सम्यमा : जीवन के सबसे तीव्र पल

बीती फरवरी में महाशिवरात्रि के बाद मैंने अपने तीसरे सम्यमा सत्र में भाग लिया और आखिरकार अपना अनुभव लिखने बैठी हूं। सम्यमा के असर के बारे में बताने के लिए यह बताना जरूरी है कि किस तरह एक तरह के सफर ने मुझे ईशा और अपने गुरु तक पहुंचाया।

कई साल पहले मिशिगन, यूएसए में हुए एक सत्संग में सद्गुरु ने कहा था, ‘क्रोध का अनुभव करना ठीक है, मगर उसके साथ आने वाली क्रियाओं को नष्ट कर दीजिए।’ उनका यह उद्धरण मुझे अब भी याद है क्योंकि यह मुझसे और कई सालों की मेरी तकलीफों और मुसीबतों से सीधे-सीधे जुड़ा है। मेरे जीवन में क्रोध कई अलग-अलग रूपों में मौजूद रहा है। मेरे परिवार में सब जोर से बोलने वाले लोग थे। इसलिए मैं खुद भी चिल्लाना और जोर से बोलना सीख गई। इसके अलावा, मैं एक अटर्नी हूं, क्रोध को सही तरह से धार देते हुए एक निरर्थक ‘कानूनी’ बहस को आगे ले जाया जा सकता है। एक अटर्नी के रूप में और अपनी वास्तविक प्रकृति में मैं हर चीज पर सवाल उठाती थी, सद्गुरु पर भी। दुनिया में दोष देखने की आदत के कारण मेरा गुस्सा खुले आम फलता-फूलता रहा। या यूं कहें तो जो मेरा रास्ता काटे, वो अपनी मुसीबत को न्यौता दे। मगर मैं भाग्यशाली थी कि सद्गुरु ने मेरा रास्ता काटकर मुझे मुसीबत में ला दिया।

मैंने 2004 के अप्रैल में अपने पति के साथ अमेरिका में सात दिन के ईशा प्रोग्राम में हिस्सा लिया और पिछले पांच सालों में यह एक लंबा, थकाऊ मगर उन्माद भरा और खूबसूरत सफर रहा है। इस प्रोग्राम के बाद मैंने उसे लेकर बहुत गंभीरता नहीं दिखाई। प्रोग्राम के दो सप्ताह बाद मैंने क्रियाएं छोड़ दीं। हालांकि उस प्रोग्राम के दौरान उन्होंने मुझे गहराई में छुआ था, मगर मैं उनके निर्देशों का पालन करने के लिए ज्यादा इच्छुक या उत्सुक नहीं थी। फिर एक ऐसा समय आया जब मैं काफी परेशानियों से गुजरी, और अकेलेपन की गहराई में खो गयी। तब जा कर मैंने क्रियाओं को शुरू किया। उनकी क्रियाओं से लाभ होने के बावजूद मैं उनकी हर चीज को लेकर शंकालु थी। मेरे अंदर वास्तव में अपने जीवन की किसी चीज को लेकर कृतज्ञता या समझ की भावना नहीं थी। इसमें सद्गुरु भी शामिल थे।

मैंने 2004 के नवंबर में सद्गुरु के साथ भाव स्पंदन कार्यक्रम में भाग लिया था। वह दिलचस्प था, मगर अद्भुत नहीं, जैसा कि ढेर सारे लोग उसे बताते हैं, लेकिन निश्चित तौर पर उसने मुझे उकसाया। मेरा पहला सम्यमा 2005 में था और ईमानदारी से कहूं तो मैंने उसके लिए बिल्कुल भी तैयारी नहीं की थी। मेरे पास ढेर सारी समस्याएं और बहाने थे। मगर जो भी हो, मैं अपने पहले सम्यमा के लिए तैयार नहीं थी और उसने मुझे निराश कर दिया। मेरा पहला सम्यमा मेरे भाव स्पंदन की तरह था, बस ये अनुभव ज्यादा तीव्र था।

मैंने अपनी रिश्तेदार से बात की, जो इस कार्यक्रम में भाग ले चुकी थी। उसने कहा कि उसने अपनी कुंडलिनी का अनुभव किया जबकि मुझे सिर्फ खराब गले और दुखते घुटने का अनुभव हुआ। इस तरह, मेरे पहले सम्यमा का असर तत्काल नहीं हुआ, मगर वो मिठास धीरे-धीरे सामने आने लगी। आने वाले हफ्तों में मैंने अधिक तीव्र तरीके से चीजों को देखना और महसूस करना शुरू किया और अचानक मुझे यह एहसास हुआ कि मेरा क्रोध धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे और सूक्ष्म तरीके से घट रहा था। ऐसा लग रहा था मानो कोई चीज मायने नहीं रखती, फिर भी हर चीज मायने रखती है। मैं अब उदासीन नहीं रहना चाहती थी, बल्कि हर चीज और हर इंसान से पूरी तरह जुड़ना चाहती थी। यह एहसास मेरे लिए बहुत नया, मधुर मगर अस्त-व्यस्त करने वाला था।

मैं एक आत्मनिर्भर व्यक्ति थी, जिसे अधिक क्रोध की समस्या थी मगर अब मेरी शख्सियत बहुत कोमलता से बदल रही थी और इससे मुझे डर लग रहा था। क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैं ऐसा बनने के लिए वास्तव में कोई कोशिश नहीं कर रही थी, किसी और ने मेरे लिए यह किया था और वह किसी ‘ईश्वर’ की ऊर्जा वाला एक जीता-जागता इंसान था। मैं ऐसा ही सोचती थी और अब भी ऐसा ही मानती हूं। मगर अफसोस कि मैं एक बार फिर सम्यमा की क्रियाएं जारी नहीं रख पाई, जैसा कि उन्होंने कहा था। मेरे जीवन में होने वाली अच्छी चीजों ने भी मुझे उनकी बातों को सुनने और उनका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। मैं अपनी पुरानी आदतों में फंसी थी, अपने दिमाग में अटकी हुई थी और ऐसी चीजें चाहती थी, जो मेरे ख्याल से मुझे संतुष्ट और खुश कर सकती थीं। मुझे कोई अंदाजा नहीं था कि वे चीजें क्या हैं – मगर उन्हें था।

फिर सद्गुरु ने गर्मियों में मुझे ईशा इंस्टीट्यूट ऑफ इनर साइंसेज (आई.आई.आई.) में साधना करने के लिए आमंत्रित किया। वह गर्मियां मेरी आत्मा के लिए सेहतकारी थी। पहली बार मैंने आई.आई.आई. और वहां रहने वाले लोगों के जरिये सच्ची लगन, सच्ची कृतज्ञाता और सच्चा नि:स्वार्थ भाव सीखा। मेरी भावनाओं की तीव्रता इतनी अधिक थी, कि मैं वहां हर किसी में सद्गुरु को देखने लगी। मुझे सिर्फ उन लोगों में सद्गुरु नहीं दिखते थे, मैं उनकी ऊर्जा को महसूस कर रही थी और शीशे में देखने के बाद मुझे लगता था कि वह मेरे अंदर भी मौजूद हैं। मैं इन सभी लोगों को अपना विस्तार मान कर इनसे प्रेम करने लगी थी। उन गर्मियों ने मुझे अपने तीसरे सम्यमा में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

तीसरे सम्यमा की मेरी तैयारी पहले दो से अलग थी। फिर भी अपने आलसी स्वभाव के कारण मैंने तैयारी शुरू करने के लिए सम्यमा से पहले चालीसवें दिन तक का इंतजार किया, मगर फिर कोई चीज़ मेरे अंदर प्रबल हो उठी। चालीस दिनों के अंत तक आते-आते भारत के ईशा आश्रम जाने का दिन नजदीक आने तक मेरी अपनी सासू मां से भी खूब पटने लगी थी। इसलिए अपनी आखिरी मंजिल के लिए विमान में चढ़ने तक मैं सम्यमा के लिए और उसके बाद उसे अपने साथ अमेरिका वापस ले जाने के लिए पूरी तरह तैयार और इच्छुक हो चुकी थी।

एक बार फिर, मेरा सम्यमा विस्फोटक नहीं था, मगर हर तरह से अविश्वसनीय था। इस बार सद्गुरु ने हर प्रक्रिया के दौरान हमारे हाथ थामे, मानो हम उनके अपने बच्चे हों। मैं एक छोटे शिशु की तरह महसूस कर रही थी जिसे हर चीज बताई जाती है कि उसे क्या करना है। साथ ही, सभी स्वयंसेवक और खुद सद्गुरु मेरा पूरी ख्याल रख रहे थे। मेरी कोई प्राइवेसी नहीं थी और मेरा दिन खाने से लेकर ब्रेक और बाथरूम जाने के समय तक पहले से तय होता था। मगर यह कोई मायने नहीं रखता था। मेरे लिए सिर्फ सम्यमा महत्वपूर्ण था। और ये एहसास होने पर मैंने पूर्ण रूप से खुद को उसमें समर्पित कर दिया था। यहां तक पहुंचने में मुझे दो सम्यमा और बहुत सी मानसिक परेशानियों से गुजरना पड़ा था, मगर आखिर मैं यहां तक पहुंच गई थी और मैंने इस थकाऊ मगर रोमांचक पल का आनंद लिया।

उम्मीद है कि यह मेरा आखिरी सम्यमा नहीं होगा क्योंकि मैं जीवन भर हर साल यहां आना चाहती हूं, अगर सद्गुरु चाहें। मैं उनकी बस में सवार हो चुकी हूं और किसी भी चीज के लिए अपनी सीट छोड़ने को तैयार नहीं हूं। सौभाग्य से उन्होंने अपनी बस की सवारी का आनंद लेने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए ढेर सारी सीटें उपलब्ध रखी हैं।