिश करते हैं।

स्त्रियाँ ऐसा दूसरे तरीके से करती हैं

करण जौहर: दो पुरुष! फिर तो इस देश का एक बहुत बड़ा भ्रम टूट जाएगा कि समस्या एक घर में दो औरतों के होने की वजह से होती है। आपने इसे बिलकुल सिर के बल उलट दिया, जो कि मेरे ख्याल से सही भी है।

सद्‌गुरु: ऐसा औरतों के बीच भी होता है, मगर एक अलग तरीके से। औरतें इसे एक स्त्रियोचित या स्त्री-प्रकृति के तरीक़े से, ढके-छिपे तरीके से करती हैं। मर्दों का तरीक़ा थोड़ा आक्रामक और सिर टकराने वाला होता है।

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