सद्‌गुरुसद्‌गुरु बता रहे हैं कि कैसे बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था भी गरीबी मिटाने का साधन हो सकती है। बस हमें समावेशी चेतना लाने की जरुरत है।

प्रश्न : टिकाऊ विकास के संदर्भ में अगर बात की जाए तो योग अमीर व गरीब के बीच की गहरी खाई को कैसे मिटा सकता है?

सिर्फ गरीब बांटना चाहते हैं, अमीर नहीं 

सद्‌गुरु : देखिए, हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि हमने एक ऐसा आर्थिक ढांचा चुना है, जहां हर व्यक्ति केवल अपना फायदा देखता है।

 बात सिर्फ इतनी सी है कि गरीब लोग, जिनके पास कुछ नहीं होता, वे चीजों को बांटने में विश्वास रखते हैं, लेकिन अमीर लोग कभी अपने संसाधनों को बाँटना नहीं चाहते। तो दुनिया में यह एक मजाक बन गया। 
इसमें मानवता के लिए कोई बड़ी कमिटमेंट जैसी चीज नहीं हैं, क्योंकि यह एक बाजार आधारित अर्थव्यवस्था है। इसमें हर व्यक्ति अपनी क्षमता, अपने कौशल के हिसाब से जितना बटोर सकता है, बटोरने की कोशिश करता है। सचमुच यह ‘लूटो और भागो’ वाली अर्थव्यवस्था है। लेकिन हम लोगों ने ऐसी अर्थव्यवस्था को इसलिए अपनाया, क्योंकि दुर्भाग्य से समाजवादी और साम्यवादी यानी कम्युनिस्ट विचारधारा फेल हो चुकी थी। हालांकि इनके फेल होने की वजह यह नहीं थी कि वे बुरी थीं, वजह सिर्फ इतनी थी कि लोग इनके लिए अभी तैयार नहीं थे। बात सिर्फ इतनी सी है कि गरीब लोग, जिनके पास कुछ नहीं होता, वे चीजों को बांटने में विश्वास रखते हैं, लेकिन अमीर लोग कभी अपने संसाधनों को बांटना नहीं चाहते। तो दुनिया में यह एक मजाक बन गया। अगर अमीरों में साझा करने की जागरूकता आ जाती तो कम्यूनिजम अपने आप में एक महान विचार रहा होता। लेकिन हकीकत ये है कि गरीब साझा करने को तैयार है, लेकिन अमीर नहीं। ऐसी ही स्थिति दुनिया में हर जगह है। तो क्या दुनिया को चलाने का यही तरीका सबसे अच्छा है? नहीं। लेकिन क्या हमारे पास इससे बेहतर कोई विचार है? नहीं।

बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था में योग की भूमिका

तो इसीलिए फिलहाल हम ऐसी स्थिति में हैं। इस दिशा में वाकई अगर हम कुछ कर सकते हैं तो सिर्फ यह कि योग को हम अपने जीवन में एक जीवंत अनुभव के रूप में स्थापित करें। योग का मतलब न तो अपने शरीर को मरोडऩा है, न सिर के बल उल्टे खड़ा होना है और ना ही अपनी सांस को रोककर रखना है। योग का मतलब किसी तरह से अपनी भौतिक प्रकृति की सीमाओं को लांघना है। जहां आप खुद को महज अपने भौतिक शरीर के रूप में पहचानने के बजाय, अपने जीवन को एक बड़ी संभावना के रूप में महसूस करना शुरू कर दें। एक बार जब यह चीज जीवंत अनुभव बन जाएगी तो सबके साथ साझेदारी और मिल-जुलकर रहना हर जगह एक आम अनुभव बन जाएगा।

कारोबारी समावेशी हों, तो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था भी सबका कल्याण करेगी

तो क्या इसका मतलब यह है कि इसके बाद हम समुदायों में सबके साथ मिलजुल कर रहना शुरू करने वाले हैं? नहीं। हम अपना कारोबार इस तरह चला सकते हैं जिसमें सबको शामिल करने की भावना हो।

अगर यह जागरूकता हर कारोबारी के भीतर आ जाती है कि उसका कारोबार मूल रूप से मानव कल्याण से जुड़ा है तो आप पाएंगे कि ये जरुरी नहीं होगा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से भेदभाव उपजे। 
हम सरकारी नीतियों के बिना एक ऐसा आर्थिक ढांचा तैयार कर सकते हैं, जो अधिक ‘इनक्लूसिव’ हो यानी जिसमें सबको शामिल करने की भावना अधिक हो। यह काम निजी स्तर पर भी किया जा सकता है, क्योंकि आज दुनिया में ऐसी कंपनियां भी मौजूद हैं जो आकार में देशों के बराबर हैं। कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं, जिनका बजट किसी देश के बजट से भी बड़ा है। आज यह पूरी तरह से संभव है कि बिजनेस को पहले की अपेक्षा ज्यादा इनक्लूसिव तरीके से चलाया जाए। फिलहाल हम सिर्फ फायदे के बारे में सोचते हैं। लेकिन फायदे को लेकर हमारी सोच बहुत ही छोटी अवधि से जुड़ी हुई है। अगर आप चाहते हैं कि आपकी कंपनी अगले सौ साल, दो सौ साल या पांच सौ सालों तक लगातार तरक्की करे, तो इसके लिए यह बेहद जरूरी होगा कि आप अपने ग्राहक को अपना साझेदार बनाएं। आप समाज के हर व्यक्ति को अपनी कंपनी का हिस्सा बनाएं। आप चाहे कुछ भी बना रहे हों, आप चाहे कुछ भी बेच रहे हों, चाहे आपका कोई भी बिजनेस हो, वह सब मानव कल्याण से जुड़ा है - चाहे वह एक सेफ्टी पिन का कारोबार हो या कंप्यूटर का या फिर हवाई जहाज का। अगर यह जागरूकता हर कारोबारी के भीतर आ जाती है कि उसका कारोबार मूल रूप से मानव कल्याण से जुड़ा है तो आप पाएंगे कि ये जरुरी नहीं होगा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से भेदभाव उपजे। पूंजीवादी तरीके का मतलब सभी का कल्याण हो सकेगा

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