सद्‌गुरुसद्‌गुरु हमें बता रहे हैं कि कैसे हमारा मन ही कल्वृस्क्ष का काम कर सकता है। वांछित वस्तु पाने के लिए स्पष्ट रूप से कल्पना करने और फिर एक दृढ़ संकल्प बनाने की जरूरत है।

रूप की कल्पना और दृढ़ संकल्प

आपकी हर मंशा पूरी होगी बशर्ते कि पहले से ही आप सुलझी हुई मति से चुनाव कर पाएं कि आपको क्या चाहिए। फिर उसे पाने के लिए दृढ़ संकल्प चाहिए। यदि मैं आप लोगों से पूछूं तो बहुतेरे लोग सकारात्मक ढंग से नहीं बता पाएँगे कि उन्हें क्या चाहिए, हालांकि यह जरूर बता सकते हैं कि क्या नहीं चाहिए।

नींव रखने के स्तर पर ही चंचल मन से संदेह करने लग जाएं - क्या यह मुझसे संभव है? - तो आपका घर कल्पना में भी नहीं बन पाएगा।

"मैं हार का मुंह न देखूं", "व्यापार में नुकसान न हो", "मेरे हाथ से अधिकार न चला जाए", "किसी भी सूरत में फलाँ चीज को न गँवा बैठूं"- इस तरह की नकारात्मक सोच ही दिमाग में आती है।

आप जिस चीज की कामना करते हैं, मन की कल्पना में उसे रूपायित कर लें। तभी वह वास्तविक रूप में साकार होगी।

यदि आप रहने के लिए सुंदर-सा घर बनाना चाहते हैं तो पहले मन में उस मकान की रूप-कल्पना करते हैं, फिर कागज पर उसका नक्शा बनाते हैं, उसमें संशोधन करते हैं और उसके बाद ही तो असल में मकान का निर्माण करते हैं?

नींव रखने के स्तर पर ही चंचल मन से संदेह करने लग जाएं - क्या यह मुझसे संभव है? - तो आपका घर कल्पना में भी नहीं बन पाएगा।

क्या भगवान खुद कार्य सम्पन्न करते हैं?

कई बार लोग भगवान से प्रार्थना करते हैं- "हे प्रभो, मेरी फलां कामना पूरी हो जाए।" आपने देखा होगा उनमें से कई लोगों का मनोरथ पूर्ण भी हो जाता है, उन्हें वांछित फल मिल जाता है। क्या स्वयं परमेश्वर ने आकर उस कार्य को संपन्न किया?

जान की बाजी लगाकर लड़े। दुश्मन को हराकर विजय-पताका फहराते हुए लौटते समय देवी माँ को धन्यवाद देने के लिए सेना उसी मंदिर में इकट्ठी हुई।

कोई सेनानायक अपनी सेना को लेकर रणक्षेत्र की ओर कूच कर रहा था। फौज ने आधा रास्ता तय किया होगा, तभी एक गुप्तचर सामने से आया। उसने कहा:

" सेनापति! अपनी फौज में केवल एक हजार सिपाही हैं। दुश्मन की सेना में दस हजार जवान हैं। इसलिए यही बेहतर होगा कि हम आत्म-समर्पण कर दें।"

यह सूचना पाते ही पूरी सेना का हौसला पस्त हो गया। सेनापति ने अपने सारे जवानों को पास के मंदिर में पहुँचने का हुक्म दिया। उन्हें संबोधित करते हुए कहा:

''मेरे प्यारे साथियो! हमारे सामने एक जबर्दस्त सवाल है -'क्या हम शक्तिशाली शत्रु का सामना कर सकते हैं?' मेरा सुझाव है कि हम इस प्रश्न का उत्तर इस मंदिर की देवी माँ से ही माँग लें। देखिए, मैं देवी माँ की सन्निधि में अपने हाथ के सिक्के को उछालता हूँ। यदि सिक्का 'पट' में गिरे तो समझिए लड़ाई पर जाने के लिए देवी माँ की अनुमति है। यदि सिक्का 'चित' में गिरे तो यहीं से वापस चले जाएँ।" सेनापति ने सिक्के को ऊपर उछाल दिया।

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पट में गिरा। सारे के सारे सिपाहियों में उत्साह की लहर छा गई। पूरे जोश के साथ नारे लगाते हुए लड़ाई के मैदान में पहुँचे। अपने से दस गुना ताकतवर सेना से टक्कर ली। जान की बाजी लगाकर लड़े। दुश्मन को हराकर विजय-पताका फहराते हुए लौटते समय देवी माँ को धन्यवाद देने के लिए सेना उसी मंदिर में इकट्ठी हुई।

भगवान विचारों को केन्द्रित करने का उपादान हैं

सेनापति ने तब अपनी जेब से वही सिक्का निकालकार दिखाया। उसके दोनों तरफ 'पट' ही छपा था।

'पट' आने पर जवानों ने उसे देवी माँ की आज्ञा मान लिया और पूर्ण रूप से विश्वास किया कि हर हालत में हमारी ही जीत होगी। उनके अंदर नकारात्मक विचार उठे ही नहीं। इसलिए सफलता प्राप्त कर ली। इस दृष्टि से देखा जाए तो भगवान विचारों को केंद्रित करने का एक उपादान मात्र है।

क्या आपके मन में भगवान पर अडिग विश्वास है? छल-कपट से रहित उसी मनोभाव की उपस्थिति में नकारात्मक विचार सिर नहीं उठाएँगे। वांछित मनोरथ पूर्ण भी होगा!

वैसे, छोटा-बड़ा कोई भी काम शुरू करने से पहले मंदिर में जाकर मिन्नत माँगते रहें तो क्या सारे काम सफल हो जाएंगे?

क्या आपके मन में भगवान पर अडिग विश्वास है? छल-कपट से रहित उसी मनोभाव की उपस्थिति में नकारात्मक विचार सिर नहीं उठाएँगे। वांछित मनोरथ पूर्ण भी होगा! लेकिन यदि आप सोचते हैं कि अपनी एक आँख मंदिर के अंदर देवमूर्ति पर और दूसरी आँख बाहर छोड़ी गई चप्पलों पर टिकाते हुए इष्टदेव के साथ नाता जोडऩा संभव है, तो आप आस्था के नाम पर स्वयं को ठग रहे हैं, बस! यह झूठी आस्था कार्यों की सिद्धि में सहायक नहीं होगी।

ईश्वर से प्रार्थना करने के बाद भी कार्य की सफलता के बारे में भयमिश्रित आशंका बनी रहे, मन में खींचतान चलती रहे तो नकारात्मक विचार कैसे हटेंगे? वांछित वस्तु कैसे मिलेगी?

शंकरन पिल्लै एक बार बहुत दूर टहलने के बाद अचानक स्वर्ग में घुस गए। काफी दूर चलने की वजह से उन्हें गजब की भूख लग रही थी। बदन थककर चूर हो रहा था। एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। वांछित फल देने वाला कल्पवृक्ष था वह। शंकरन पिल्लै को इसका पता नहीं था। सहज रूप से उन्होंने सोचा, 'अभी भरपेट भोजन मिल जाता तो कितना अच्छा होता!'

अगर आपके मन में आवश्यक वस्तु की इच्छा करने का एक विचार उठता है तो भय और अविश्वास से भरे एक हजार विचार साथ में उठ जाते हैं।

अगले ही क्षण उनकी पसंद के सारे भोज्य पदार्थ सोने की थाली में सजकर सामने आ गए। प्यालों में पसंदीदा फलों का रस भी।

पेट भर गया तो नींद आई। पिल्लै ने सोचा, 'काश, अच्छा-सा पलंग मिल जाता।' फौरन मुलायम गद्दों और तकियों के साथ पलंग हाजिर। अब शंकरन पिल्लै के मन में भय छा गया।

'विचार उठते ही यह सब कैसे मिल रहा है? यह भूत-प्रेतों का स्थान तो नहीं है?' अगले ही क्षण भूत-प्रेतों ने आकर उन्हें घेर लिया।

'हाय, ये प्रेत-पिशाच कहीं मुझे मार डाले तो...?' सोचने की देर थी कि पिशाचों ने उन्हें चीर कर भर्ता बना दिया।

देखा, शंकरन पिल्लै का क्या हश्र हुआ? यदि आपके विचार नकारात्मक हों तो फल यही होगा।

अगर आपके मन में आवश्यक वस्तु की इच्छा करने का एक विचार उठता है तो भय और अविश्वास से भरे एक हजार विचार साथ में उठ जाते हैं।

सही विचारों से मन खुद कल्पवृक्ष बन जाएगा

कामना की विचार-शक्ति को स्वयं कमजोर कर डालने की मूर्खता न कीजिए। वांछित मनोरथ पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष की खोज में वन में जाने की आवश्यकता नहीं है।

बड़े होने के बाद भी इस रवैये में बदलाव नहीं आता तो सेवानिवृत्त होने के बाद चूँकि व्यक्ति के मन में स्वजनों की परवाह कम हो जाने का डर पैदा हो जाता है, उसे बुखार आने लगता है।
यदि आपके विचारों में सच्चाई हो, यदि आपके मन में दृढ़ता हो तो वही कामनाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष के रूप में कार्य करेगा। वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि विचारों के स्पंदनों में वैसी शक्ति मौजूद है।

‘‘नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद मेरे पति को बार-बार बुखार आता है, क्यों?’’

‘‘मनुष्य के अंदर बचपन से ही एक तरह का गलत चिंतन शुरू हो जाता है। यदि कोई बच्चा मस्ती से खेलता रहे तो उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन बुखार चढऩे पर,  सारा परिवार बच्चे को घेर कर खड़ा हो जाता है।

बच्चों के बार-बार बीमार होने का कारण उसके रिश्तेदार और परिजन ही हैं।

आप जरूर उनके इलाज का प्रबंध करें, स्वस्थ आहार दें,  इन जिम्मेदारियों से मुकरने की सलाह नहीं दे रहे हैं। अगर आप अनावश्यक देखभाल और लाड़-दुलार बरसाकर उन्हें इसके आदी बनाएँगे तो जब-जब आपका ध्यान पाने की इच्छा उठेगी, वे अनजाने में ही बीमार पडऩे लग जाते हैं।

बड़े होने के बाद भी इस रवैये में बदलाव नहीं आता तो सेवानिवृत्त होने के बाद चूँकि व्यक्ति के मन में स्वजनों की परवाह कम हो जाने का डर पैदा हो जाता है, उसे बुखार आने लगता है।

यदि आप चाहते हैं कि दुनिया स्वस्थ रहे, तो रोगों को उत्सव की तरह मनाइए नहीं...।’’