समझ और शक्ति भरी जीवनशैली
आज के स्पॉट में सद्गुरु अपने भ्रमण की व्यस्तता की बात के साथ ही भरे मन से इस बात की भी चर्चा कर रहे हैं कि कैसे अंग्रजों ने दोनों विश्व युद्ध के दौरान हमसे जबरदस्ती कुर्बानियां लीं थी। बस अब और नहीं . . . अब समय आ गया है मजबूती और समझदारी के साथ रहने का।
आज के स्पॉट में सद्गुरु अपने भ्रमण की व्यस्तता की बात के साथ ही भरे मन से इस बात की भी चर्चा कर रहे हैं कि कैसे अंग्रजों ने दोनों विश्व युद्ध के दौरान हमसे जबरदस्ती कुर्बानियां लीं थी। बस अब और नहीं . . . अब समय आ गया है मजबूती और समझदारी के साथ रहने का।
ईशा केंद्र में बड़े प्रोजेक्ट्स से जुड़ीं गतिविधियों तेजी से आगे बढ़ रही हैं। इन दिनों अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और ईशा टीचर्स ट्रेनिंग की तैयारियों की व्यस्तता के बीच मुझे जोधपुर की यात्रा करनी पड़ी। वहां मुझे ‘हेड इंजरी फाउंडेशन’ के समारोह में भाग लेने जाना था।
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मेहरानगढ़ किले का परिसर अपने आप में हैरतअंगेज है। यह समारोह काफी प्रभावशाली होने के साथ-साथ बेहद उत्कृष्ट दर्जे का है। जोधपुर महाराजा के साथ मिलकर ईशा उनके एक अन्य किले नागोर में एक आयोजन फरवरी 2016 में करने जा रही है। देखते रहिए।
जोधपुर के रास्ते में मैंने 3000 किलोमीटर का एक और चक्कर लगा डाला। दरअसल, इसी बीच मैं असम में गुवाहाटी की यात्रा कर आया, जहां मैंने भारत के उत्तर पूर्वी इलाके के कुछ वन सेवा अधिकारियों को संबोधित किया। देश का तकरीबन 25 फीसदी वनक्षेत्र देश के उत्तर पूर्व इलाके में पड़ता है, जो अपने जैव विविधता और जंगली जीवन की समृद्धि के लिए जाना जाता है। साथ ही, यहां आदिवासी संस्कृति और परंपरा की समृद्धी भी देखने को मिलती है। यह इलाका अपनी सांस्कृतिक विरासत को अच्छी तरह संजोने के लिए भी जाना जाता है।
इस इलाके का खनन और औद्योगिक दोहन करने की बजाय अगर इसे प्राकृतिक और सांस्कृतिक पर्यटन केंद्र की तरह विकसित किया जाए तो बहुत अच्छा होगा। इस दृष्टि से अगर इस इलाके में अंतरराष्ट्रीय स्तर के ढांचे को तैयार किया जाए तो इसकी प्राकृतिक संपदा और अनूठी संस्कृति को नष्ट किए बिना इस इलाके को विकसित किया जा सकता है।
फिलहाल मैं दिल्ली में हूं, जहां मुझे ढेर सारी मीटिंग्स में भाग लेना है। इसी दौरान मुझे पता चला है कि प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय हिस्सेदारी के सौ साल पूरे होने पर शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है।
तकरीबन एक लाख लोग गंभीर रूप से घायल हुए और ना जाने कितने लोग लापता हो गए। ये जांबाज सिपाही अनजाने इलाकों में अनजाने हथियारों से विपरीत हालातों में लड़े। इन लोगों ने सर्दी के मौसम का सामना गर्मी के कपड़ों से किया। इस विश्व युद्ध में हजारों ने अपना जीवन और अंग गंवा दिया, लेकिन देश इनके व इनके परिवार के बलिदान के बारे में अनजान रहा। इनके परिवार को महज 15 रुपये के मासिक वेतन के बदले काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। मानो इतना ही काफी नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध में एक बार फिर तकरीबन 20 लाख जांबाज हिंदुस्तानी सिपाहियों को जबरदस्ती भाग लेना पड़ा। जिसमें से तकरीबन पंद्रह लाख लोगों ने अपनी जिदंगी गंवा दी। और यह लड़ाई उन दमनकारी अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थी, बल्कि उनके लिए लड़ी गई थी।
हालांकि देश की आजादी दिलाने का श्रेय देश की राजनैतिक समझदारी और अहिंसा के रास्ते को दिया गया, लेकिन मैं बहुत भारी दिल से यह लिख रहा हूं कि हमें कई बार बेवकूफ बनाया गया है। पर अब समय आ गया है कि भारत मजबूती और समझदारी के साथ रहे।