'जयलक्ष्मी आपने देर कर दी' डॉक्टर सोलमनली के मुंह से इतना ही निकला, जब उन्होंने जयलक्ष्मी की बॉयप्सी रिपोर्ट देखी।52 साल की उम्र में जयलक्ष्मी को ब्रेस्ट कैंसर होने की बात सामने आई, जो तीसरे चरण में पहुंच चुका था।यह सुनने पर वो डरी  नहीं। उन्हें  पता था कि  वो इस मजधार से बाहर आ निकलेंगी। मगर कैसे? आइए पढ़ते है एक ऐसे व्यक्ति के कहानी जो मौत के मुंह से बाहर निकल आई...


'जयलक्ष्मी आपने देर कर दी' डॉक्टर सोलमनली के मुंह से इतना ही निकला, जब उन्होंने मेरी बॉयप्सी रिपोर्ट देखी। यह बात साल 2004 की है। 52 साल की उम्र में मुझे ब्रेस्ट कैंसर होने की बात सामने आई थी। मेरे बाएं स्तन में कैंसर हुआ था, जो तीसरे चरण में पहुंच चुका था और इसकी गांठें मेरे कॉलर बोन के ठीक नीचे तक फैल चुकी थीं। रिपोर्ट के बाद डॉक्टर का कहना था, 'हम अपनी तरफ से बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करेंगे, लेकिन काश आप पहले आ जातीं।' यह सुनकर मेरा दिल धक से रह गया, फिर भी मैंने इसे पूरी गरिमा से स्वीकार किया। मैं जानती थी कि मेरी पहले से परेशानहाल जिंदगी में यह सच्चाई मेरी मुश्किलों को कई गुना और बढ़ा देगी।

मैं पहले ही एक मोर्चे पर संघर्ष कर रही थी। नौकरी छूट जाने की वजह से मेरे पति बहुत ज्यादा शराब पीने लगे थे। वैसे मेरे पति एक बहुत अच्छे इंसान हैं। मैं भावनात्मक रूप से इस स्थिति से बुरी तरह से प्रभावित हुई थी। हो सकता था कि मैं गंभीर डिप्रेशन में चली जाती, लेकिन शक्तिचालन क्रिया के दैनिक अभ्यास ने मुझे उससे बचाए रखा। अब जब उन्हें यह पता चला कि मुझे एक जानलेवा बीमारी हो गई है, जिसमें अगर मैं जिंदा भी रहती हूं तो यह मुझे कई तरह से अक्षम बना सकती है तो वह पूरी तरह से बिखर गए। लेकिन मैं नहीं डरी। मेरा एक बच्चा स्कूल में था और दूसरा कॉलेज में, इन दोनों बच्चों को लेकर मैं सिर्फ इतना ही समझ पाई थी कि मुझे जिंदा रहना है, मुझे अपने बच्चों के लिए जीना है।

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मैं इन क्रियाओं पर ऐसे टिकी हुई थी, मानो तूफानी सागर में डूबता कोई व्यक्ति किसी लकड़ी के टुकड़े के सहारे टिका रहता है। और इसने काम किया। इसने मेरी कल्पनाओं से कहीं बढ़कर चमत्कारिक तरीके से और मेरी डॉक्टर की उम्मीदों से कहीं ज्यादा काम किया।
मेरे इलाज का शिड्यूल बन चुका था। इलाज के पहले चरण में मेरे डॉक्टर ने छह कीमोथेरेपी और इक्कीस रेडिएशन की योजना बनाई थी। इससे पहले कि मेरी कीमोथेरेपी शुरू हो, मुझे कहीं से इस बात का अहसास हो गया था कि मुझे अपने योग अभ्यास की दिनचर्या पर बिना नागा पूरी शिद्दत से टिके रहना होना। मेरी दिनचर्या थी कि शक्तिचालन का पहला दौर मैं इलाज से पहले किया करती और दूसरा दौर शाम को। मैं इन क्रियाओं पर ऐसे टिकी हुई थी, मानो तूफानी सागर में डूबता कोई व्यक्ति किसी लकड़ी के टुकड़े के सहारे टिका रहता है। और इसने काम किया। इसने मेरी कल्पनाओं से कहीं बढ़कर चमत्कारिक तरीके से और मेरी डॉक्टर की उम्मीदों से कहीं ज्यादा काम किया।

कीमो के सिर्फ एक सत्र से ही मेरे कॉलरबोन के नीचे की गांठें गायब हो गईं। सत्र के दौरान थोड़े से मरोड़ आने और बालों के झडऩे के अलावा पूरे इलाज के दौरान मुझे किसी और समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। मैं सामान्य रूप से खाना खाती, सामान्य रूप से सोती और कभी भी मुझे अपना कीमो कैंसल नहीं करना पड़ा। मैं अस्पताल में यही इलाज ले रहे दूसरे लोगों को देखती तो पाती कि वे लोग उल्टी कर रहे हैं, उनकी भूख कम हो गई है, उनका वजन कम हुआ है और उनकी हड्डियों का ढांचा दिखने लगा है। इसके विपरीत मैं बिल्कुल ठीक थी। चार महीने के भीतर मैं अपना इलाज खत्म कर केंद्रीय विद्यालय की अपनी टीचिंग जॉब पर वापस लौट आई।

उसी साल आगे चल कर डॉक्टर को मेरे स्तन में एक कड़ी गांठ नजर आई, जिस पर इलाज का कोई असर नहीं हो रहा था। अंत में डॉक्टर ने उसका ऑपरेशन करने का फैसला किया। नवंबर के अंत में मेरे स्तन का ऑपरेशन हुआ। ऑपरेशन से ठीक पहले आखिरी घंटे में मैंने अपनी क्रिया का अभ्यास किया। उस ऑपरेशन के बाद मेरी तबियत में तेजी से हुआ सुधार किसी चमत्कार से कम नहीं था। मैंने सर्दियों की छुट्टियों के बाद 2 जनवरी 2006 से फिर से अपने स्कूल में पढ़ाने जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे मेरा डॉक्टर के पास जाना कम होने लगा और अंत में यह घटकर साल में एक बार हो गया।

तेरह साल बाद, मैं रविवार की एक खूबसूरत व ठंडी सुबह अपने जीवन के तकलीफभरे समय को याद कर रही हूं। अभी मैं 10 किलोमीटर की दौड़ पूरी करके वापस लौटी हूं। साल 2007 से मैं हर तरह की दवा और इलाज से दूर हूं और पिछले दो सालों से डॉक्टर के पास नहीं गई हूं। मैं लगातार ईशा के कार्यक्रमों के लिए वॉलयंटरिंग कर रही हूं, इसके जरिए मुझे उस आनंद की प्राप्ति हुई, जिसके बारे में मुझे छह साल पहले पता चला।

मुझे याद है कि कैसे ईशा के कार्यक्रमों के आयोजन में काम करने वाले और उसका सहयोग करने वाले लोगों को देखकर मैं हैरान हो जाती थी। धीरे-धीरे मैंने स्वयंसेवा नामक प्रक्रिया के आनंद का स्वाद लेना शुरू कर दिया। साल 2013 में चैन्नई में आयोजित मेगा कार्यक्रम में वॉलयंटरिंग करने के बाद मेरा जीवन हमेशा के लिए पूरी तरह से बदल गया। मैं सिर्फ कैंसर से ही लड़कर नहीं जीती, बल्कि घुटन के उस गहरे कुंए से भी बाहर आ गई, जिसमें मैं इस बीमारी के होने से पहले खुद को फंसा हुआ महसूस करती थी। आज मेरे पति ईशा के प्रति मेरे जुड़ाव में पूरा सहयोग देते हैं। मेरे ऑपरेशन के बाद उन्होंने पीना भी छोड़ दिया। मेरे बच्चे भी नियमित तौर पर शांभवी का अभ्यास कर रहे हैं, उन्हें भी ईशा के साथ जुड़ना अच्छा लगता है।

अपने व अपने परिवार के प्रति सद्‌गुरु की कृपा और करुणा के लिए मैं पूरी विनम्रता से उन्हें दंडवत प्रणाम करती हूं।