सद्‌गुरुसद्‌गुरु बता रहे हैं कि इच्छाएं अस्तित्व से सम्बंधित हैं, और हर हाल में इच्छाएं होंगी ही। लेकिन आप किस विषय के बारे में इच्छा करते हैं ये आपकी कार्मिक संरचना पर निर्भर करता है...

आपका अस्तित्व है तो इच्छाएं होंगी ही

विद्या : सद्‌गुरु, इच्छा और कर्म में क्या संबंध है?

सद्‌गुरु : इच्छा की मूल प्रक्रिया सार्वभौमिक है।

कह सकते हैं कि इच्छा आपके भीतर कुछ खास अस्तित्वगत स्थितियों के कारण घटित हो रही है। लेकिन इच्छा की विषयवस्तु आपके भीतर की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति से तय हो रही है।
चाहे आप हैदराबाद में हों या टिंबकटू में, उत्तरी ध्रुव पर हों या दक्षिणी ध्रुव पर, आपके भीतर इच्छा तो होगी, लेकिन आपकी यह इच्छा किस चीज के लिए है, वह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहां हैं। आप शहर में हैं, आपके पड़ोसी ने नई बड़ी कार ले ली, तो आपकी इच्छा क्या होगी? आपके पास उसके जैसी दो कारें हों। आप कहीं गांव में हैं, आपके पड़ोसी ने भैंस खरीद ली। आपकी इच्छा क्या होगी? आपके पास वैसी ही दो भैंस हों। इस तरह इच्छा की विषयवस्तु बदलती रहती है और यह निर्भर करता है आपकी कार्मिक रचना पर, लेकिन इच्छा की मूल प्रक्रिया अपने आप में सार्वभौमिक है, जो हमेशा होती ही है। कह सकते हैं कि इच्छा आपके भीतर कुछ खास अस्तित्वगत स्थितियों के कारण घटित हो रही है। लेकिन इच्छा की विषयवस्तु आपके भीतर की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति से तय हो रही है।

तो इच्छा अस्तित्वगत है, लेकिन आप किस चीज की इच्छा करते हैं - कार की या भैंस की यह आपकी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दशा पर निर्भर करता है। आप कोई भी विषयवस्तु चुन सकते हैं, यह आप पर है। कोशिश करके देख सकते हैं। आप खुद से कहें कि मुझे ‘स्नोमोबाइल’(बर्फ पर चलने वाली मोटरबाइक) चाहिए। हर किसी को कार, मोटरसाइकल चाहिए, आप कहिए मुझे स्नोमोबाइल चाहिए। आप देखेंगे कि यह आपके भीतर एक वास्तविक इच्छा बन जाएगी। दूसरे लोग सोच सकते हैं कि यह बेवकूफी भरी बात है, लेकिन जहां तक आपका संबंध है, आपको वास्तव में स्नोमोबाइल चाहिए। आप इंटरनेट पर ढूंढते हैं कि कौन-सी कंपनियां स्नोमोबाइल बना रही हैं। आपको सब कुछ मिल जाएगा। यह वास्तविक चीज बन जाएगी, क्योंकि यह आपके मन में चल रही है।

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जीवन सच्चाई है या सपना

एक दिन मैं ईशा होम स्कूल गया और वहाँ एक आठ साल के बच्चे ने मुझसे पूछा कि जीवन सच्चाई है या सपना।

जब आपका मन कुछ कहे तो उसे अपने शरीर के साथ जरूर चेक करें। आपका शरीर झूठ नहीं बोलता, वह काफी हद तक हकीकत में रहता है।
मैंने उसकी ओर देखा और कहा - ‘देखो, जीवन एक सपना है, लेकिन सपना सच है’। वह बोला - ‘ओह सदगुरु, आप हमेशा ऐसी ही बातें करते हैं’। बात यही है कि जीवन सपना है, लेकिन सच्चा सपना है। आपके अनुभव में आपके मन में जो होता है, वह वास्तविकता से भी ज्यादा वास्तविक है। क्या ऐसा नहीं है? वास्तविकता से भले ही इसका लेना-देना न हो, लेकिन जो आपके मन में होता है, वह खुद वास्तविकता से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है।

तो मन का स्वभाव ही ऐसा है। आपका मन किसी भी चीज को वास्तविक बना सकता है, उसे भी जिसका अस्तित्व नहीं है। यह हमेशा से लाखों तरीके से ऐसा करता रहा है, कृपया इस पर ध्यान दीजिए। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि आप मन से थोड़ी दूरी बनाना सीखें। आप अपने मन का इस्तेमाल कर सकते हैं और इसका आनंद भी ले सकते हैं। आप इससे शानदार काम करा सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव होगा जब आपके और आपके मन के बीच में एक दूरी होगी। अगर आप इसमें फंस गए, तो यह हमेशा आपकी सवारी करेगा। इसीलिए आपको अपने शरीर के साथ वास्तविकता की जांच अवश्य करनी चाहिए। जब आपका मन कुछ कहे तो उसे अपने शरीर के साथ जरूर चेक करें। आपका शरीर झूठ नहीं बोलता, वह काफी हद तक हकीकत में रहता है।

गौतम बुद्ध ने ‘इच्छारहित’ शब्द का इस्तेमाल किया था। वह बेवकूफ नहीं थे कि उन्हें यह पता न हो कि यहां कोई इच्छा के बगैर नहीं रह सकता। उन्हें पता था कि बिना इच्छा के कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी वह इच्छारहित होने के बारे में बात करते हैं। दरअसल इच्छारहित होने का मतलब है कि अपनी इच्छाओं के साथ आपकी कोई पहचान स्थापित नहीं हो। आपकी इच्छाएं सिर्फ उन चीजों तक सीमित हैं, जिनकी जरूरत है। आपकी इच्छाओं के साथ कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है।

निष्काम कर्म - बिना इच्छा का कर्म है

इच्छाएं बस ऐसी चीजें हैं, जिनके साथ आप खेलते हैं। बिना इच्छाओं के कोई खेल हो ही नहीं सकता, लेकिन अब इच्छाओं का संबंध आपसे नहीं है।

उसी इच्छारहित होने की बात को वह एक अलग भाषा और अलग लहजे में समझा रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं - ‘चिंता मत करो, चलो हम इन हजारों लोगों का वध करें।’ वह खुद अपने कर्मों को लेकर चिंतित नहीं हैं।
इनका संबंध सिर्फ इस पल, इस स्थिति की जरूरत से है। एक बार अगर यह जागरूकता आ जाए, अगर उस मायने में आप इच्छारहित हो जाएं, तो आप चाहे जो करें, आपके लिए कर्म का कोई बंधन नहीं रह जाता। अगर ऐसा इंसान युद्ध भी करे तो भी उसके लिए यह कोई कर्म नहीं है, क्योंकि उसके भीतर कोई इच्छा ही नहीं है। किसी चीज के प्रति उसके प्रेम या नफरत की वजह से ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा बस इसलिए हो रहा है, क्योंकि यही तरीका है। गीता का सार भी यही है। कृष्ण लगातर निष्कर्म की बात कर रहे हैं यानी कोई कर्म न करना, लेकिन अर्जुन से जोर देकर कह रहे हैं कि उसे अब कर्म करना चाहिए। उसी इच्छारहित होने की बात को वह एक अलग भाषा और अलग लहजे में समझा रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं - ‘चिंता मत करो, चलो हम इन हजारों लोगों का वध करें।’ वह खुद अपने कर्मों को लेकर चिंतित नहीं हैं। वह हर तरह से भड़काने वाली बात कर रहे हैं, सारे नियम तोड़ रहे हैं, युद्ध में छल-फरेब करा रहे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनका मकसद साफ है। वह हर चीज को उसी दिशा में धकेल रहे हैं। उन्हें सबसे कम चिंता है। बाकी लोग हिचकिचा रहे हैं। कह रहे हैं कि अगर मैं यह काम करूं भी तो मुझे हासिल क्या होगा। ऐसे लोगों को बाद में काफी कष्ट हुआ। उन्हें कुलवध का पाप लगा। उस कर्म ने उन्हें परेशान किया, लेकिन कृष्ण को नहीं, क्योंकि उनकी चेतना तो सीमाओं को तोड़ चुकी थी और अपरिमित कॉस्मिक आयाम को स्पर्श कर चुकी थी। छोटे-से बुलबुले में मौजूद यह छोटी-सी चीज अगर एक बार असीमित आयाम को स्पर्श कर ले तो कर्मों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं रहती, क्योंंकि ऐसे में कर्म जैसी कोई चीज रह ही नहीं जाती। वह उन्हें जब चाहे स्वीकार कर सकते हैं और जब चाहे छोड़ सकते हैं।

कर्मों को जागरूक होकर करना ही साधना है

आध्यात्मिक मार्ग पर जो लोग हैं, वे इसी दिशा में काम कर रहे हैं। कर्मों को लेकर चलने की प्रक्रिया को आप एक जागरूक प्रक्रिया बना सकते हैं।

अगर यह आजादी आपके भीतर पैदा हो जाए, तो कर्म कोई समस्या नहीं हैं। फिर आप जीवन के साथ उस तरह से खेल सकते हैं, जैसा आप चाहते हैं।
अभी यह सब अनजाने में हो रहा है, कर्म बस जुड़ते चले जाते हैं। अगर आप जागरूक होकर कोई बैग लेकर चलते हैं, तो आप उसे कभी भी नीचे रख सकते हैं। अगर आप अनजाने में कोई बैग ढो रहे हैं तो आप उसे कभी नीचे नहीं रखते। तो आप उसी जागरूकता को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि आप जो भी लेकर चलें, उसे जागरूकता के साथ लेकर चलें। अपने आसपास के लोगों के साथ आपकी भागीदारी जागरूकता से भरी हो। अब जब आप इसे आराम देना चाहें, आप दे सकते हैं। अगर आप अपनी आंखें बंद कर लें, तो सब खत्म। आपने आंखें खोलीं, तो आप अपने आसपास किसी पर भी नजर डाल सकते हैं। आंखें बंद तो सब खत्म। अगर यह आजादी आपके भीतर पैदा हो जाए, तो कर्म कोई समस्या नहीं हैं। फिर आप जीवन के साथ उस तरह से खेल सकते हैं, जैसा आप चाहते हैं। तब तक बेहतर यही है कि आप नियमों के हिसाब से खेलें, नहीं तो ऐसे नतीजे आएंगे कि आप उन्हें संभाल नहीं सकेंगे।