इस माह के ईशा लहर अंक में हम कुम्भ मेले के महत्व के बारे में चर्चा कर रहे हैं। क्या है इसके पीछे छुप्पा विज्ञान और अनेक पहलू, जानें इस अंक में...

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बचपन से कुंभ मेले के किस्से-कहानियों ने हमारे दिलो-दिमाग को रोमांचित व उद्वेलित किया है। कुंभ मेले के विचार मात्र से ही मानस में कई चित्र उभर आते हैं - श्रद्धालुओं और भक्तों का एक विशाल हुजूम, विभिन्न संप्रदायों व अखाड़ों के साधुओं का एक अपूर्व जमघट, गांजा चिलम भरते दिगंबर साधुओं की बौराई मंडली, लंबी उलझी जटाओं वाले नाचते-गाते अघोरी व औघड़ संन्यासी, नदी में एक साथ डुबकी लगाते लाखों नर-नारी, बच्चे, बूढ़े, जवान...कुल मिलाकर एक अलौकिक दृश्य। मानस में अंकित इस अद्भुत घटना को आयोजन स्थल पर जाकर देखने और वहां के पवित्र जल में डुबकी लगाने की हमेशा एक लालसा रही।

थोड़े बड़े होने पर, जब मन विश्वास को तर्कों पर तौलने लगा, कुंभ मेले का रोमांच व आकर्षण कम होने लगा। कॉलेज के दिनों में हम इसे महज एक ढकोसला मानने लगे। हमारी तार्किक बुद्धि कहती कि यह हमारी अशिक्षा और जनसंख्या विस्फोट का प्रतीक मात्र है। आधुनिक शिक्षा के चश्में से यह एक अंधविश्वास नजर आता था, जिसकी जड़ें देश की गरीबी और पिछड़ेपन में जमी हुई थीं।

पर जब से सद्गुरु का सान्निध्य मिला है, हम समझने लगे हैं अपनी आध्यात्मिक व सांस्कृतिक धरोहर को, पर्व-त्यौहारों के पीछे छिपे विज्ञान को, और उन महती संभावनाओं को, जिन्हें ये हमारे जीवन में लेकर आते हैं। सद्गुरु कहते हैं कि हमारी संस्कृति के हर पहलू को कुछ इस तरह से गढ़ा गया है कि ये हमें हमेशा परम मुक्ति की ओर ढकेलती हैं।

शायद हम यह न समझ सकें कि परम मुक्ति क्या है, पर मुक्ति को बखूबी समझा जा सकता है। जेल में वर्षों से कैद किसी कैदी की अचानक रिहाई उसकी दुनिया बदल देती है... उसे मिलती है एक नयी जमीन, एक नया आसमान। इसी तरह हम मानसिक स्तर पर भी कई तरह से कैद हैं। हमारे मन में नफ रत, ईष्र्या, घृणा, कपट, डर... जैसी न जाने कितनी गांठें पड़ी हैं। कभी ऐसा होता है कि हम जिस शख्स से नफ रत करते थे, उसे प्रेम करने करने लगते हैं और अचानक मन की कुछ गांठें खुल जाती हैं और एक सुकून भरा एहसास होता है- हृदय पटल विस्तार पाता है और जिंदगी थोड़ी सुहानी लगने लगती है।

कर्म के स्तर पर भी कई तरह की गांठें पड़ी हैं, इन्हें कार्मिक गांठ कहते हैं। इन कार्मिक गांठों ने इंसान जैसे एक असीम प्राणी को सीमाओं और सरहदों में बांध रखा है, ठीक वैसे ही जैसे किसी खुले आसमान के पक्षी को पिंजड़े में कैद कर दिया गया हो। इंसान के संपूर्ण जीवन की आकुलता व फ डफ़ ड़ाहट इन्हीं कार्मिक गांठों के पिंजड़े से बाहर निकलने की है। हमारी संस्कृति में मनाए जाने वाले सभी पर्व-त्यौहार हमें अपनी कार्मिक गांठों को खोलने या कम से कम ढ़ीला करने का एक अवसर प्रदान करते हैं। कुंभ का यह महापर्व एक ऐसा ही दुर्लभ अवसर है, जहां हम अपनी गांठों को विसर्जित करके परम मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

इस बार सिंहस्थ कुंभ का आयोजन हो रहा है महाकाल की नगरी उज्जैन में। आखिर उज्जैन ही क्यों? क्यों किसी स्थान विशेष को इतना महत्व दिया गया? कुंभ के पीछे के विज्ञान और उसके कुछ अन्य पहलुओं को इस अंक में हमने समेटने की कोशिश की है। कुंभ में डुबकी लगाने की आपकी कामना तो हम पूरी नहीं कर सकते, लेकिन आशा है ईशा लहर का यह अंक आपके मानस को कुंभ में एक डुबकी लगाने जैसा अनुभव अवश्य देगा। यह कुंभ मानव-मात्र के जीवन में संभावनाओं के द्वार खोले और उसकी मुक्ति को सहज बनाए, इस कामना के साथ आइए हम अपनी संस्कृति के इस महापर्व में शामिल हो जाएं...

- डॉ सरस

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