सद्गुरु   सद्‌गुरु जीवन और मृत्यु के कुछ बुनियादी पहलुओं के सहारे आपकी मृत्यु को अमरता में बदलने का रहस्य बता रहे हैं -

 सद्‌गुरु:

लोगों के साथ सिर्फ यही समस्या है कि उनमें जरूरत के अनुसार तीव्रता नहीं है। अगर उनमें पर्याप्त तीव्रता होती, तो हमें चरम लक्ष्य को पाने के लिए पूरी जिन्दगी मेहनत नहीं करनी पड़ती, वह काम आज ही हो जाता।

मुझे लोगों के साथ सिर्फ यही समस्या है कि उनमें जरूरत के अनुसार तीव्रता नहीं है। अगर उनमें पर्याप्त तीव्रता होती, तो हमें चरम लक्ष्य को पाने के लिए पूरी जिन्दगी मेहनत नहीं करनी पड़ती, वह काम आज ही हो जाता। मृत्यु का पल या मृत्यु की संभावना अधिकतर लोगों के जीवन का सबसे तीव्र अनुभव होता है। उनमें से अधिकांश लोग तीव्रता के उस स्तर को अपने जीवन-काल में कभी महसूस नहीं कर पाते। उनके प्रेम में, उनकी हंसी में, उनकी खुशी में, उनके आनंद में, उनके दुख में – किसी भी स्थिति में वैसी तीव्रता नहीं होती।

इसी वजह से शिव श्मशान या कायांत में जाकर बैठते और इंतजार करते हैं। 'काया' का अर्थ है 'शरीर' और 'अंत' का मतलब है 'खत्म होना'। कायांत का अर्थ है – जहां शरीर खत्म हो जाता है, न कि जहां जीवन खत्म होता है। अगर आप अपने जीवन में केवल अपने शरीर को ही जानते हैं, तो जिस पल आप शरीर छोड़ते है, वह पल आपके जीवन का सबसे तीव्र पल बन जाता है। अगर आप अपने शरीर के परे कुछ जानते हैं, तो शरीर का छोड़ना बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। जिस किसी ने भी यह पहचान लिया है कि वह कौन है, और क्या है; उसके लिए कायांत उतना बड़ा पल नहीं होता। वह सिर्फ जीवन का एक और पल है, बस। लेकिन जिन्होंने सिर्फ एक स्थूल शरीर के रूप में जीवन जिया  है- जब उन्हें शरीर के रूप में सब कुछ छोड़ना पड़ता हैं, तब वह पल बहुत ही तीव्र होता है।

अगर आप सिर्फ एक काया न बनकर, जीव बन जाएं; अगर आप सिर्फ एक जीवित शरीर नहीं, बल्कि एक जीवित प्राणी बन जाएं- तो अमरता आपके लिए एक स्वाभाविक स्थिति होगी। 
अमरता हर किसी के लिए एक स्वाभाविक स्थिति है। नश्‍वरता एक गलती है। यह जीवन के बारे में गलत समझ है। स्थूल शरीर का कायांत, निश्चित रूप से आएगा। लेकिन अगर आप सिर्फ एक काया न बनकर, जीव बन जाएं; अगर आप सिर्फ एक जीवित शरीर नहीं, बल्कि एक जीवित प्राणी बन जाएं- तो अमरता आपके लिए एक स्वाभाविक स्थिति होगी। आप नश्वर हैं या अमर, यह केवल आपकी समझ पर निर्भर करता है; इसके लिए अस्तित्व में किसी बदलाव की जरूरत नहीं है।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

इसी कारण ज्ञान-प्राप्ति को आत्म-अनुभूति के रूप में देखा जाता है- किसी उपलब्धि के रूप में नहीं। अगर आप उसे देख सकते हैं, तो वह आपके लिए उपलब्ध है। अगर आप उसे नहीं देख सकते, तो वह आपके लिए उपलब्ध नहीं है। यह बात केवल अनुभव की है, इसके लिए किसी बुनियादी, अस्तित्व संबंधी बदलाव की जरूरत नहीं। अगर आप केवल अपनी इंद्रियों का ही नहीं, बल्कि अपनी प्रज्ञा का भी इस्तेमाल करते हैं; तो आप सिर्फ काया ही नहीं, बल्कि जीव को भी जानते हैं- और आप स्वाभाविक रूप से अमर हैं, शाश्वत हैं। आपको अमरता पाने के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं, आपको बस इसे समझने की जरूरत है।

इसलिए शिव ने श्मशान को अपना डेरा बना लिया। 'श्म' का मतलब 'शव' से और 'शान' का मतलब 'शयन' या 'बिस्तर' से है। जहां शव पड़े होते हैं, वहीं वह रहते हैं क्योंकि उन्हें पता था कि जीवित लोगों के साथ काम करना समय की बर्बादी है। आप लोगों को तीव्रता की उस सीमा तक नहीं ले जा सकते, जो जरूरी है। उन्हें थोड़ा और तीव्र बनाने के लिए बहुत तरकीबें लगानी पड़ती है।

दो बुनियादी शक्तियां

हमारे जीवन में अधिक जागरूकता और बुद्धिमत्ता आ गई है, यही समय है जब सिर्फ जीवित रहने की भावना को दबा कर असीम बनने की चाह को बढ़ाया जाये।
तीव्रता इसलिए नहीं उठती, क्योंकि आपने जीवित रहने की भावना को सबसे अधिक महत्व दे दिया है। इस शरीर में दो बुनियादी इच्छाएं हैं। एक है जीवित रहने की भावना, दूसरी असीम बनने की चाह। अगर आप जीवित रहने की भावना को प्रबल बनाते हैं, तो जीवन की गति मंद हो जाती है। क्योंकि जीवित रहने का मतलब बिना जोखिम लिए सुरक्षित चलना है। अगर आप असीम होने की चाह को प्रबल बनाते हैं, अगर आप असीमित विस्तार चाहते हैं; और अगर आपकी सारी ऊर्जा उसी पर लगी हुई है, तो आपके जीवन में पूर्ण तीव्रता होगी।

जीवित रहने की भावना हर दूसरे जीव में प्रबल है। विकास के चरणों को तय करते हुए मनुष्य बन कर, हमारे जीवन में अधिक जागरूकता और बुद्धिमत्ता आ गई है, यही समय है जब सिर्फ जीवित रहने की भावना को दबा कर असीम बनने की चाह को बढ़ाया जाये। इन दोनों ताकतों में से एक हमेशा आपके अंदर तीव्रता को बढ़ाने की कोशिश करती है और दूसरी हमेशा आपको सुस्त बनाने की कोशिश करती है। दुर्लभ संसाधनों को बचाने की जरूरत हो सकती है, लेकिन जीवन तत्व दुर्लभ नहीं है।

शिव आपके नाटक से ऊब गए हैं

शिव आपसे और आपके नाटक से ऊब कर श्मशान में बैठते हैं, वह ऊब जाते हैं क्योंकि हर कहीं नितांत बेवकूफाना नाटक चल रहा है। असली चीज सिर्फ श्मशान में होती है।
शिव आपसे और आपके नाटक से ऊब कर श्मशान में बैठते हैं, वह ऊब जाते हैं क्योंकि हर कहीं नितांत बेवकूफाना नाटक चल रहा है। असली चीज सिर्फ श्मशान में होती है। जन्म और मृत्यु के समय ही शायद कोई असली अनुभव घटित होता है। मैटरनिटी होम और श्मशान ही दो उपयुक्त स्थान हैं, हालांकि आजकल जन्म लेने की घटना थोड़ी अधिक घटित हो रही है।

शिव ऐसे स्थान पर बैठे हुए हैं, जहां जीवन सबसे अधिक अर्थपूर्ण है। लेकिन अगर आप डरे हुए हैं, अगर आप जीवित बने रहने यानी आत्मरक्षा की सोच रहे हैं, तो आप इस बात को समझ नहीं पाएंगे। अगर आप विस्तार पाने और चरम को छूने की चाह रखते हैं, तभी आप इस बात को समझ पाएंगे। वह उन लोगों में दिलचस्पी नहीं रखते जो जीवित बने रहना चाहते हैं। गुजर बसर करने के लिए आपको बस चार हाथ-पैर और दिमाग की कुछ सक्रिय कोशिकाओं की जरूरत होगी। चाहे वह केंचुआ हो, टिड्डा हो या कोई दूसरा जीव – ये सब अपना जीवन चला रहे हैं, ठीक-ठाक हैं। आपको जीवित बने रहने के लिए बस उतने ही दिमाग की जरूरत है। इसलिए अगर जीवन-रक्षा मोड पर चल रहे हैं, अगर आपके अंदर आत्मरक्षा की भावना सबसे प्रबल है, तो वह आपसे ऊब जाते हैं, वह आपके मरने का इंतजार कर रहे हैं।

वह श्मशान में इंतजार करते हैं ताकि शरीर नष्ट हो जाए, क्योंकि जब तक शरीर नष्ट नहीं होता, आस-पास के लोग भी यह नहीं समझ पाते कि मृत्यु क्या है।
उन्हें संहारक माना जाता है, इसलिए नहीं कि वह आपको नष्ट करना चाहते हैं। वह श्मशान में इंतजार करते हैं ताकि शरीर नष्ट हो जाए, क्योंकि जब तक शरीर नष्ट नहीं होता, आस-पास के लोग भी यह नहीं समझ पाते कि मृत्यु क्या है। आपने देखा होगा कि जब लोगों के किसी करीबी की मृत्यु होती है, तो वे शव पर पछाड़ खा कर गिरते हैं, उसे गले लगाते हैं, चूमते हैं, उसे जिन्दा करने की कोशिश करते हैं, बहुत सी चीजें करते हैं। लेकिन एक बार जब आप शव को आग लगा देते हैं, तो कोई जाकर लपटों को नहीं चूमता। आत्मरक्षा की उनकी प्रवृत्ति उन्हें बताती है कि यह वह नहीं है।

यह सही और गलत का सवाल नहीं है, बल्कि सीमित समझ के मुकाबले चरम समझ का सवाल है। क्या सीमित होना गलत है? नहीं। लेकिन सीमित होना कष्टदायक है। क्या कष्ट में होना गलत है? नहीं। अगर आपको उसमें आनंद आता है, तो मुझे क्या परेशानी है? मैं किसी चीज के खिलाफ नहीं हूं। मुझे सिर्फ यह पसंद नहीं है कि आप जाना एक दिशा में चाहते हैं लेकिन जा उसके विपरीत दिशा में रहे हैं।

मैं सिर्फ नासमझी के खिलाफ हूं क्योंकि मानव जीवन की खासियत यही है कि आपके अंदर किसी अन्य जीव से अधिक समझ है, या होनी चाहिए, लेकिन बहुत से लोग इसे गलत साबित करने की कोशिश में लगे हैं। सृष्टि का मतलब बुद्धिमत्ता है। स्रृष्टा का मतलब है, परम बुद्धिमत्ता। बदकिस्मती से बहुत से लोग जो हर तरह की परेशानी में हैं, ईश्वर की बातें करते हैं और अधिकतर लोग ईश्वर के बारे में तभी बात करते हैं, जब वे परेशान होते हैं। बढ़िया, ठंढे पानी से नहाते समय आप सिनेमा का गाना गुनगुनाएंगे। अगर हम आपको बहुत ठंढे तीर्थकुंड में डाल दें, तो आप ‘शिव, शिव’ करेंगे। जैसे ही कोई परेशानी सामने आती है, आपके दिमाग में शिव आते हैं। जब जीवन आपकी इच्छा के अनुसार चलता है, तब आप हर तरह के लोगों और हर तरह की चीजों के बारे में सोचते हैं। अगर कोई आपके सिर पर बंदूक तान दे तो आप कहेंगे ‘शिव, शिव’। इस अवसर पर उन्हें पुकारना गलत हैं। वह श्मशान में इंतजार करते हैं। अगर कोई आपके सिर पर बंदूक तानता है और आप बचाने के लिए शिव को बुलाते हैं, तो वो नहीं बचाएंगे।

पीछे नहीं मुड़िए आगे बढ़िए

अगर आप बेकार की चीजों में तीव्रता ला सकते हैं, तो वह भी काम करेगा।
जीवन में पीछे की ओर मुड़ना काम नहीं आता। अगर आप आगे की ओर भागें, तो चाहे किसी भी दिशा में जाएं, चाहे आप जो भी करना चाहें – गाएं, नाचें, ध्यान करें, रोएं, हंसें, जब तक वह आपको तीव्रता के अधिक ऊंचे स्तर तक ले जाता है, वह कारगर होगा। अगर आप उसे पीछे की ओर ले जाना चाहें, तो वह काम नहीं करता। बहुत से इंसानों को दुखी करने के लिए आपको उन्हें छुरी भोंकने की जरूरत नहीं है। आप बस उन्हें अकेला छोड़ दें, तो वो दुखी हो जाएंगे। आत्मरक्षा की उनकी भावना सारी सीमाएं पार कर गई हैं और वह जीवन की काट-छांट करते हुए उसे पीछे मोड़ने की कोशिश कर रही है। श्मशान में बैठे हुए शिव का संदेश है – चाहे आपकी मृत्यु हो जाए, वह काम करेगा; लेकिन अगर आप जीवन की काट-छांट करेंगे, तो यह काम नहीं करेगा। आप जीवन की काट-छांट करते हैं या जीवन को घटित होने देते हैं- यह इस पर निर्भर नहीं करता कि आप क्या करते हैं और क्या नहीं; बल्कि इस पर निर्भर करता है कि अभी आपकी जीवन प्रक्रिया कितनी जोशीली और तीव्र है।

यह प्रश्न नहीं है कि आप जो करते हैं- वह उपयोगी है या नहीं। अगर आप बेकार की चीजों में तीव्रता ला सकते हैं, तो वह भी काम करेगा। लेकिन आप जो भी करते हैं, उसमें आपको अर्थ की जरूरत होती है। जब तक वह काम सार्थक न हो, उपयोगी न हो, आप अपने आप को उसमें नहीं झोंक सकते। उस संदर्भ में, सार्थकता और उपयोगिता महत्वपूर्ण हैं। वरना सार्थकता और उपयोगिता मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक चीजें होती हैं। वे प्रेरणा देते हैं, वे खुए में एक अंत नहीं हैं।