माइक्रोसॉफ्ट के भूतपूर्व सीईओ रवि वेंटेशन सद्‌गुरु से अपनी मुलाकात का अनुभव हमसे साझा कर रहे हैं। आइए जानते हैं उन्हीं के शब्दों में-

सद्‌गुरु से मेरी पहली मुलाकात 2002 में एक दोस्त के घर रात्रि भोज पर हुई थी। वह भी वहां भोज पर आमंत्रित थे। जब मैं उनसे पहली बार मिला, तब मेरी जिंदगी का एक दिलचस्प दौर चल रहा था। अपनी निजी और पेशेवर जिंदगी में मैं कई चुनौतियों का सामना कर रहा था। तभी वहीं मेरे दोस्त ने मुझे सलाह दी कि मैं अपनी व्यस्त जिंदगी में से आठ दिन का समय निकालूं और सद्गुरु के होलनेस कार्यक्रम में हिस्सा लूं। उस वक्त मैं जिस हालात से गुजर रहा था, उसे देखते हुए मैंने इस कार्यक्रम में शामिल होने का फैसला किया।

सद्‌गुरु ने जो नजरिया मुझे दिया है और प्राणायाम व शून्य जैसे जो अभ्यास उन्होंने मुझे सिखाए हैं, उनसे मुझे कई दिनों और महीनों तक बिना तनाव में आए काम करने की सीख मिली है। जैसे-जैसे मेरे अभ्यास बढ़ते जा रहे हैं, मुझे लगता है कि उसी के साथ ही जिंदगी की तमाम चुनौतियों के बावजूद मेरा धैर्य और चेहरे पर शांति बढ़ती जा रही है।
मैं ईमानदारी से यह बात स्वीकार करता हूं कि इस कार्यक्रम में शामिल होना मेरी जिंदगी में कई मायने में बड़े बदलाव लेकर आया। यूं तो मैंने यहां बहुत कुछ सीखा, लेकिन होलनेस कार्यक्रम के दौरान सद्‌गुरु की कही गई दो बातें मैं हमेशा याद रखता हूं। उन्होंने सीधे मेरी ओर देखते हुए कहा था, 'जब तुम अपना खुद का ध्यान ही नहीं रख पाते, तो 5000 लोगों के एक संगठन को कैसे संभालोगे?”उनकी यह बात कहीं मेरे दिल में घर कर गई और फिर इस बारे में मैंने बहुत सोचा। पता नहीं, उनकी इस बात में ऐसा क्या खास था, लेकिन इसने मेरी सोच और मेरे काम करने के तरीके को वाकई बदल दिया। वैसे, देखा जाए तो उनकी बात बिल्कुल सही भी थी, क्योंकि जब तक आप अपने समय और ऊर्जा का सदुपयोग करना नहीं सीख लेते और जब तक आप तमाम परिस्थितियों पर अपनी प्रतिक्रियाओं को काबू में करना नहीं जानते, तब तक आप एक बड़े संगठन का सही नेतृत्व नहीं कर सकते।

रवि वेंकटेसन, हर्ष मारीवाला के साथ इनसाइट-द डीएनए ऑफ सक्सेस कार्यक्रम में
हालांकि सद्‌गुरु द्वारा दिये गये अभ्यास को इतने लंबे समय तक करने की मैंने उमीद नहीं की थी, लेकिन इस मामले में यह कार्यक्रम मेरे लिए बहुत मददगार साबित हुआ। मसलन पहले मुझे कमरदर्द की बहुत ज्यादा शिकायत थी। हालांकि यह तकलीफ मुझे अभी भी है, लेकिन अब मैं अपने अभ्यास और इस दर्द के बीच के पारस्परिक संबंध को महसूस कर सकता हूं। जब भी सुबह के समय मैं आसन करता हूं, उस दिन मुझे यह तकलीफ कम होती है।

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इस कार्यक्रम में शामिल होकर मैंने एक और बात जानी कि जिंदगी में आप तनाव से बच नहीं सकते। दरअसल, यह एक बाहरी कारण है। अगर आप पर घर या दफ्तर की बड़ी जिम्मेदारियां हैं, तो इन्हें निभाने के चक्कर में तनाव तो होगा ही। इससे आप पूरी तरह से बच नहीं सकते। लेकिन मुझे लगता है कि सद्‌गुरु ने जो नजरिया मुझे दिया है और प्राणायाम व शून्य जैसे जो अभ्यास उन्होंने मुझे सिखाए हैं, उनसे मुझे कई दिनों और महीनों तक बिना तनाव में आए काम करने की सीख मिली है। जैसे-जैसे मेरे अभ्यास बढ़ते जा रहे हैं, मुझे लगता है कि उसी के साथ ही जिंदगी की तमाम चुनौतियों के बावजूद मेरा धैर्य और चेहरे पर शांति बढ़ती जा रही है।

यह सब बदलाव तो बिल्कुल साफ नज़र आते हैं। निजी तौर पर अब सद्‌गुरु और साथ ही ईशा के दूसरे लोगों से जुड़ाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। तभी समय-समय पर अक्सर मैं खुद को आश्रम में पाता हूं। दरअसल, वहां की विशेष शांति और उर्जा को महसूस करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। फिर मुझे वहां बना नया स्पा भी बहुत पसंद है। जब मैं पहली बार आश्रम आया था, तब यह नहीं था, लेकिन अब मैं इसका आनंद लेता हूं। फिर आश्रम के लोगों ने कई मुश्किल हालात में मेरा पूरा साथ दिया है। 2004 में जब मेरे पिताजी गुजरे और पिछले साल जब मेरी माताजी की मृत्यु हुई, तो सद्‌गुरु और आश्रम के बाकी सभी लोग मेरे साथ थे। यही वजह है कि अब मैं भी यहां के कुछ विशेष कार्यक्रमों से जुड़ रहा हूं।

प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स ने मुझे खासतौर पर प्रभावित किया और यही वजह है कि अब हम इसे बढ़ाने के तरीकों के बारे में सोच रहे हैं। वैसे, मैं आश्रम के स्कूल, ईशा विद्या से भी जुड़ा हुआ हूं। बेशक, इससे मुझे कुछ हद तक की संतुष्टि और जिंदगी का एक मकसद मिला है। सद्‌गुरु की एक और बात मुझे याद रहती है। वह अकसर मजाक में कहा करते थे, 'अगर कुछ होता है, तो अच्छा है और अगर नहीं होता है, तो यह और भी अच्छा है।’ उनकी इस बात को मैं हर सुबह याद करता हूं। हालांकि कहीं ना कहीं यह विरक्ति वाली बात है। अब मैं इसकी वजह तो नहीं जानता, लेकिन उनके ये शब्द हमेशा मुझे याद रहते हैं।

ईशा योग केंद्र में इनसाइट-द डीएनए ऑफ सक्सेस कार्यक्रम- 2013
अभी पिछले सप्ताह ही मुझे एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा। दरअसल, सरकार की ओर से एक बड़ा फैसला आना था, जिसका हमारे व्यवसाय पर खासा असर पड़ता और मैं चाहता था कि यह हमारे फायदे के अनुरूप ही हो। जब आप एक खास नतीजे की ख्वाहिश रखते हैं और आपको लगता है कि सारी चीजें उसी के अनुसार होनी चाहिए, तो आपकी इस सोच का असर कहीं ना कहीं आपके फैसलों पर दिखने लगता है। जाने-अनजाने में आपके सारे कदम इसी सोच के अनुसार ही उठते चले जाते हैं और बाद में कहीं आपको अहसास होता है कि आपकी तरफ से ऐसा नहीं होना चाहिए था। यही वजह है, जो मैं खुद को बार-बार यह बात याद दिलाता रहता हूं, 'अगर ऐसा हुआ है, तो अच्छा है और अगर नहीं हो पाया है, तो भी अच्छा है। कम से कम मैंने उसे पाने की कोशिश तो की।’ और मुझे लगता है कि इस बात को उन कठिन हालातों में अपने अंदर दोहराते रहने से मैं खुद को शांत रख पाया। यही नहीं, मेरे इस व्यवहार का असर मेरे साथियों पर भी पड़ा और उनका व्यवहार भी बहुत अनुकूल रहा। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस तरह जो भी हुआ उत्तम हुआ। यह एक उदाहरण है कि किस तरह सद्‌गुरु से मिली सीख को अपनाकर मैंने अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बना लिया है।

मैं लोगों से बात करते हुए अपने व्यवहार का बहुत ध्यान रखता हूं, इसलिए मुझे साफ महसूस होता है कि एक व्यक्ति के तौर पर मैं बहुत विनम्र हो गया हूं। यही नहीं, अब मैं लोगों में गलतियां भी नहीं निकालता।
अब सवाल यह उठता है कि इसने मुझे किस तरह बदला है और मैं खुद को दूसरों के साथ कैसे जोड़ पाता हूं.... इस सिलसिले में मुझे ईशा योग कार्यक्रम में सिखाई एक और बात याद आती है। सद्‌गुरु ने लोगों से कहा था कि अकसर हम जिंदगी की शुरुआत इस सोच के साथ करते हैं कि हमारी ख्वाहिशें क्या हैं और हम जिंदगी में क्या पाना चाहते हैं। इसके बाद ही हम यह पता लगाते हैं कि इन चीजों को पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए। इस क्रम में सबसे अंत में यह सोचते हैं कि हम कैसे इंसान बनना चाहते हैं। जबकि सद्‌गुरु का कहना है कि होना इससे उल्टा चाहिए। आपकी सोच ऐसे शुरू होनी चाहिए कि आप कैसे व्यक्ति बनना चाहते हैं। फिर आपको सोचना चाहिए कि आप क्या करना चाहते हैं और अंत में यह सोचना चाहिए कि आप क्या कर पा रहे हैं या आपको क्या मिल रहा है, क्योंकि यह सबसे कम महत्व की बात है।

और यह एक ऐसी बात है, जिसके बारे में मैंने कार्यक्रम के बीच ही नहीं, बल्कि उसके बाद भी कई महीनों तक गहराई से सोचा है। इसके बाद मैं घर और दोस्तों के बीच इस बात को लेकर सजग रहता हूं कि बतौर इंसान मैं कैसा हूं और बाकी लोगों के साथ मेरा व्यवहार कैसा है। इन बातों का ध्यान मैं अपने काम करने की जगह पर भी रखता हूं। आखिर मैं अपने काम करने की जगह पर 14 घंटे बिताता हूं। वैसे भी, हम में से अधिकतर लोग काम करने की जगह पर ही अपना खासा वक्त बिताते हैं। चूंकि अब मैं लोगों से बात करते हुए अपने व्यवहार का बहुत ध्यान रखता हूं, इसलिए मुझे साफ महसूस होता है कि एक व्यक्ति के तौर पर मैं बहुत विनम्र हो गया हूं। यही नहीं, अब मैं लोगों में गलतियां भी नहीं निकालता। मैं खुद को अपने साथ काम करने वाले लोगों के कोच या प्रशिक्षक के तौर पर देखता हूं। मेरे ऐसा कहने का मतलब यह नहीं है कि मुझमें कोई खामी नहीं है, लेकिन अपने अब तक के सफर में मैंने कुछ तरक्की जरूर की है। तभी तो अगर आप मेरे साथ काम करने वालों से मेरे बारे में पूछेंगे तो वे यही कहेंगे कि रवि वाकई एक अच्छा इंसान है और अपने साथियों के साथ अपने रिश्तों में मुझे इस बात की साफ झलक भी नजर आती है।

यहां तक तो सब ठीक हुआ है और अब मेरे सामने इन सब चीजों पर अपने घर में भी अमल करने की चुनौती है, क्योंकि यही पक्ष अभी तक मेरी तरफ से थोड़ा उपेक्षित रहा है।

यह लेख ईशा लहर अगस्त 2012 से उद्धृत है।

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