सद्‌गुरु कडलोर जिले के पलयापटनम गांव की एक सेवानिवृत्त प्रिंसिपल कस्तूरी अपनी दिलचस्प कहानी साझा कर रही हैं। जानते हैं कि कैसे उन्होंने और उनके पति ने मिलकर एक बंजर जमीन को एक छोटे जंगल में बदल दिया। बंजर जमीन में 50,000 पेड़ उगाने से गाँव की पानी की समस्या का भी समाधान हो गया।

उस समय हमारे जीवन में एक तरह का खालीपन आ गया था, जब मेरे पति 33 साल बाद तमिलनाडु बिजली बोर्ड से रिटायर हुए थे। हम इस पशोपेश में थे कि हम किन चीजों में अपने आप को व्यस्त रखें, जो हमें संतुष्टि दे। साथ ही हमें अपनी उम्र का भी खयाल था और हम चाह रहे थे कि काम ऐसा किया जाए जो शारीरिक तौर पर बहुत थकाने वाला भी न हो।
थोड़े सोच-विचार के बाद हमने पूरे उत्साह के साथ अपनी जड़ों की ओर लौटने का मन बनाया। कुछ साल पहले मुझे अपने पिता से विरासत में एक जमीन मिली थी, जो बंजर थी। हमने उसी बंजर जमीन पर खेती करने का फैसला किया।

फिर मुश्किलों का सामना हुआ!

वह जमीन न केवल बंजर थी, बल्कि हर तरह से बेकार थी। उसमें बस कांटेदार झाडिय़ां और चंद पेड़ थे, जिन्हें आस-पास रहने वाले लोग जलावन की लकड़ी के लिए इस्तेमाल कर रहे थे। उसकी मिट्टी, पानी सभी में समस्या थी और काम करने के लिए मजदूर पाना भी समस्या थी। उस गांव का दूसरा नाम ‘चुन्नांबू मोदु’ पड़ गया था, जिसका मतलब होता है ‘चूना पत्थर से भरी जमीन।’ यहां आपको सतह से सिर्फ डेढ़ फीट नीचे चूना पत्थर मिल जाएगा। ऐसी जमीन पर किसी चीज की खेती नहीं की जा सकती।
मगर हमारा इरादा पक्का था कि हम उस जमीन पर खेती जरूर करेंगे। बहुत मेहनत से हमने उस पर कुछ टीक के पेड़ लगाए। हमने अधिक क्षमता वाले मोटर पंपों का इस्तेमाल करके बोरवेल से जमीन की सिंचाई की। मगर जमीन से खारा पानी निकला। उसमें कुछ भी उगाना एक कठिन चुनौती थी। जब हम इन कठिनाइयों से जूझ रहे थे, उसी दौरान मेरे पति ने सद्गुरु की एक वार्ता देखी, जिसमें उन्होंने कहा था कि किस तरह एक पेड़ लगाने से आपका जीवन बहुत हद तक बदल सकता है। कम से कम आप जीवन भर उसकी छाया का आनंद ले सकते हैं। इससे हमें हार न मानने की प्रेरणा मिली। हम हर महीने सैकड़ों पौधे लगाते, मगर उनमें से कुछ ही बच पाते। बहुत से गांववाले हमारा मजाक उड़ाते, कुछ दूसरे लोग हमारी कोशिशों की व्यर्थता पर चिंता जताते और कुछ लोग हमारी मदद के लिए आगे भी आते। मगर इस जमीन पर कोई भी चीज काम नहीं कर रही थी। यहां तक कि सरकारी कृषि विभाग ने भी हमें टोका कि हम अपना समय और पैसा बर्बाद कर रहे हैं। लेकिन हम अपने इरादे से टलने वाले नहीं थे। हमारे खेत के पास ही ईशा के प्रोजेक्ट ग्रीनहैंड्स (पीजीएच) की एक नर्सरी थी, जिससे हमने पौधे खरीदने शुरू किए, क्योंकि वहां पौधे सस्ते थे और अच्छी क्वालिटी के भी थे। हालांकि पौधों के बचने का प्रतिशत थोड़ा सुधरा मगर फिर भी कुछ खास नहीं हो पा रहा था।

अलग-अलग किस्मों के पौधों ने जमीन को रूपांतरित कर दिया

एक दिन पी.जी.एच के नर्सरी मैनेजर ने, यह देखने के बाद कि हम बहुत जल्दी-जल्दी टीक के पौधे खरीद रहे थे, हमें सलाह दी कि हमें टीक के बजाय अलग-अलग किस्म के पौधे लगाने चाहिए। सलाह देने के लिए उन्होंने विशेष रूप से हमारी जमीन को देखने का प्रस्ताव भी रखा। उनके आने के बाद पीजीएच की सलाह पर हमने 2012 में 5000 पौधे खरीदे। कुछ ईशा स्वयंसेवक हमारी जमीन देखने आए ताकि वे हमारे पौधों के बचने की दर को बेहतर करने के लिए सलाह दे सकें। उनकी सलाह पर हमने रासायनिक खाद का इस्तेमाल बंद करके जैविक खाद का इस्तेमाल शुरू किया। यह हमारे लिए एक नई जानकारी थी कि मिट्टी की नमी को बरकरार रखने के लिए हम गिरे हुए पत्तों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और पानी तथा जैविक खाद के इस्तेमाल के लिए हमें इंटरक्रॉपिंग (एक ही जमीन पर पौधों की अलग-अलग किस्में उगाना) का सुझाव भी दिया। एक ईशा स्वयंसेवक ने सुझाया कि इंटरक्रॉपिंग से हमें पेड़ के बड़े होने से पहले ही, कम समय में कुछ आय भी हो जाएगी।
इसके बाद हमारी ज़मीन रूपांतरित होनी शुरू हो गई। पौधे स्वस्थ और पेड़ों में बदलने के लिए उत्साहित नजऱ आने लगे। पूरी ज़मीन बिलकुल अलग और सुंदर नजऱ आने लगी। हमारे गाँव के लोग हैरान होकर इसे देखने आने लगे, पर इन पौधों के पेड़ बनने के बारे में वे अब भी संदेह कर रहे थे। हालाँकि आज, चार साल बाद हमारे इस छोटे से गाँव में 50, 000 पेड़ हैं - ये एक छोटे जंगल की तरह बन गया है। यहाँ 10 से 30 फीट की ऊंचाई वाले पेड़ों की 30 से ज्यादा प्रजातियाँ हैं। हमने इन किस्मों के बारे में पहले कभी सुना भी नहीं था!

पानी की मुश्किलों का भी अंत हो गया

एक और अच्छी बात यह है कि अब गांव में पानी की कोई कमी नहीं है और पानी का खारापन भी काफी कम हुआ है। कई साल पहले मेरे पिता को यह जमीन छोडऩी पड़ी, क्योंकि नजदीकी कुआं सूख गया था। उन्होंने गहराई से पानी खींचने के लिए कई पंपों का इस्तेमाल किया, मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिली। करीब 15 साल पहले जब हम आखिरकार उच्च क्षमता वाले मोटर का इस्तेमाल करके पानी खींचने में कामयाब हुए, तो वह पानी खारा निकला। मगर प्रकृति के इन अनमोल उपहारों यानी पेड़ों ने पूरे गांव में पानी की स्थिति बदलकर रख दी है। पिछले कुछ सालों से अच्छी बारिश न होने के बावजूद पानी आराम से मिल जाता है।
सिरुग्राम के एन. रामामूर्ति, जिन्हें इंटरक्रॉपिंग के लिए कुछ जमीन दी गई है, कहते हैं, ‘हम कस्तूरी अम्मा और भास्कर अप्पा के ऋणी हैं कि उन्होंने हमें अच्छा जीवन जीने का एक मौका दिया। वे हमारे लिए शिव-पार्वती की तरह हैं। वे हमें मजदूरों को रखने के लिए भी पैसा देते हैं इसलिए हम खरपतवार उखाडऩे, सिंचाई जैसे कामों के लिए कई लोगों को काम दे रहे हैं और अच्छा पैसा कमा रहे हैं।’
कुछ ऐसी ही राय बाकी परिवारों की भी थी।

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