"यह सोचना भी अपने आप में कितना अजीब है कि हम साल का एक दिन धरती के नाम समर्पित करेंगे। इसी धरती की परिक्रमा की वजह से दिन और रात होते हैं। यहां तक कि हमारा शरीर भी इसी धरती का अंश है। मानव इस बात को भूल गया है कि वह बस कुछ समय के लिये ही इस धरती के गर्भ से बाहर आया है और एक दिन वह इसी धरती में समा जाएगा। उसके लिए आज का दिन यह हमें यह दिन याद दिलाता है कि हम इसी धरती के अंश है। अगर मानवता को लंबे समय तक इस धरती पर रहना है तो आपको धरती की तरह सोचना होगा, धरती की तरह व्यवहार करना होगा और धरती बनना होगा, क्योंकि आप इस धरती के ही अंश हैं।"  -सद्‌गुरु

मुझसे अकसर यह सवाल पूछा जाता है कि एक आध्यात्मिक गुरु और योगी हो कर मैं पेड़ क्यों लगाता हूं। अफसोस की बात है कि हमने अपने मन में जीवन को कई हिस्सों में इस तरह से बांट रखा है कि एक हिस्से को नष्ट करते हैं और उम्मीद करते हैं कि दूसरा जीवित रहेगा। पेड़ हमारे सबसे निकट के संबंधी हैं। जो चीज वे छोड़ते हैं, वह हम ग्रहण करते हैं। और जो चीज हम निकालते हैं, उसे वे ग्रहण करते हैं। इस तरह हमारा जीवन एक दूसरे के पूरक के रूप में चलता रहता है।

देखा जाए तो पेड़ हमारे फेफड़ों के बाहरी हिस्से की तरह हैं। अगर आप जीना चाहते हैं तो अपने शरीर की अनदेखी नहीं कर सकते। यह धरती भी इसका अपवाद नहीं है। आप जिसे ' मेरा शरीर' कहते हैं , वह दरअसल इसी धरती का एक हिस्सा है।

जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं, तो उसका आशय ऊपर देखने या नीचे देखने से नहीं है। इसका आशय अपने भीतर देखने से है। अपने भीतर देखने का पहला मूलभूत सिद्धांत है कि भीतर मुड़ते ही आप हमेशा अपने आप को अपने आसपास की चीजों के हिस्से के तौर पर देखना शुरू कर देते हैं। इसकी अनुभूति हुए बिना आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत नहीं हो सकती। यह अनुभूति आध्यात्मिकता का लक्ष्य नहीं है, बल्कि उसकी बुनियाद है।

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लोग इस बात को प्रचारित कर रहे हैं कि धरती खतरे में है। यह धरती किसी तरह से खतरे में नहीं है। अगर खतरे में कोई है तो वह है मानव जीवन।

संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार , साल 2050 तक इस धरती पर 9 अरब 60 करोड़ लोग होंगे। भारत की कुल जमीन का 52 फीसदी हिस्सा यहां की एक अरब बीस करोड़ आबादी के लिए अन्न उगाता है। यह एक रोचक तथ्य है कि हमारे किसान बहुत ही बुनियादी सुविधाओं के जरिए एक अरब से ज्यादा लोगों के लिए अन्न पैदा कर रहे हैं। लेकिन जो इंसान अन्न उगा रहा है, उसे अपने लिए ढंग का खाना नसीब नहीं है।

यह कोई गर्व की बात नहीं है। जो व्यक्ति हम सब के लिए खाना उगा रहा है, उसके अपने बच्चों को भरपेट खाना नसीब नहीं होता। इसकी वजह यह है कि हमने यह निर्णय करने की जिम्मेदारी नहीं ली कि मौजूदा जमीन के जरिए हम कितनी आबादी का पोषण कर सकते हैं। लेकिन यह जमीन असंख्य लोगों के लिए तो संसाधन नहीं उपलब्ध करा सकती।

इसके लिए या तो हम खुद सजग होकर अपनी आबादी को नियंत्रित करें, या फिर कुदरत अपने क्रूर तरीकों से इसे नियंत्रित कर लेगी। हमारे सामने बस यही दो विकल्प हैं। मानव आबादी पर नियंत्रण किए बिना पर्यावरण की बात करना या भूमि व जल संरक्षण की बात करना बेमतलब है, क्योंकि विज्ञान और तकनीकी ज्ञान ने इंसान को अति सक्रिय बना दिया है। दरअसल, आप मानव गतिविधियों पर तो लगाम लगा नहीं सकते , हां मानव आबादी पर जरूर लगाम लगाई जा सकती है।

हम खुद सजग होकर अपनी आबादी को नियंत्रित करें, या फिर कुदरत अपने क्रूर तरीकों से इसे नियंत्रित कर लेगी। मानव आबादी पर नियंत्रण किए बिना पर्यावरण की बात करना या भूमि व जल संरक्षण की बात करना बेमतलब है ।

मानव गतिविधियों पर रोक लगाने का कोई तरीका नहीं है। मानव गतिविधियों पर रोक लगाने का मतलब है , इंसान की आकांक्षाओं और इच्छाओं पर रोक लगाना। लेकिन आज हमारी आकांक्षा है कि हर इंसान शिक्षित हो और हर इंसान के सपने पूरे हों। वे सारी चीजें हमारी मौजूदा आबादी के साथ पूरी नहीं की जा सकतीं। यानी हमें अपनी आबादी का उतने में ही सामंजस्य बिठाना पड़ेगा, जितने संसाधन हमारे पास हैं। बस यही चीज हम कर सकते हैं।

अगर यह ठीक ढंग से हो जाता है तो फिर हमें पेड़ लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। अगर हम जंगलों और मैदानों से दूर रहें , तो पेड़ खुद - ब - खुद उग आएंगे। लोग इस बात को प्रचारित कर रहे हैं कि धरती खतरे में है। यह धरती किसी तरह से खतरे में नहीं है। अगर खतरे में कोई है तो वह है मानव जीवन। मुझे उम्मीद है कि हम इस तथ्य को समझेंगे और वह करने की कोशिश करेंगे , जो हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जरूरी है।