क्या संतोष ही परम सुख है? क्या इच्छाएं करना गलत है? हममें से ज्यादातर लोग इन दोनों ही सवालों के जवाब हां में देंगे, लेकिन सद्‌गुरु कहते हैं कि संतोष बुरी बात है। चाहो, सब कुछ चाहो। आइए पूरी बात विस्तार से समझते हैं:

आप जीवन से ज्यादा नहीं मांग रहे हैं, इसीलिए आप संतुष्ट हैं।
आपमें से बहुत सारे लोगों की परवरिश ऐसे वातावरण में हुई होगी, जिसमें यह सिखाया जाता है कि 'संतोष' ही सबसे बड़ा गुण है। आपके पास जो भी है, अगर आप उससे संतुष्ट हैं तो इसका सामान्य सा अर्थ यह है कि आप जीवन की बड़ी संभावनाओं से अवगत ही नहीं हैं। आप अभी जो हैं, अगर आप उसी से संतुष्ट हैं तो आपको यह पता ही नहीं है कि अगर आप कोशिश करेंगे तो आप क्या बन सकते हैं।

एक बार की बात है। एक नई नवेली विवाहिता अपनी मां के पास गई और बोली, 'मेरे पति इतने अच्छे हैं कि मैं उनसे जो भी मांगती हूं, मुझे मिल जाता है।’ दुनियादारी की खासी समझ रखने वाली उसकी मां ने उससे कहा, 'इसका मतलब है कि तुम ज्यादा नहीं मांग रही हो।’ आपके साथ भी यही बात है। आप भी जीवन से ज्यादा नहीं मांग रहे हैं, इसीलिए आप संतुष्ट हैं।

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 'संतुष्टि' लोगों के दिमाग का एक अनमोल गुण बन गया है, क्योंकि उन्होंने कभी उन पहलुओं को खोजने का प्रयास ही नहीं किया, जो भौतिकत से परे हैं।
तो क्या मेरा लालची होना अच्छा हैं? हां, आपको लालची होना चाहिए। अभी समस्या यह है कि लोग अपने लालच को लेकर भी कंजूस ही हैं। यही वजह है कि वे बड़ी संभावनाओं की आकांक्षा ही नहीं करते। अगर आप लालची होते तो आप जीवन से सब कुछ मांगते। क्या आप थोड़े से और पैसे, संपत्ति, ताकत या आनंद से संतुष्ट हो जायेंगें? नहीं, अगर आप वास्तव में लालची हैं तो सर्वोच्च की आकांक्षा करेंगें। दरअसल, 'पर्याप्त’ या 'काफी’ शब्द को हमें अपने शब्दकोश से निकाल देना चाहिए, क्योंकि  'काफी’ शब्द सिर्फ भौतिक जीवन के मामले में ही प्रासंगिक है। मान लजिए आपको भोजन परोसा जा रहा है, तो कुछ समय के बाद आप कहेंगे ही कि 'बस, काफी हुआ'। जो कुछ भी भौतिक है, उस मामले में कभी न कभी आपको कहना ही होगा कि 'बस अब बहुत हुआ'। 'संतुष्टि' लोगों के दिमाग का एक अनमोल गुण बन गया है, क्योंकि उन्होंने कभी उन पहलुओं को खोजने का प्रयास ही नहीं किया, जो भौतिकत से परे हैं।

भौतिकता अपने आप में बेहद सीमित है। अगर आप भौतिक चीजों को लेकर लालची हो गए तो किसी दूसरे के लिए वह बचेगी ही नहीं। मान लीजिए, यहां कुछ खाना रखा है। अगर आप कहते हैं कि मुझे यह पूरा खाना चाहिए तो जाहिर सी बात है कि किसी और के खाने के लिए कुछ नहीं बचेगा। ऐसे ही मान लीजिए- कहीं सीमित जमीन है। अगर कोई कहता है कि मुझे यह पूरी चाहिए तो किसी और के रहने के लिए कुछ नहीं बचेगा।

जिस पल आप कहते हैं कि 'मैं संतुष्ट हूं', आप एक असीम और अनंत जीव होने की अपनी संभावना को नष्ट कर देते हैं, क्योंकि संतुष्टि एक सीमा है।
अगर आपका जीवन और आपके अनुभव का दायरा आपके अस्तित्व की भौतिक प्रकृति तक ही सीमित है, तो 'पर्याप्त’ या 'संतोष’ अच्छी बात है। लेकिन अगर आपका जीवन भौतिक से परे तमाम आयामों को खोजना चाहता है; अगर भौतिक से परे की कोई चीज आपके जीवन का जीता-जागता सत्य बन गई है, तो 'संतोष' बुरी बात है। ऐसे में संतोष करने का अर्थ है - आपने अपना विकास रोक दिया है। जिस पल आप कहते हैं कि 'मैं संतुष्ट हूं', आप एक असीम और अनंत जीव होने की अपनी संभावना को नष्ट कर देते हैं, क्योंकि संतुष्टि एक सीमा है।

आपने चाहे कितनी ही बड़ी कामयाबी क्यों न हासिल की हो, वो कामयाबी नहीं है। कामयाबी भी संतोष का ही दूसरा नाम है। जब आप कहते हैं कि मैं कामयाब हूं, तो इसका मतलब है कि आप ऐसी जगह पर पहुंच गए हैं जहां आप विश्राम कर सकते हैं, जहां आप सोचते हैं कि यह पर्याप्त है। पर्याप्त होने का भाव अच्छा नहीं, संतुष्टि अच्छी नहीं; कामयाबी की आपकी सीमित सोच भी अच्छी नहीं है। जब तक यह जीवन विकास की अपनी असीम अवस्था में नहीं खिल जाता- आपको संतोष नहीं करना चाहिए। तब तक आपको असंतोष की आग में जलते रहना चाहिए। सुनने में यह उन सभी परंपरागत शिक्षाओं के विपरीत लगता है, जो अब तक आपको सिखाया गया है। आपको हमेशा यह बताया गया कि कैसे संतुष्ट रहा जाए। एक तरह से देखा जाए तो संतोष लोगों को राजनीतिक संस्थाओं की ओर से सिखाया गया है, क्योंकि अगर लोग असंतुष्ट होंगे तो वे क्रांति की शुरुआत कर सकते हैं। आप जिसे संतोष कहते हैं, वह बस खुद का दमन है।

ध्यान या भक्ति बस यही है - एक इच्छा बिना किसी लक्ष्य के, एक शक्तिशाली इच्छा बिना किसी उद्देश्य के।
इच्छा की प्रक्रिया एक असीमित प्रक्रिया है, लेकिन आप अपनी इच्छाओं के मामले में चयनात्मक होकर इसे सीमित बना देते हैं। मुझे इस चीज की इच्छा है, मुझे वह चीज चाहिए, लेकिन यह नहीं चाहिए, और भी न जाने क्या क्या! आप अपनी इच्छाओं की इस पक्षपाती प्रकृति को हटा दें। आप यहां बैठें और किसी खास चीज की इच्छा न करें, बस हर चीज को चाहें। करके देखिए, क्या आपका दिमाग ऐसा कर सकता है? हर उस चीज के लिए इच्छा करें, जो आप जानते हैं और हर उस चीज के लिए भी जिसे आप नहीं जानते। ऐसे में आप देखेंगे कि जिस ऊर्जा को आप इच्छा कहते हैं, वह एक जबर्दस्त ऊर्जा बनकर आपको ध्यान की अवस्था में ले जाती है।

ध्यान या भक्ति बस यही है - एक इच्छा बिना किसी लक्ष्य के, एक शक्तिशाली इच्छा बिना किसी उद्देश्य के। अगर आपकी इच्छा, अगर आपकी ऊर्जा पूरे प्रवाह में है, एक ऐसा प्रवाह जो किसी खास चीज की ओर नहीं है, तो यही ध्यान है। अभी यह ढीली पड़ गई है, क्योंकि आपको सिखाया गया है कि मेरे पास जो भी है, मैं उससे संतुष्ट हूं। ऐसा सोचकर-सोचकर आप एक दुर्बल जीव बन गए हैं, जीवन में गर्जन नहीं हैं। याद रखें, दुर्बल जीवन ध्यान नहीं कर सकता, दुर्बल जीवन प्रेम भी नहीं कर सकता और न ही भक्ति कर सकता है। दुर्बल जीवन कभी खिलेगा ही नहीं क्योंकि ऐसा जीवन आधा जीवन ही होता है, संपूर्ण नहीं। अगर आप खुद को जीवन का एक धधकता हुआ अंश बनाना चाहते हैं, तो इच्छा करनी होगी, इसके या उसके लिए नहीं, बस इच्छा करनी होगी, असीमित इच्छा। आपको सोचना होगा, जब तक इस जगत में मौजूद हर चीज को जान नहीं लूंगा, जब तक इस संसार की हर चीज को आत्मसात नहीं कर लूंगा, चैन से नहीं बैठूंगा।