सद्‌गुरुजीवन की किसी घटना को लेकर, कभी कभी मन में शर्म या फिर अपराधी होने के भाव जागते हैं। आइये जानते हैं कि ये भाव उन लोगों की प्रगति को रोक सकते हैं जो अध्यात्मिक मार्ग पर हैं...


युक्ति : सद्‌गुरु, शर्म और अपराधबोध के बारे में हम जानना चाहते हैं। ऐसा क्यों है कि बहुत सारे लोग खुद को पसंद किए जाने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं?

सद्गुरु : ओह! खुद को पसंद करना? होना ये चाहिए - कि आपको कोई दूसरा व्यक्ति पसंद करे। ‘मैं खुद को ही पसंद करता हूं’ - भला ये क्या बात हुई? मैं जानता हूं कि यह विचार और सोच हर तरफ फैला हुआ है। खासकर अमेरिका के पश्चिमी तट में तो इसका बोलबाला है। मैं इस बार कैलिफोर्निया गया तो वहां स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में लोग भाषण दे रहे थे - ‘आपको अपने प्रति भी करुणा जरूर रखनी चाहिए।’ मैंने कहा, ‘अगर आपको किसी को पसंद करना है, किसी से प्रेम करना है, किसी के प्रति करुणा रखनी है तो इसके लिए दो अस्तित्वों की जरूरत होती है। अगर आपने अपने भीतर ही दो अस्तित्वों का निर्माण कर लिया है तो फिर या तो आप स्किटजोफ्रेनिक हैं (जिसे खंडित मनोदशा भी कहते हैं) या फिर आप भूतग्रस्त हैं। आपको पता ही होगा कि ऐसे में आपको किसकी जरूरत है।

खुद को प्रेम करना बीमारी है

आपको या तो एक मनोचिकित्सक की या फिर एक ओझा की जरूरत है। जब हम एक व्यक्ति की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है - वह जो आगे दो में विभाजित न हो सके। इस खेल को मत खेलिए। अगर आपने खुद को ऐसा बना लिया है कि आपका कोई मित्र नहीं है फिर भी आप यह खेल मत खेलिए। अगर आप अकेले रहने में सक्षम नहीं हैं, तो आपने अपने भीतर ही दो वजूद पैदा कर लिए हैं। मैं फिर कहता हूं - ऐसा मत कीजिए, इस खेल को मत खेलिए। शुरू में तो इसमें मजा आ सकता है। लेकिन एक बार अगर यह चीज आपके भीतर पैठ गई तो आप बीमार हो जाते हैं।

मैं चाहता हूं कि आप इस बात को समझें कि समझदारी और पागलपन के बीच की रेखा बहुत बारीक है। अगर आप इसे बार-बार धकेलेंगे तो आप दूसरी ओर पहुंच जाएंगे। उसके बाद आपको पता ही नहीं चलेगा कि आप कहां हैं?

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एक बार की बात है कि शंकरन पिल्लई ने बेंगलुरू के निमहैंस संस्थान के मनोचिकित्सा वार्ड में फोन किया और पूछा, ‘क्या मि. पिल्लई कमरा नंबर 21 में हैं?’ रिसेप्शनिस्ट ने जवाब दिया, ‘एक मिनट इंतजार कीजिए। मैं देखकर बताती हूं।’ उसने जा कर देखा और फिर जवाब दिया, ‘नहीं, वे यहां नहीं हैं।’ यह सुनते ही शंकरन के मुंह से निकला- ‘हे भगवान! फिर तो यह सच है कि मैं अस्पताल से भाग चुका हूं।’ अगर एक बार आपने यह खेल शुरू कर दिया तो फिर आप भी नहीं जानते कि आप कहां हैं।

खुद को दो में मत बाँटिए

इसलिए अपने आप को पसंद करना मत शुरू कीजिए। आपमें पसंद करने जैसा क्या है? ‘तो क्या मैं खुद को नापसंद करूं?’ आप इस तरह से सोचते क्यों हैं? पसंद या नापसंद करने का सवाल ही कहां हैं? आप जीवन का एक अंश हैं, आपके भीतर जीवन का बुनियादी हिस्सा है। इसे पसंद करने या नापसंद करने की जरूरत ही नहीं। अगर आप इस जीवन के अंश को ‘मैं’ के रूप में देखते हैं, कुछ और नहीं, सिर्फ मैं, तो आप इसे अच्छी तरह रख पाएंगे। क्या आप खुद को कभी खराब ढंग से रखना चाहेंगे या किसी ऐसे तरीके से रखना चाहेंगे जो लोगों के लिए अरुचिकर हो, नापसंद हो? आप इसे अच्छे से रखना चाहेंगे, क्योंकि यह आप खुद हैं। अगर दो लोग होंगे तो दो लोगों का रखरखाव और मेकअप मुश्किल होगा। एक होगा तो आप उसे हमेशा अच्छे से रखेंगे। अगर आप इसे दो में बांटते हैं तो समझ लीजिए कि आप एक मनोवैज्ञानिक खेल खेल रहे हैं और पागलपन या उन्माद को दावत दे रहे हैं।

अगर आप कुछ ऐसे ही लोगों के साथ रह रहे हैं तो हो सकता है कि सब सामान्य लगता हो, लेकिन मेरा यकीन मानिए कि अगर जीवन के हालात आपको धकेलते रहें या आप पर दबाव बनाते रहें तो आप पागल हो जाएंगे। अगर जीवन के हालात आपके लिए सहायक हुए तो आप यह खेल खेल कर न सिर्फ जी सकेंगे, बल्कि आराम से निकल जाएंगे लेकिन आपके जीवन में कुछ खास महत्वपूर्ण घटित नहीं होगा। क्योंकि जब तक आप अकेले नहीं होंगे, आप रूपांतरित नहीं हो सकते, आप किसी चीज से परे नहीं जा सकते। कोई भी भीड़ कभी रूपांतरित नहीं होती।

शर्म और अपराध बोध सामाजिक सोच से जुड़े हैं

तो शर्म और अपराधबोध को लेकर आपके जो विचार हैं, वो एक सामाजिक घटना है, या कहें कि सामाजिक सोच की उपज है। जिन चीजों को लेकर किसी एक समाज में लोग अपराधबोध महसूस करते हैं, वही चीजें किसी दूसरे समाज में अपराधबोध पैदा नहीं करातीं। अपराधबोध और डर स्वाभाविक चीजें नहीं हैं। अगर इस धरती पर धार्मिक सीख या उपदेश नहीं होते तो निश्चित रूप से ऐसी चीजें नहीं होतीं। ये कुछ खास तरह के धर्म हैं, जिन्होंने आपके भीतर हर चीज को लेकर अपराधबोध भरा है। अगर आप दुनिया के दो तीन बड़े धर्मों को ले लीजिए और उन सभी चीजों की सूची बनाइए, जिन्हें ये धर्म पाप समझते हैं और मानते हैं कि इन्हें लेकर आपमें अपराधबोध होना चाहिए तो फिर आपको अपने जिंदा होने पर भी अपराधबोध होने लगेगा। क्योंकि आपका जन्म भी एक पाप है। जी हां, आप इस तरह की सोच से बच नहीं सकते। अब अगर ऐसी बातें आपके मन में आ गईं तब तो आपका काम ही तमाम है, आप तो खत्म हैं। फिर आप पूरा जीवन अपराधबोध महसूस करते रहिए।

जब आप अपराधबोध महसूस करते हैं तो आप कुछ पैसे देने को तैयार हो जाते हैं। यह कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि सीधा धंधा है। यह एक महान कारोबारी या उद्यमी विचार है, सनातन उद्यम है। निस्संदेह यह एक सनातन उद्यम है, क्योंकि ऐसे पैसे बटोरने का काम चलता ही रहता है। अगर आप अपने जन्म को लेकर ही अपराधबोध से ग्रस्त हैं तो आपको ठीक कैसे किया जा सकता है। आपको ठीक करने का कोई तरीका ही नहीं है। आप हमेशा अपराधबोध से घिरे रहेंगे, हमेशा आप अपने पापों को स्वीकार करते रहेंगे, हमेशा आप पैसे देते रहेंगे। और यह धंधा हमेशा चलता रहेगा। ये सारी चीजें वहीं से आती हैं। वर्ना शर्म और अपराधबोध इंसान में होते ही नहीं। अगर हममें शर्म और अपराधबोध की कोई गुंजाइश ही नहीं होती तो हम अपने कर्मों को सुधार लेते। फि लहाल शर्म और अपराधबोध हमारे जीवन के एक बहुत बड़े हिस्से को धुंधला बना रहे हैं। हम बार-बार वही मूखर्ताएं कर सकते हैं, उनके बारे में अपराधबोध से घिर सकते हैं, अपने अपराधबोध को दूर करते हैं और फिर वही चीजें दोबारा करते हैं, यह सिलसिला अंतहीन चलता जाता है।

ज्यादा अपराध बोध उसी तरह के कामों को बढ़ावा देता है

जिन लोगों को जीवन में बहुत ज्यादा शर्म और अपराधबोध के बारे में सिखाया गया, वे लोग ही जीवन में कई ऐसे काम करते हैं। क्योंकि शर्म और अपराधबोध आपके जीवन में एक ऐसा धुंधला क्षेत्र पैदा कर देता है, जिसके इर्द-गिर्द आप ऐसे काम कर सकते हैं। हालांकि अपराधबोध से उबरने का रास्ता हमेशा खुला है। ऐसा नहीं है कि इससे निकला नहीं जा सकता। इससे निकला जा सकता है, हर हफ्ते आप इससे बाहर निकल सकते हैं।

तो चेतना एक चीज है और अंत:करण दूसरी चीज। चेतना इस जीवन और अस्तित्व का सार है। जब हम आध्यात्मिक प्रक्रिया की बात करते हैं तो हमारा आशय चेतना से होता है, न कि अंत:करण से।

अंत:करण एक सामाजिक रूप से तैयार किया गया ताना-बाना है, जो आमतौर पर धार्मिक बुनियाद पर टिका होता है। यह आपमें ‘इसे’ या ‘उसे’ लेकर अथवा अपने जीवन में किए जा रहे हर काम को लेकर अपराधबोध का भाव जगाता है। जब आपमें अपराधबोध जागता है तो आप किसी न किसी रूप में किसी न किसी व्यक्ति के अधीन हो जाते हैं। आपमें अंत:करण की जरूरत नहीं है, आपमें चेतना की जरूरत है, क्योंकि चेतना समग्र होती है, जो सबको समाहित कर लेती है। इस समग्रता में आपके कर्म अपने आप ठीक हो जाते हैं।

समग्रता ही समाधान है

ऐसा इसलिए नहीं है कि आपको लगता है कि यह चीज गलत है और आप उसे नहीं करते। दरअसल, आप जानते हैं कि यह खुद के लिए नहीं काम करेगी, इसलिए आप इसे औरों के लिए भी नहीं करना चाहेंगे। सिर्फ इतनी सी बात है। चेतना आपको सुधारती है, क्योंकि इसमें सबके बारे में सोचा जाता है। अंत:करण आपको डर, अपराधबोध, सजा और शर्म जैसी चीजों से सुधारने की कोशिश करता है।

इंसान में डर, शर्म, अपराधबोध आदि कोई सराहनीय या प्रशंसनीय भाव नहीं हैं। ये चीजें इंसान के अंदर अभागा या हीन होने का भाव भरती हैं और आप किसी भी ऐसे इंसान से प्रगति या तरक्की की उम्मीद नहीं कर सकते, जो अपने आप को अभागा या हीन समझता हो। इसका मतलब हुआ कि इंसान की तरक्की में शर्म और अपराधबोध पैदा करने वालों की कोई दिलचस्पी नहीं है। न तो लोगों के रूपांतरण को लेकर उनमें कोई रुचि है, और ना ही उन्हें उसकी सीमाओं से परे भेजने में कोई दिलचस्पी है। आपकी दिलचस्पी सिर्फ उस पर लगाम लगाने में है, और यहीं से अपराधबोध और शर्म के भाव पैदा होते हैं। यह चीज सामाजिक अंत:करण के कारण आ रही है, न कि व्यापक चेतना के कारण।